संकेत बिंदु – (1) सार्वजनिक पूजा का उत्सव (2) गणेश के जन्म से संबंधित कथाएँ (3) सभी देवताओं में सर्वश्रेष्ठ (4) गणपति के अनेक नाम (5) महाराष्ट्र में गणेशोत्सव।
विघ्न विनाशक, मंगलकर्ता, ऋद्धि-सिद्धि के दाता, विद्या और बुद्धि के आगार ‘गणपति’ की पूजा-आराधना का सार्वजनिक उत्सव ही गणेशोत्सव है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी के जन्म-दिन पर यह उत्सव मनाया जाता है।
वैदिक काल से लेकर आज तक, सिंध और तिब्बत से लेकर जापान और श्रीलंका तक तथा भारत में जनमें प्रत्येक विचार और विश्वास में गणपति समाए हैं। जैन संप्रदाय में ज्ञान का संकलन करने वाले गणेश या गणाध्यक्ष की मान्यता है तो बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का विश्वास कभी यहाँ तक रहा है कि गणपति स्तुति के बिना मंत्रसिद्धि नहीं हो सकती। नेपाली तथा तिब्बती वज्रयानी बौद्ध अपने आराध्य तथागत की मूर्ति के बगल में गणेश जी को स्थापित रखते रहे हैं। सुदूर जापान तक बौद्ध प्रभावशाली राष्ट्रों में गणपति पूजा का कोई न कोई रूप मिल जाएगा।
पुराणों में रूपकों की भरमार के कारण गणपति के जन्म का आश्चर्यजनक रूपकों में अतिरंजित वर्णन है। अधिकांश कथाएँ ब्रह्मवैवर्त पुराण में हैं। गणपति कहीं शिव-पार्वती के पुत्र माने गए हैं तो कहीं पार्वती के ही।
पार्वती से शिव का विवाह होने के बहुत दिनों तक भी पार्वती कोई शिशु न दे पाई तो महादेव ने पार्वती से पुण्यक व्रत करने का वर दिया। परिणामस्वरूप गणपति का जन्म हुआ।
नवजात शिशु को देखने को ऋषि, मुनि, देवगण आए। आने वालों में शनिदेव भी थे। शनिदेव जिस बालक को देखते हैं, उनका सिर भस्म हो जाता है, वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसलिए शनि ने बालक को देखने से इंकार कर दिया। पार्वती के आग्रह पर जैसे ही शनि ने बालक पर दृष्टि डाली, उसका सिर भस्म हो गया।
सिर भस्म होने या कटने के संबंध में दूसरी कथा इस प्रकार है- एक बार पार्वती स्नान करने गईं। द्वार पर गणेश को बैठा गईं। आदेश दिया कि जब तक मैं स्नान करके न लौहूँ किसी को प्रवेश न करने देना। इस बीच शिव आ गए। गणेश ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें भी रोका। शिव क्रुद्ध हुए और बालक का सिर काट दिया।
तीसरी कथा इस प्रकार है- ‘जगदम्बिका लीलामयी हैं। कैलास पर अपने अन्तः पुर में वे विराजमान थीं। सेविकाएँ उबटन लगा रही थीं। शरीर से गिरे उबटन को उन आदि- शक्ति ने एकत्र किया और एक मूर्ति बना डाली। उन चेतानामयी का वह शिशु अचेतन तो होता नहीं। उसने माता को प्रणाम किया और आज्ञा माँगी। उसे कहा गया कि बिना आज्ञा कोई द्वार से अंदर न आने पाए। बालक डंडा लेकर द्वार पर खड़ा हो गया। भगवान शंकर अंतःपुर में आने लगे तो उसने रोक दिया। भगवान भूतनाथ कम विनोदी नहीं हैं। उन्होंने देवताओं को आज्ञा दी — बालक को द्वार से हटा देने की। इंद्र, वरुण, कुबेर, यम आदि सब उसके डंडे से आहत होकर भाग खड़े हुए – वह महाशक्ति का पुत्र जो था। इसका इतना औद्धत्य उचित नहीं, फलतः भगवान शंकर ने त्रिशूल उठाया और बालक का मस्तक काट दिया।’
(कल्याण : हिंदू संस्कृति अंक, पृष्ठ 788)
पार्वती रो पड़ीं। व्रत की तपस्या से प्राप्त शिशुं का असमय चले जाना दुखदायी था ही। उस समय विष्णु के परामर्श से शिशु हाथी का सिर काटकर इनको जोड़ दिया गया। मृत शिशु जी उठा; पर उनका शीश हाथी का हो गया। गणपति ‘गजानन’ हो गए।
सनातन धर्मानुयामी स्मार्ती के पंच देवताओं में- गणेश, विष्णु, शंकर, सूर्य और भगवती में, गणेश प्रमुख हैं। इसलिए सभी शुभ कार्यों के प्रारंभ में सर्वप्रथम गणेश की पूजा की जाती है। दूसरी धारणा यह है, ‘शास्त्रों में गणेश को ओंकारात्मक माना गया है। इसी से इनकी पूजा सब देवताओं से पहले होती है।’
(राणा प्रसाद शर्मा : पौराणिक कोश, पृष्ठ 146)।
तीसरी धारणा यह है, ‘देवताओं ने एक बार पृथ्वी की परिक्रमा करनी चाही। सभी देवता पृथ्वी के चारों ओर गए, किंतु गणेश ने सर्वव्यापी राम नाम लिखकर उसकी परिक्रमा कर डाली, जिससे देवताओं में सर्वप्रथम इनकी पूजा होती है।’
(हिंदी साहित्य- कोश भाग 2 : पृष्ठ 112)
लौकिक दृष्टि से एक बात सर्वसिद्ध है कि प्रत्येक मनुष्य अपने शुभ कार्य को निर्विघ्न समाप्त करना चाहता है। गणपति मंगल मूर्ति हैं, विघ्नों के विनाशक हैं। इसलिए इनकी पूजा सर्वप्रथम होती है।
गणेश जी महान् लेखक भी हैं। व्यास जी का महाभारत इन्होंने ही लिखा था। वे शिव के गणों के पति होने के कारण ‘गणपति’ तथा ‘विनायक’ कहलाए। गज के मुख के समान मुख होने के कारण ‘गजानन’ तथा पेट बढ़ा होने के कारण ‘लम्बोदर’ कहलाए। एक दाँत होने के कारण ‘एकदंत’ कहलाए। विघ्नों के नाश कर्ता होने के नाते ‘विघ्नेश’ कहलाए। ‘हेरम्ब’ इनका पर्यायवाची नाम है।
वर्तमान समाज में इनके जन्म-दिन का उत्सव भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक मनाया जाता है। इसका कारण कुछ लोग यह भी मानते हैं कि महाराष्ट्र के पेशवा प्रायः मोर्चे पर रहते थे। भादों के दिनों में चौमासा के कारण वे राजधानी में ही रहते थे। अतः तभी उन्हें विधिपूर्वक पूजन का अवसर मिलता था।
महाराष्ट्र में गणेशोत्सव की प्रथा सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने चलाई थी। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया।
लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीय रूप दिया। इसके बाद तो महाराष्ट्र में गणपति का पूजन एक पर्व बन गया। घर-घर और मुहल्ले मुहल्ले में गणेश जी की मिट्टी की प्रतिमा रखकर गणेशोत्सव दस दिन तक मनाया जाने लगा। भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को गणेश जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। गणपति की प्रतिमाओं को समुद्र या महानद में विसर्जित कर दिया जाता है। उत्सव के प्रत्येक चरण में ‘गणपति बप्पा मोरया, पुठचा वर्षी लोकरया’ अर्थात् ‘गणपति बाबा फिर-फिर आइए, अगले वर्ष जल्दी आइए’ के नारे से गगन गूँज उठता है।
भारत के सभी नगरों और महानगरों में महाराष्ट्र के लोग रहते हैं। उनकी प्रेरणा से और सर्वमंगल – विघ्ननाशक होने के नाते हिंदू-जन भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को बड़े धूमधाम से गणेश जी की शोभा यात्रा निकालकर आनंदोत्सव मनाते हैं।