संकेत बिंदु – (1) चरित्र की श्रेष्ठता (2) सच्चरित्रता के लक्षण (3) सच्चरित्रता का निर्माण (4) इतिहास में चरित्रवान महापुरुषों की गाथाएँ (5) आचर ही सबसे बड़ा धर्म।
चरित्र की श्रेष्ठता का नाम ‘सच्चरित्रता’ है। श्रेष्ठ और शुभाचरण का पर्याय सच्चरित्रता है। सत्यवादिता, दयालुता, निष्कपटता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सदाचार, निर्भयता, शुचिता, संतोष, तप और दान सच्चरित्रता के लक्षण हैं। सदाचारी जीवन की व्याख्या, उपयोगिता तथा अनिवार्यता सिद्ध करना सच्चरित्रता का मूल है।
सच्चरित्रता मानव की श्रेष्ठता की कसौटी है। जीवन की शांति के लिए अमूल्य वस्तु है। सत्पुरुषों का भूषण है। दीर्घायु, मनोवांछित संतान तथा अक्षय धन प्राप्ति का माध्यम है। व्यक्ति के अमंगल की नाशक है।
सच्चरित्रता मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है। संसार के अन्य सद्गुणों में सर्वोत्तम है, सर्वोच्च है। उसके सामने सब ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ तुच्छ हैं।
सच्चरित्रता मनुष्य रूपी वृक्ष का सुंदर सुगंधित पुष्प है। सुंदर सुगंधित पुष्प के समान ही उदात्त चरित्र सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है और सबको प्रसन्नता प्रदान करता
है।
सच्चरित्रता मनुष्य की आत्मा को सुसंस्कृत करती है। विचारों, भावनाओं और संकल्प को दृढ़ एवं मंगलकारी बनाती है। सुख, संतोष और शांति प्रदान करती है। लोग सच्चरित्र व्यक्ति का अनुकरण करने के लिए लालायित रहते हैं।
सच्चरित्रता से मानव में शूरता, वीरता, धीरता, निर्भयता आदि गुण स्वतः आ जाते हैं, सुंदर स्वास्थ्य और सुबुद्धि का विकास होता है। कठिन से कठिन कार्य में सफलता प्राप्त होती है।
मनुस्मृति में मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक दस पापों से मुक्ति सच्चरित्रता के लक्षण बताए गए हैं। दस पाप ये हैं- (1) पराया धन अन्याय से लेने की चिंता, (2) मन से निषिद्ध कर्म करने का ध्यान, (3) परलोक नहीं है, यह शरीर ही आत्मा हैं, ऐसा मिथ्या आग्रह, (4) अप्रिय बोलना, (5) असत्य भाषण करना, (6) पीठ पीछे किसी की बुराई करना, (7) सत्य न होने पर भी बिना प्रयोजन बोलना, (8) बिना दिया हुआ धन लेना, (9) विधि रहित हिंसा, (10) पर-स्त्री-संग। इन पापों से रहित सदाचारी के चरणों में संसार की विभूति, बल, बुद्धि, वैभव लोटेंगे।
उत्तम चरित्र निर्धन का धन है। कठिनाइयों को जीतने, वासनाओं का दमन करने और दुखों को सहन करने से ही चरित्र उच्च, सुदृढ़ और निर्मल होता है, अन्य गुणों का विकास एकांत में होता है, किंतु सच्चरित्रता का निर्माण संसार के भीषण कोलाहल में होता है।
चरित्र-शुद्धि ठोस शिक्षा की बुनियाद है। अतः बर्टल के शब्दों में, ‘चरित्र एक ऐसा हीरा है, जो हर किसी पत्थर को घिस सकता है।’ बोर्डमैन सच्चरित्रता का फल वर्णित करते हुए लिखते हैं- ‘कर्म को बोओ और आदत की फसल को काटो, आदत को बोओ और चरित्र को काटो, चरित्र को बोओ और भाग्य को काटो।’
सद्गुण और प्रसन्नता माँ-पुत्री हैं। सम्मान सद्गुण का पुरस्कार है। धम्मपद के अनुसार ‘पुष्पों’ की सुगंध वायु के विपरीत नहीं जाती, किंतु सद्गुणों की सुगंध सभी दिशाओं में व्याप्त हो जाती है।’ अतः सद्गुण क्षणभर के लिए लज्जित किया जा सकता है, किंतु मिटाया नहीं जा सकता।’
महर्षि वाल्मीकि का कथन है, ‘श्रेष्ठ पुरुष दूसरे पापाचारी प्राणियों के पाप को ग्रहण नहीं करता। उन्हें अपराधी मानकर उनसे बदला नहीं लेना चाहता। इस उत्तम सदाचार की सदा रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि सदाचार ही सत्पुरुषों का भूषण है।’
चरित्रवान महापुरुषों की गाथाएँ इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। चरित्र बल के कारण प्रभु राम महाप्रतापी राक्षसराज रावण से लोहा लेने में समर्थ हुए। वन-वन भटकते पांडव सुघटित कौरव सेना को ललकार सके। भीष्म पितामह चरित्रबल के कारण इच्छा मृत्यु प्राप्त करते हैं, वीर वंदा वैरागी के सामने उसके पुत्र का वध कर उसके कलेजे को उसके मुँह पर मारा जाता है, पर वह आह तक नहीं भरता। कर्ण के शरीर पर जन्म से ही दिव्य कवच-कुण्डल थे। उनसे वह अजेय था। इंद्र कर्ण से विप्र-वेश में कवच-कुण्डल की भीख माँगते हैं। उनके छद्मरूप को पहचानते हुए भी कर्ण कवच-कुण्डल उतारकर चरित्र की मर्यादा रखते हैं। छत्रपति शिवाजी लूट के माल में प्राप्त यवन-रमणी को ससम्मान लौटा देते हैं। महाराणा प्रताप ने जीवन में कष्ट और विपत्तियाँ सहन कीं, किंतु मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की। बालक वीर हकीकत राय और गुरु गोविंदसिंह के दो पुत्रों ने हँस-हँसकर जीवन अर्पित कर दिया, किंतु इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया।
‘आचारः परमो धर्मः’ अर्थात् आचार ही सबसे बड़ा धर्म है। ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:’ – आचारहीन मनुष्य को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अंग्रेजी की कहावत है, ‘अगर मनुष्य का धन नष्ट हो गया तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, स्वास्थ्य नष्ट हुआ तो कुछ नष्ट हुआ और यदि चरित्र नष्ट हो गया तो उसका सब कुछ नष्ट हो गया।’ चरित्रहीन साधु, संत, महात्मा तथा राजनीतिज्ञ के उपदेशों का प्रभाव नहीं होता। जैसे चमकहीन मोती का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार सच्चरित्रता के अभाव में मानव किसी काम का नहीं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-
‘खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है। भलों के लिए तो यहीं स्वर्ग है।
सुनो स्वर्ग क्या है? सदाचार है। सदाचार ही गौरवागार हैं।’