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‘गंगा – दशहरा’ आखिर है क्या? आइए जानें।  

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संकेत बिंदु – (1) गंगा – उत्पत्ति से संबंधित कथाएँ (2) गंगा के नाम और उसके समीप धार्मिक स्थल (3) गंगा – जल की पवित्रता (4) पुराणों और संस्कृत काव्यों में वर्णन (5) भौतिक और धार्मिक दृष्टि से महत्त्व।

गंगा दशहरा पुण्य सलिला गंगा का हिमालय से उत्पत्ति का दिवस है। ज्येष्ठ शुक्त दशमी को यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन गंगा स्नान से दस प्रकार के पापों का विनाश होता है, इसलिए इस दिन को ‘गंगा दशहरा’ नाम दिया गया।

गंगा की उत्पत्ति के विषय में दो कथाएँ प्रचलित हैं – ‘गंगा की उत्पत्ति विष्णु के चरणों से हुई थी। ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में भर लिया था। ऐसी प्रसिद्धि है कि विराट् (वामन) अवतार के आकाशस्थित तीसरे चरण को धोकर ब्रह्मा ने गंगा को अपने कमंडल में रख लिया था। (ध्रुव नक्षत्र स्थान को पौराणिकगण विष्णु का तीसरा चरण मानते हैं। वहीं मेघ एकत्र होते हैं और वृष्टि करते हैं। वृष्टि ही से गंगा की उत्पत्ति होती है।)

दूसरी धारणा है कि गंगा का जन्म हिमालय की कन्या के रूप में सुमेरुतनया अथवा मैना के गर्भ में हुआ था।

पुराणों के अनुसार पृथ्वी पर गंगा अवतरण की कथा इस प्रकार है – कपिल मुनि के शाप से राजा सगर के साठ सहस्र पुत्र भस्म हो गए। उनके उद्धार के लिए उनके वंशजों ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए घोर तपस्या की। अंत में भागीरथ की घोर तपस्या से ब्रह्मा प्रसन्न हो गए। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर ले जाने की अनुमति दे दी, किंतु पृथ्वी ब्रह्म लोक से अवतरित होने वाली गंगा के तीव्र वेग को सहन करने में असमर्थ थी। अतः भागीरथ ने महादेव जी से गंगा को अपनी जटाओं में धारण करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा के कमंडलु से निकल कर गंगा शिव की जटाओं में रुक गई। वहाँ से पुनः मृत्युलोक की ओर चली।

देवकुल की होने से गंगा को ‘सुरसरि’ कहा गया। विष्णु चरणों से उत्पत्ति के कारण गंगा को ‘विष्णुपदी’ कहा गया। भगीरथ के प्रयत्नों से प्रवाहित होने के कारण गंगा को भागीरथी’ कहा गया। जह्न ऋषि की कृपा से प्रवाहित होने के कारण इसका ‘जाह्नवी’ नाम पड़ा। गंगा की तीन धाराओं (स्वर्ग गंगा : मंदाकिनी, भूगंगा : भागीरथी तथा पाताल गंगा: भोगवती) के कारण गंगा का नाम ‘त्रिपथगा’ पड़ा। इनके अतिरिक्त मंदाकिनी, देवापगा भी गंगा के पर्याय हैं।

जहाँ-जहाँ गंगा का प्रवाह मर्त्य भूमि को स्पर्श करता गया, वह पवित्र हो गई। वहाँ तीर्थ बन गए। गंगा तट पर स्थित हरिद्वार, (मायापुरी) प्रयाग, काशी तीर्थ बन गए। इनका आध्यत्मिक महत्त्व बढ़ गया। सहस्रों जन गंगा तट पर ध्यान, चिंतन करते हुए सांसारिक बंधन से मुक्त हो गए। अमरत्व को प्राप्त हो गए। पंडितराज जगन्नाथ संसार की ताड़ना- प्रताड़नाओं से दग्ध होकर जब गंगा तट पर पहुँचे तो किंवदंती है कि स्वयं माता गंगा आईं और उन्हें अपनी गोद में उठा ले गईं। स्वामी रामतीर्थ तो गंगा की गोद में ही शरीर को विसर्जित कर मोक्ष को प्राप्त हुए।

गंगा जल की पवित्रता के कारण ही हिंदुओं के प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में गंगा- जल प्रयुक्त होता है। भूत-प्रेत, अलाय बलाय दूर करने के लिए गंगा जल के छींटे मारे जाते हैं। मृत्यु-पथ की ओर अग्रसर हिंदू को गंगा-जल के आचमन से स्वर्ग-द्वार के योग्य एवं निडर बनाया जाता है। उसके लिए तो वही औषध है (औषधं जाह्नवी तोयम्)। हिंदू मृत्यु के पश्चात् अपनी काया को, अग्नि समर्पण के उपरांत अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करवाने में अपने को धन्य समझता है। संन्यासी का शव तो गंगा को ही समर्पित किया जाता। कितनी दिव्यता, श्रेष्ठता और पवित्रता है गंगा-जल में। इसके प्रति कितनी श्रद्धा- आस्था है हिंदू-मन में।

गंगा का जल हमारे ऋषि-मुनियों, त्यागी तपस्वियों, देश भक्त, बलिदानियों तथा पूर्वजों की क्षार होती अस्थियों से मिश्रित है, पवित्र है। गंगा में डुबकी लगा कर हम उन पुण्यात्माओं का पुण्य ओढ़ते हैं। उससे अपने शरीर को पवित्र करते हैं।

धार्मिक दृष्टि से गंगा के महत्त्व का वर्णन महाभारत, पुराणों और संस्कृत काव्यों से लेकर ‘मानस’, ‘गंगावतरण’ जैसे हिंदी काव्यों से होता हुआ आधुनिकतम युग की काव्य- कृतियों में वर्णित है। कहा भी गया है-

दृष्ट्वा तु हरते पापं स्पृष्ट्वा तु त्रिदिवं नयेत्।

प्रतङ्गेनापि या गङ्गा मोक्षदा त्ववगाहिता॥

महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के अनुशासन पर्व में गंगा का महत्त्व दर्शाते हुए लिखा है, ‘दर्शन से, जलपान तथा नाम कीर्तन से सैकड़ों तथा हजारों पापियों को गंगा पवित्र कर देती हैं।’ इतना ही नहीं ‘गंगाजलं पावनं नृणाम्’ कहकर इसको सबसे अधिक तृप्तिकारक माना है।

तुलसी ने ‘गंगा सकल मुद मंगल मूला, सब सुख करनि हरनि सेब सूला ‘कहकर गंगा का गुणगान किया है।

पौराणिक उद्धरणों के अभाव में गंगा में महत्त्व का प्रसंग अछूता रह जाएगा। ‘विष्णु पुराण’ में लिखा है कि गंगा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श करने, उसमें स्नान करने तथा सौ योजन से भी ‘गंगा’ नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं-

गङ्ग गङ्गेति यो ब्रूयात् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णु लोकं स गच्छति॥

भौतिक दृष्टि से भी गंगा-जल का महत्त्व कम नहीं। यह प्राणिमात्र का जीवन हैं। पीने, नहाने, धोने तथा अन्यान्य कामों के लिए इसका उपयोग है। जल के बिना मानव जीवन अधूरा है। जल सिंचाई के काम आता है। इससे भूमि शस्य श्यामला होती हैं, तो खेती धन- धान्य से संपन्न। जल न होगा, तो देश में अकाल पड़ेगा। जन-जीवन अकाल-मृत्यु के मुँह का ग्रास बनेगा। जल यातायात का साधन है, प्रकाश स्रोत विद्युत् उत्पादन का कारण है। जल में स्नान, क्रीड़ा और जल पर नौका विहार मानव मन को स्फूर्ति प्रदान करता है।

भारत धर्म प्राण देश है। श्रद्धा उसका संबल हैं। अतः हिंदू आज भी पुण्य सलिला गंगा में माँ के दर्शन करता है। उसके सानिध्य में तृप्त होता है। उसके जल में स्नान कर अपने को धन्य समझता है। स्वयं को पापों से मुक्त मानता है। नगर में बिना सूचना के, गाँव में बिना ढिंढोरे के लक्ष-लक्ष हिंदू गंगा दशहरा के पावन दिन गंगा में गोता लगाते हैं। अपने को जीवन में सफल और मृत्यु पर मोक्ष का अधिकारी मानते हैं। यह अटल विश्वास ही गंगा दशहरा के स्नान द्वारा दस पापों के हरण का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

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