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नागरिक के अधिकार व कर्त्तव्य

Fundamental rights in hindi

मानव एक सामाजिक प्राणी है। मानव और समाज का पारस्परिक संबंध अत्यंत प्राचीन काल से चला आ रहा है। दोनों को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। मानव के बिना समाज नहीं है और समाज के बिना मानव का जीवन दुर्लभ है, इस प्रकार की बातें हम प्रायः सुनते हैं। इनमें सच्चाई है और बहुत अधिक सच्चाई है। किंतु इसके होते हुए भी विचारक सदा से यह प्रश्न पूछते आ रहे हैं कि मानव बड़ा है या समाज। मानव के लिए समाज बना है अथवा समाज की रक्षा के लिए मानव को अपने सर्वस्व की आहुति दे देनी चाहिए। अंततोगत्वा समाज चरम लक्ष्य है अथवा मानव? इस प्रश्न पर यूरोप व भारत के विद्वानों ने चिरकाल तक गहरा विचार किया है और भिन्न-भिन्न उत्तर दिए हैं। एक समय ऐसा रहा, जबकि समाज को अधिक महत्त्व दिया गया और कहा गया कि राज्य, समाज या बिरादरी के आगे मानव का कोई अस्तित्व नहीं है। फिर इस विचार ने जोर पकड़ा कि नहीं, समाज की रचना अंततोगत्वा मानव के लिए ही तो हुई थी। राज्य, समाज, पंचायत या बिरादरी आदि सभी का मुख्य उद्देश्य मानव की नैतिक उन्नति के लिए ही सब प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करना है। मानव पहले स्वतंत्र और निर्द्वन्द्व विचरण करता था। अपनी असुरक्षा और असुविधा को देखकर उसने समाज बनाया, राज्य की संस्था को उत्पन्न किया और उसे अपने कुछ अधिकार सौंपकर अपनी स्वतंत्रता इसलिए सीमित कर ली कि वह निश्चिंत होकर उन्नति की सब सुविधाएँ पा सके। समाज की विविध संस्थाओं ने मानव से ही अधिकार पाकर उसकी रक्षा और सामूहिक उन्नति के लिए अवसर प्रदान करने का कार्य अपने हाथ में लिया। आज इसी दिशा में अधिकांश लोग विचार करते हैं। संसार का इतिहास इन दोनों विचारधाराओं के संघर्ष की कहानी रहा है। जब राज्य ने अपने हाथ में निरंकुश अधिकार लेकर देश के मानवों पर जनता पर – अत्याचार शुरू कर दिए, जनता ने क्रांति का बिगुल बजाकर उस राज्य को नष्ट कर दिया। राज्य और जनता के इस संघर्ष में जल्दी या देर में जनता की विजय हुई है। राज्य को झुकना पड़ा और मानव के अधिकारों की घोषणा करनी पड़ी। आज प्रायः प्रत्येक राज्य के संविधान में नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की जाती है। इन अधिकारों को हम नागरिकों के धार्मिक, आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के अधिकार कह सकते।  विदेशी राज्य के साथ घोर संघर्ष के बाद भारत का संविधान बनाया गया। स्वभावतः भारत के संविधान में इन सब अधिकारों को इस तरह सूचीबद्ध कर दिया गया है कि एक साथ नागरिक के प्रायः सभी अधिकारों को हम देख सकते हैं।

भारतीय संविधान में

भारत के संविधान में नागरिक के अधिकार इस तरह गिनाये गए हैं-

(1) जाति, धर्म या लिंग के भेद-भाव के बिना प्रत्येक वयस्क नागरिक को चुनाव में मत देने, नौकरी व सहायता पाने का अधिकार।

(2) भाषा, लेखन, निःशस्त्र संगठन, देश में बिना किसी रुकावट के भ्रमण, निवास और संपत्ति के उपार्जन तथा व्यवसाय का प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता।

(3) अदालत में दंड की स्वीकृति के बिना किसी नागरिक को कोई दंड न दिया जा सकेगा।

(4) बेगार नहीं ली जाएगी और न नर-नारी या बालक की बिक्री हो सकेगी।

(5) धर्म, संस्कृति, पूजा-पाठ की स्वतंत्रता।

(6) किसी नागरिक की संपत्ति बिना मुआवजे के छीनी न जा सकेगी।

(7) किन्हीं विशेष परिस्थितियों में नागरिक के कुछ अधिकारों में कमी भी की जा सकेगी।

इन अधिकारों के अतिरिक्त संविधान में कुछ मूलभूत सिद्धांतों की भी घोषणा की गई है, जिनसे नागरिक के कुछ अधिकारों को और भी पुष्टि मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के पर्याप्त साधन, किसी बालक व बालिका को किशोरावस्था में श्रम पर न लगाने की गारंटी, प्रत्येक नागरिक को कार्य करने का अधिकार, बेकारी, बुढ़ापे तथा असमर्थता की अवस्था में राष्ट्र द्वारा उसकी सहायता, प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा और अस्पृश्यता निवारण आदि निर्देश नागरिकों के मूल अधिकारों को और भी पुष्ट व स्पष्ट करते हैं।

रूजवेल्ट के चार अधिकार

इन सब नागरिक अधिकारों के मूल में यह भावना काम कर रही है कि समाज का निर्माण इसलिए हुआ है कि वह नागरिकों की उन्नति, निश्चिन्तता और सुरक्षा की सुविधाएँ दे सके, क्योंकि नागरिक या मानव ही समाज को अपने ऊपर नियंत्रण या नियमों द्वारा कार्य संचालन का अधिकार देता है। यदि समाज यह सब सुविधाएँ न दे, नागरिक की स्वतंत्रता का ही अपहरण कर ले, तो फिर समाज संगठन का लाभ ही क्या होगा? इसलिए प्रत्येक सभ्य देश के संविधान में नागरिक के मौलिक अधिकारों की योजना की जाती है। यह अधिकार न हों तो क्यों कोई नागरिक राज्य या समाज की अधीनता स्वीकार करे? क्यों कोई अपनी गाढ़ी कमाई से राज्य को कर दे? जब द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के दिन आए और विश्व की भावी व्यवस्था के संबंध में बड़े देशों के राजनीतिज्ञ विचार करने लगे, तो अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जिन चार विशेषताओं पर बल दिया, वे संसार भर के नागरिकों के आधारभूत अधिकारों के संबंध में थीं। वे निम्न- लिखित हैं-

भाषण – स्वातन्त्र्य – प्रत्येक नागरिक अपने विचारों का प्रचार करने में स्वतंत्र हो।

धार्मिक स्वातन्त्र्य – प्रत्येक नागरिक अपने धार्मिक विश्वास के साथ पूजा, उपासना तथा व्रत अनुष्ठान में स्वतंत्र हो।

अभाव से निश्चिंतता— प्रत्येक देश के नागरिक को भोजन, वस्त्र और विकास की सुविधाएँ प्राप्त हों।

भय से मुक्ति – विदेशों के, विधर्मियों के अथवा विजातीयों के आक्रमण का भय किसी नागरिक को चिंतित न करे।

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी इस प्रश्न पर बहुत अधिक विचार किया। कई वर्षों तक इस प्रश्न के विविध पहलुओं पर विचार करने के पश्चात् नागरिक के अधिकारों का महत्त्वपूर्ण घोषणा पत्र जारी किया गया। इसमें भी इन अधिकारों को पूर्णतः स्वीकार किया गया है। इन अधिकारों की स्वीकृति का अर्थ है कि मानव को यह ध्यान रहेगा कि राज्य या समाज उसकी स्वतंत्रता का अपहरण नहीं करेगा। सामूहिक काम करने से उसे बहुत सी सुविधाएँ मिल जाती हैं और वह अपनी नैतिक या भौतिक उन्नति निश्चिंत होकर कर सकेगा।

समाज साधन है, उसकी भी उपेक्षा नहीं

हमने उपर्युक्त विवेचन में यह स्वीकार कर लिया है कि मानव या नागरिक की उन्नति साध्य है और समाज या राज्य उसका साधन। परंतु समाज के ऊपर मानव के महत्त्व को मानते हुए भी हमें यह न भूल जाना चाहिए कि साधन की उपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि साधन दृढ़ न हुआ तो भी कठिनाइयाँ बहुत बढ़ जाती हैं। घोड़ा या गाड़ी साधन हैं, पर उनकी भी चिंता करनी पड़ती है। यदि कोई आदमी घोड़े या गाड़ी की चिंता नहीं करता, तो वह उनसे काम भी नहीं ले सकता। कमजोर घोड़ा सवार को कितनी दूर ले जाएगा? इसी तरह साधन होते हुए भी समाज की उपेक्षा नहीं की जा सकती। समाज को बलवान, प्रभावशाली और सशक्त बनाने के लिए नागरिक को भी त्याग करना पड़ेगा, कुछ उत्तरदायित्वों और कर्त्तव्यों का निर्वाह करना पड़ेगा। मैं जो अपने लिए चाहता हूँ, वही दूसरा भी पा सके, इसके लिए मुझे जो कुछ करना है, मेरा कर्त्तव्य कहा जाएगा। जब सभी नागरिक मिलकर अपने-अपने कर्त्तव्य का पालन करेंगे, समाज को अपना पूरा सहयोग देंगे, तभी समाज बलवान और समर्थ होकर मानव की उन्नति व रक्षा में सहायक हो सकेगा।

पाँच प्रकार के कर्त्तव्य

नागरिक के सैकड़ों कर्त्तव्यों को राजनीति व नागरिकशास्त्र के विद्वानों ने पाँच वर्गों में विभक्त किया है-

(1) अपने प्रति कर्त्तव्य ;

(2) अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्य ;

(3) अपने मुहल्ले, ग्राम या नगर के प्रति कत्तंव्य ;

(4) अपने देश के प्रति कर्तव्य ; और

(5) विश्व के प्रति कर्त्तव्य।

जिस तरह किसी मकान की मजबूती के लिए यह आवश्यक है कि उसमें लगी सामग्री, ईंटें, सीमेंट, लकड़ी और लोहा, उत्कृष्ट कोटि की हों, उसी तरह किसी समाज या देश को बलवान, उन्नत और सभ्य बनाने के लिए देश के नागरिकों का भी स्वस्थ, सुशील, सदाचारी, शिक्षित और बलवान होना जरूरी है। यदि देश के नागरिक ही दुर्बल अस्वस्थ, आलसी और प्रशिक्षित हैं, तो देश क्या उन्नति करेगा? इसीलिए प्रत्येक नागरिक की अपनी व्यक्तिगत उन्नति न केवल उसके अपने लिए, बल्कि समाज या देश के लिए भी आवश्यक है। परिवार की उन्नति के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को एक दूसरे के प्रति दया, सहानुभूति और सेवा के गुण आवश्यक हैं, अन्यथा परिवार उन्नति नहीं कर सकेगा। अपने मुहल्ले, ग्राम या नगर की उन्नति के लिए भी कर्त्तव्य की भावना आवश्यक है। यदि हम निकम्मे और स्वार्थी सदस्यों को चुन लेते हैं तो ऐसे सदस्यों की बनी हुई पंचायत या नगरपालिका (म्यूनिसिपल कमेटी) से नगर की उन्नति की कोई आशा नहीं की जा सकती। इन संस्थानों को सहयोग हम नहीं देंगे, कर नहीं देंगे, सफाई या दूसरे नियमों का पालन न करेंगे, तो ये संस्थाएँ क्या काम कर सकेंगी? स्वतंत्र और बलवान देश की समर्थ सरकार ही हमारी रक्षा कर सकती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि देश पर जब कभी कोई आपत्ति आए, हम अपना सर्वस्व देकर भी उसकी रक्षा करें। अपने प्रांत, वर्ग, धर्म, जाति या भाषा के आधार पर देश को हानि न ‘पहुँचाएँ; उसे खंडित करके दुर्बल न बनाएँ। आत्मा परिवार आम या नगर तथा देश तक अपना क्षेत्र विस्तृत कर लेता है। उसके आगे उसे अपनी दृष्टि विश्व तक व्यापक कर लेनी चाहिए। उन राष्ट्रीयता या स्वार्थपूर्ण देश-प्रेम बड़े-बड़े विश्व युद्धों का कारण बनता है। इसलिए अपने देशवासियों के समान दूसरे देशों के नागरिकों से भाईचारा पैदा कर लेना चाहिए। हम अपने ग्राम, नगर, प्रांत या देश के ही नागरिक नहीं हैं विश्व के भी नागरिक हैं। विश्व बंधुत्व की भावना का प्रसार होगा, तो विश्व शांति स्थापित रह सकेगी और एक दूसरे देश की उन्नति में सहयोग देते हुए समस्त विश्व समृद्ध और सुखी हो जाएगा।

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