संकेत बिंदु-(1) अर्थ ही जीवनाधार (2) नारी, पुरुष पर आश्रित (3) विद्वानों के अनुसार नारी के गुण (4) नारी ने आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त की (5) उपसंहार।
आज आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में नारी पूर्णतः परवश है, प्रेरणा- शून्य है, स्फूर्तिमयी स्वतंत्रता से वंचित है। अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। अतः उसका जीवन अभिशाप ग्रस्त है।
आज के भौतिकता-प्रधान युग में अर्थ ही जीवनाधार है। अर्थ के बिना उदर-पूर्ति संभव नहीं और न अर्थ के बिना वस्त्रों से शरीर ढका जा सकता है। भूखा पेट नारी को पाप के लिए प्रेरित करता है। वह संबंधियों के यहाँ दर-दर भटकती है, कभी-कभी पर-पुरुष से संबंध जोड़ती है या अपमानित होकर वासना के बाजार में अपने को बेचती है। भारतीय समाज में नर और नारी के कर्तव्य विभाजित हैं। द्रव्योपार्जन नर का कर्तव्य है। उपार्जित धन से गृह संचालन नारी का दायित्व है। अतः वह उपार्जित धन की न्यासी (ट्रस्टी) है, न कि अधिकारिणी। अधिकार के अभाव में वह धन का उपयोग अपनी सामान्य इच्छाओं की पूर्ति में भी नहीं कर पाती। जहाँ उसने पुरुष द्वारा उपार्जित धन पर अधिकार समझा, वहाँ घर में कलह, द्वंद्व और उत्पीड़न उपस्थित हो जाते हैं। घर की सुख-शांति काफूर हो जाती है।
नर नारी पर अत्याचार-अनाचार इसलिए करता है, क्योंकि नारी जीवन की सभी सुख-सुविधाओं के लिए पुरुष पर आश्रित है। वह उसे भोग-विलास की सामग्री तथा घर की बंधक दासी के अतिरिक्त कुछ नहीं समझता। नारी की स्थिति अन्य स्थावर संपत्ति से अधिक कुछ नहीं। पुरुष बात-बात में उसे झिड़केगा, फटकारेगा, क्रोध प्रकट करेगा, आँखें दिखाएगा, मारेगा, पीटेगा, शारीरिक यातना देगा, मानसिक कष्ट पहुँचाएगा और नारी, ‘एक धरम एक व्रत नेमा; करम, वचन, मन, पति पद प्रेमा’ का आदर्श प्रस्तुत करते हुए सब सहेगी। कारण, वह जानती है कि घर की लक्ष्मण रेखा पार करते ही उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। इसका मूल कारण अर्थ- परतंत्रता ही है।
पुरुष ने नारी को प्रसन्न रखने के लिए उसे अनेक सुंदर विशेषणों से अलंकृत किया। संतति की जन्मदात्री होने के कारण ‘जननी’ का पवित्र पद दिया। धर्म-कार्यों में उसका साथ अनिवार्य करके उसे ‘सहधर्मिणी’ का पद प्रदान किया। गृह की व्यवस्थापिका बनाकर ‘गृहलक्ष्मी’ बनाया। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ का सिद्धांत-वाक्य बनाकर ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ का गीत गाया, किंतु धन के क्षेत्र में उसे परतंत्र ही रखा। धन-संपदा की चाबी देकर भी उसे तिजोरी को हाथ न लगाने की हिदायत कर दी। कारण, पुरुष भयभीत रहता है कि उस गृह लक्ष्मी के हाथ लगते ही चंचल लक्ष्मी कहीं सच्चे अर्थों में गृह लक्ष्मी न बन बैठे।
विद्वानों ने नारी के अलंकरण के लिए नवीन शब्द खोजे। उसे ‘सहयात्री’ की पदवी प्रदान की। ‘सहयात्री’ शब्द पर आपत्ति प्रकट करती हुई परम विदुषी और कवयित्री महादेवी जी कह उठीं, ‘सहयात्री वे कहे जाते हैं, जो साथ चलते हैं, कोई अपने बोझ को सहयात्री कहकर अपना उपहास नहीं करा सकता। भारतीय पुरुष ने स्त्री को या तो सुख के साधन के रूप में पाया या भार रूप में, फलतः वह उसे सहयोगी का आदर न दे सका। उन दोनों का आदान-प्रदान सामाजिक प्राणियों के स्वेच्छा से स्वीकृत सहयोगी की गरिमा न पा सका, क्योंकि एक ओर नितांत परवशता और दूसरी ओर स्वच्छंद आत्म-निर्भरता थी।’
शास्त्रों में नारी के छह गुणों की चर्चा है-(1) कार्येषु मंत्री (काम-काज में मंत्री के समान सलाह देने वाली), (1) करणेषु दासी (सेवादि में दासी के समान सेवा वाली), (3) भोज्येषु माता (माता के समान सुस्वादु भोजन कराने वाली), (4) रमणेषु रंभा (शयन के समय रंभा के समान सुख देने वाली), (5) धर्मानुकूला (धर्म के अनुकूल), (6) क्षमया-धारित्री (क्षमादिगुण धारण करने में पृथ्वी के समान स्थिर रहने वाली), किंतु कहीं यह नहीं लिखा देखा कि वह ‘ अर्थ-अधिकारिणी’ भी है। कारण, अर्थ का अधिकार नारी के हाथ में आ जाए, तो वह नर की असंगत बातों को क्यों सहेगी? उसके अत्याचारों को क्यों स्वीकार करेगी?
नारी ने आर्थिक स्वतंत्रता के द्वार खटखटाए। अर्थोपार्जन के लिए संभव साधनों की तलाश की। अपनी योग्यता का विकास किया। चेतना शक्ति को जागृत किया। कार्य के अनुरूप अपने को ढाला। वह शक्ति, साहस और सहिष्णुता की त्रिवेणी बनी। उसने घर की चार दीवारी को लाँघा। पुरुष के वासना लोलुप चक्षुओं का निडरता से सामना किया।
आर्थिक रूप से स्वतंत्र नारी ने स्वाभिमानपूर्ण जीवन की ओर पग बढ़ाया। नारी पर होने वाले अत्याचार, पाशविक वृत्ति तथा कुवचनों पर प्रतिबंध लगा। पुरुष नारी को वास्तविक संगिनी समझने पर विवश हुआ। नारी सच्चे अर्थों में गृहलक्ष्मी बनी। दैनंदिन जीवन में पुरुष को सलाह देने लगी। उसने पुरुष को स्वास्थ्यानुकूल पौष्टिक भोजन दिया। वासना में रमण का भरपूर आनंद दिया तो वंश-वर्धन भी किया। संतान का पालन-पोषण तथा गृह संचालन में आदर्श प्रस्तुत किया।
आर्थिक रूप से स्वतंत्र नारी ने नर का सीमातीत दुर्व्यवहार पसंद नहीं किया। उसने तलाक लेकर स्वतंत्र, स्वाभिमानपूर्ण जीवन जिया। पति की अकाल-मृत्यु पर दर-दर की ठोकरें नहीं खाईं, घर-गृहस्थी की गाड़ी को डगमगाने नहीं दिया। वृद्धावस्था के दुखद दिनों में पेंशन, ग्रेच्युटी, प्राविडेंट फंड, सुरक्षित निधि ने उसको पुत्रों के सामने गिड़गिड़ाने से बचाया। जीवन के निराशात्मक क्षणों और विवशतापूर्ण परिस्थितियों में भी गौरव- पूर्ण जीवन जीने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
जब मायावी संसार में माया अर्थात् अर्थ ही जीवनाधार हो, उसकी शक्ति अपरिमित हो, ‘सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयंति’ के अनुसार संसार के सभी गुणों का वास कंचन अर्थात् अर्थ में हो, माया सारे पापों पर परदा डालती हो, भय मुक्ति की कुंजी हो, जब जीवन में ‘धनाद् धर्मस्ततः सुखम्’ अर्थात् धन से धर्म होता है, उससे सुख की प्राप्ति होती हो, तब नारी की आर्थिक स्वतंत्रता जीवन के पूर्ण विकास के लिए अनिवार्य है। इसी में परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व का मंगल निहित है।