संकेत बिंदु-(1) होली का त्योहार दो दिन का (2) व्यापारिक संस्थान, मंडियाँ और औद्योगिक प्रतिष्ठान (3) सड़कों, बाजारों में होली का दृश्य (4) नारियों की ब्रज और हरियाणवी शैली की होली (5) उपसंहार।
होली का त्योहार दो दिन मनाया जाता है- पहले दिन पूर्णिमा को होली दहन और दूसरे दिन प्रतिपदा को धुलेण्डी। होली दहन के दिन की बाजार में मस्ती का प्रभाव विविध रूपों में देखा जाता है। रंग-गुलाल, पिचकारी, पिचकारीनुमा तमंचे तथा रंग फेंकने के खिलौनों एवं मिठाई की दुकानों पर भीड़ होती है। खरीदारों को औरों से पहले माल चाहिए, इसलिए उनकी अधीरता और दुकानदार का ग्राहकों की चैं चैं से परेशानी का दृश्य देखने योग्य होता है। नगरों में इस दिन सार्वजनिक अवकाश नहीं होता, अतः होली का हुड़दंग नहीं मचता।
दूसरी ओर, उत्तर भारत में अपराह्न गली-मोहल्ले तथा बाजारों के चौराहों पर होलिका रूप में लकड़ी का ढेर इकट्ठा किया जाता है। सायंकाल नारियाँ उसका पूजन करती हैं। नारियों के साथ बच्चे भी होते हैं। बच्चों में होली खेलने का उत्साह तो होता है, किंतु होलिका पूजन में वे स्वच्छ और व्यक्तित्व-प्रदर्शन करने वाले वस्त्र पहनकर आते हैं, अतः न कोई रंग फेंकता है, न वे फिंकवाते हैं। यों इक्का-दुक्का घटनाओं से होली का उल्लास प्रकट नहीं होता, माहौल नहीं बनता। बड़ी सादगी और श्रद्धापूर्वक होली-पूजन संपन्न होता है।
धुलेण्डी के दिन व्यापारिक संस्थान, मंडियाँ, औद्योगिक प्रतिष्ठान बंद हैं। राजकीय, अर्धराजकीय तथा निजी कार्यालय बंद हैं। महानगरों के सरकारी परिवहन (बसें) की गति मध्याह्न 2 बजे तक अवरुद्ध है। सड़कें सुनसान हैं। बाजार चहल-पहल शून्य हैं। लगता है धुलेण्डी का पावन दिन सब लोगों ने केवल उमंग, उल्लास और मौजमस्ती के लिए सुरक्षित रखा है।
नौ बजते-बजते होली का हुड़दंग गलियों, मुहल्लों में मंदगति से शुरू हुआ। बच्चों ने इस हुड़दंग का श्रीगणेश किया। बच्चों के इस हुड़दंग ने युवक-युवतियों, अधेड़ वृद्धों का हृदय तरंगित किया, उल्लसित किया। दस बजते-बजते युवा-युवतियों की टोली निकल पड़ीं। वे निकालने लगे घरों में घुसे साथियों को। मदमाती मुस्कान से उनके स्वागत का आह्वान करने लगे। रंग-बिरंगा गुलाल लगाकर, एक दूसरे के गले मिलकर होली की शुभकामनाएँ देने लगे और मस्ती के आलम में साथी बनने का आग्रह करने लगे। उसी समय साथी और पड़ोस के घरों में लोग रंग की बाल्टी उँडेलकर, पिचकारी के स्नेह जल से प्रेम के छींटे फेंककर, गुब्बारे की मस्तीभरी मार से टोली का ध्यान आकर्षित करते हुए तुनक मिजाज और बिगड़े दिलों का स्वागत करने लगे।
नीरव सड़कों, सुनसान गलियों और शांत बाजारों में होली का यौवन झलकने लगा। शांत और शून्य बाजारों को होली की टोलियों ने जीवन दे दिया, उनमें यौवन भर दिया। सर्वत्र चहल पहल।
ढोल की थाप पर नाचती गाती, ‘होली है, भई होली है’, का घोष करती, शरारत करती, मस्ती में भंगड़ा करती बाजारों को सुशोभित करती हैं, ये टोलियाँ। भाल, बाल और गाल गुलाल से गुलाबी हैं। पहने हुए कपड़ों पर इंद्रधनुषी रंगों से हृदय की मस्ती फूट रही है। नाच रहे हैं, गा रहे हैं, अर्ध-अश्लील तथा द्विअर्थी वचनों को बोलकर अंत:करण का वासनामयी उल्लास प्रकट कर रहे हैं।
जरा शरारत का दृश्य देखिए। आमने-सामने से आती दो अपरिचित टोलियों में गुलाल लगाने की भिड़न्त हो गई। सहनीय सीमा में प्यार की चुहुल शुरू हो गई और होने लगा भंगड़ा का ‘कंपटीशन ‘। बीच बाजार में समा बँध गया है। वाह-वाह की गुँजार और तालियों की गड़गड़ाहट प्रतियोगियों को प्रोत्साहित कर रही है। ढोल की थाप और पदों की गति का तालमेल दर्शनीय है।
नारियों की ब्रज और हरियाणवी शैली की होली ने तो बाजार के दृश्य को और रंगीन बना दिया है। नारियाँ धोती के कोलड़े बनाकर होली का प्यार दर्शाने वाले पुरुषों पर मार करती हैं। कोलड़े की मार खाकर भी पुरुष हँसते हैं, पुनः मजा लेने को तत्पर रहते हैं। इस छेड़ा-छेड़ी में अश्लीलता का प्रदर्शन नाम मात्र है, स्पर्श वर्जित है। अतः होली की मस्ती की उमंग का स्वच्छ रूप है। दूसरी ओर, ब्रज-शैली में नारियाँ पुरुषों पर डंडे, लाठियों से प्रहार करती हैं। साहसी युवक होली की हिम्मत में यह वार झेलते हैं। तमाशबीन पुरुष अश्लील मुद्रा और हरकतों में एक ओर नारियों से मसखरी करते हैं, तो दूसरी ओर साहसी युवकों को ‘चढ़ जा बेटा सूली पर’ के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
बाजार में जहाँ टोली, समूह, झुंडों की मस्ती है, वहाँ सड़कों पर वाहन दौड़ रहे हैं। मोटर साइकिल, स्कूटर, कार अपने सगे-संबंधियों, बंधु-बान्धवों, मित्रों से होली खेलने दौड़ रहे हैं। होली के हुड़दंग में वाहनों का भी हुलिया बिगाड़ दिया है, गुब्बारों की मार ने।
भंग की मस्ती में, शराब की मदहोशी में बीच बाजार के नाच-गान, छींटाकसी अश्लील हरकतें, ताने-फबतियाँ, सिनेमा के प्रिय ‘डायलॉग’ (संवाद) या गानों की भद्दी पंक्तियाँ मदनोत्सव की दृश्यावली से भिन्न नजारा पेश करती हैं। इन नजारों में यौवन की उमंग है, वसंत की मादकता है और है प्रकृति से एक रस होने की लालसा।
दो बजते-बजते ‘फाग’ का खेल समाप्त होता है और सायंकाल को लगते हैं होली- मेले, होलिका-बाजार। यहाँ जनता सोल्लास इकट्ठी होती है और होली मिलन मनाती है। मेलों में चाट-पकौड़ी, मिठाई-नमकीन, खेल-खिलौने तथा दैनिक जरूरत की चीजों की दुकान लगी होती हैं। बच्चों के लिए विविध प्रकार के झूले लगे होते हैं। कहीं मदारी तमाशा दिखा रहा होता है, तो कहीं नट-नटनी अपने खेलों का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। कहीं धार्मिक प्रवचन चल रहा होता है।
नगरों के उन स्थानों में जहाँ ‘ मूर्ख जलूस’ निकलते हैं, वहाँ बाजारों में हास्य की गंगा बहती है। नर-नारी जलूस को देखकर आनंद-विभोर होते हैं।