(1) प्रस्तावना – हमारे महान देश का पतन और महात्मा गाँधी द्वारा
उसकी रक्षा।
(2) गाँवों को उन्नति से देश की उन्नति, पंचायत – राज्य द्वारा गाँवों का उत्थान।
(3) बापू के अनुसार पंचायत राज्य के लक्षण।
(4) प्राचीन भारत में पंचायत राज्य
(5) ग्राम पंचायत – राज्य का वर्त्तमान स्वरूप
(6) ग्राम पंचायत राज्य योजना के अन्तर्गत न्याय-वितरण
(7) उपसंहार – ग्राम पंचायत राज्य से ग्रामों की सर्वतोन्मुखी उन्नति एवं
समृद्धि।
वह भारतवर्ष जिसकी भूमि पर गंगा, यमुना आदि को पवित्र जल धाराएँ प्रवाहित हो रहा है, वह भारतवर्ष जो कभी ऋषि- मुनियों की तपोभूमि रहा, वह भारतवर्ष जहाँ भगवान ने राम, कृष्ण के रूप में अवतीर्ण होकर क्रीड़ाएँ कीं और पापियों का विनाश करके भू-भार हल्का किया, काल देव की कुदृष्टि से अधःपतन के गर्त में जा गिरा। पराधीनता की बेड़ियाँ पहनकर उसने अविद्या तथा दरिद्रता की शरण ली और अपनी संस्कृति का परित्याग किया। ऐसे संकट के समय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का आविर्भाव हुआ जिन्होंने पराधीनता दानवी के चंगुल से मुक्त करके हमें स्वतंत्रता के वायुमंडल में विचरण करने का सुअवसर प्रदान किया। प्रातः स्मरणीय बापू का कथन था कि भारतवर्ष ग्रामों में बसता है, गाँव हमारी प्राचीन संस्कृति के केंद्र स्थान हैं। जब तक भारत के 7 लाख ग्राम उन्नत, स्वावलम्बी एवं समृद्धिशाली न होंगे, जब तक यहाँ से विद्या का अन्धकार, दरिद्रता का दानव और ऊँच-नीच का भेद- भाव नष्ट न होगा; तब तक स्वतंत्रता अथवा स्वराज्य का भारत के लिए कोई मूल्य नहीं। वस्तुतः आज हमारे ग्राम नरक बने हुए हैं। वे गंदगी, अशिक्षा, दरिद्रता, भेदभाव और पारस्परिक झगड़ों की मूर्ति हैं। आज देहाती जीवन अभिशाप बना हुआ है। न उसमें कोई सरसता है और न उत्साह। ग्रामों की सर्वतोमुखी उन्नति में ही हमारे देश की उन्नति सन्निहित है। सुखी, समृद्ध तथा स्वावलम्बी समाज ही सच्चे लोकतंत्र का प्रतीक है। सच्चा लोकतंत्र अथवा सच्चा प्रजातंत्र स्थापित करने के लिए पंचायत – राज्य की आवश्यकता कौन स्वीकार न करेगा?
बापू के अनुसार पंचायत-राज्य उस लोकतंत्र को कहते हैं जिसके मुख्य लक्षण हैं-सुखी, समृद्ध एवं स्वावलम्बी देहात और देहाती प्रजा; जिसमें निर्धन और धनिक, स्त्री और पुरुष, काले और गोरे, जाति या धर्म के कारण असमानता मिट गई हो, जिसमें सब भूमि और सत्ता जनता के हाथ में हो; न्याय शीघ्र, शुद्ध और सस्ता हो; उपासना, वाणी और लेखनी की स्वतंत्रता हो और इन सबका आधार हो स्वेच्छा से संयम और धर्म का पालन।
जब हम भारतीय इतिहास के पन्ने उलटते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में छोटे-छोटे प्रजातंत्र थे, जो पंचायत- राज्य के प्रतिरूप थे। उनका उद्देश्य जनता के नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्तर को ऊँचा उठाना था। उन्हें जीवन के विविध पहलुओं के संबंध में अधिकार प्राप्त थे और वे शासन के अतिरिक्त शिक्षा एवं न्याय संबंधीकार्य भी करते थे। इन प्रजातंत्रों के अधिकारों का उपभोग अनेक नियमों के अनुसार होता था, जिनमें बहुत से अलिखित होते थे और कुछ लिखित प्रतिज्ञा पत्र के रूप में। इनके कई विभाग होते थे; जैसे- चिकित्सा, स्वच्छता, उद्योग, न्याय, सार्वजनिक भवनों, मंदिरों, तालाबों, विश्रामगृहों, कुओं एवं जलमार्गों का निर्माण, धार्मिक स्थानों का संरक्षण आदि। दुखियों के दुख निवारण और मृतकों की अन्त्येष्टि- क्रिया का दायित्व भी इन प्रजातंत्रों पर होता था। शासन की विभिन्न शाखाओं की देख-रेख समितियों द्वारा होती थी, जिनके सदस्य वोट द्वारा निर्वाचित होते थे। कालान्तर में यह व्यवस्था लुप्त हो गई।
अब पुनः प्राचीन आदर्श के आधार पर हमारे पंचायत राज्य का उदय हुआ है। प्रांत में इसके अनुसार सारी सत्ता विकेन्द्रित होकर स्वयंशासित ग्राम्य समाज में व्यापक रूप से निहित हो गई है। एक सहस्र की जनसंख्या के प्रत्येक ग्राम को शासन का केंद्र बनाया गया है। वहाँ एक ग्राम सभा की स्थापना की गई है। निकटस्थ छोटे-छोटे ग्राम जिनकी जन-संख्या पाँच सौ से न्यून है, बड़े ग्राम में सम्मलित कर लिए गए हैं। किन्तु तीन मील से अधिक दूर वाले ग्रामों की पृथक् ग्राम सभाएँ बनाई गई हैं। 21 वर्ष अथवा इससे अधिक वयस्क स्त्री-पुरुष ग्राम सभा के सदस्य हैं। हाँ; पागल, नैतिक अपराध में दंडित, दिवालिया, और राजकीय कर्मचारी इस अधिकार से वंचित किए गए हैं। ग्राम सभा अपनी एक कार्यकारिणी सभा का निर्माण करती है, जिसका नाम ‘ग्राम-पंचायत’ होता है। इसमें जनसंख्या के अनुसार 30 से 51 तक पंच होते हैं, जिनका निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य करते हैं। पंचों के अतिरिक्त प्रत्येक ग्राम पंचायत का एक निर्वाचित प्रधान तथा उपप्रधान भी होता है। निर्वाचन सम्मिलित प्रणाली पर होता है। परिगणित तथा अल्पसंख्यक जातियों के लिए उनकी जन-संख्या के अनुसार स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। यदि कोई पंच, प्रधान अथवा उपप्रधान ठीक-ठीक कार्य न करे अथवा जनता के साथ अनुचित व्यवहार करे तो ग्राम सभा के सदस्य, कम से कम दो-तिहाई वोटों से, उसे पृथक कर सकते हैं।
ग्राम पंचायत का संबंध स्वायत्त शासन तथा नागरिक संगठन से है। उसका ध्येय सार्वजनिक सेवा द्वारा जर्जरित एवं जीर्ण-शीर्ण ग्रामों का पुनर्निर्माण है। उसके कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य स्वच्छता, कृषि उद्योग आदि हैं।
उपर्युक्त जनहित कार्यों के अतिरिक्त पंचायत – राज्य द्वारा न्याय- वितरण सुलभ करने की योजना भी बनी है। अङ्गरेजी शासन में न्याय-वितरण बहुमूल्य था। धनवान् व्यक्ति के विरुद्ध निर्धन मनुष्य का न्याय पाना यदि असंभव नहीं तो दुस्साध्य अवश्य था। उत्तरो- त्तर अपील की व्यवस्था से गाँव वालों की पसीने की कमाई का रुपया पानी की भाँति बह जाता था और वे मुकदमेबाजी में अपना सत्यानाश कर बैठते थे। छोटे-छोटे मामले बढ़कर इतना विकराल रूप धारण कर लेते थे कि उनके निर्णयार्थ हाईकोंटों तक की शरण लेनी पड़ता थी। वास्तव में न्याय वितरण की इस दूषित व्यवस्था से ग्रामीण जनता का जो अहित हुआ है वह वर्णनातीत है। पंचायत- राज्य की योजना के अनुसार ग्राम सभाएँ पंचायती अदालतों का निर्माण करती हैं। तीन से पाँच ग्राम सभाओं का क्षेत्र एक पंचायती अदालत का क्षेत्र होता है। प्रत्येक ग्राम सभा पंचायती अदालतों के निमित्त पढ़े-लिखे पाँच पंच चुनती है। इस प्रकार चुने हुए 15 से 25 तक पंचों का एक पंच मंडल बन जाता है। यह पंच मंडल अपना एक सरपंच चुन लेता है। जब कोई झगड़ा या मामला पंच मंडल के समक्ष उपस्थित होता है तब सरपंच उसके निर्णय के लिए पंच- मंडल में से पाँच पंच नियुक्त कर देता है। इन पाँच पंचों में एक पंच उस ग्राम सभा क्षेत्र का निवासी होना चाहिए जहाँ वादी निवास करता है; और दूसरा उस ग्राम सभा क्षेत्र का निवासी जहाँ प्रतिवादी रहता है। इन पाँच पंचों की एक बेंच सरपंच के अभाव में अपने किसी पंच को अध्यक्ष चुन लेती है। बेंच का निर्णय अन्तिम होता है। उसके विरुद्ध अपील नहीं हो सकती। हाँ, अन्याय की दशा में निगरानी हो सकती है। पंचायती अदालतों में वकील द्वारा पैरवी का निषेध है। उन्हें गाँव के छोटे-छोटे दीवानी, माल तथा फौज- दारी के मुकदमे निबटाने का अधिकार है। यदि पंचायती अदालत के पंचों और सरपंचों ने सत्यनारायण का ध्यान रखते हुए न्याय किया और पक्षपात रहित होकर अपने को पंच परमेश्वर सिद्ध किया तो हमारे ग्राम्य- कलेवर को खोखला बना देने वाले पारस्परिक झगड़ों का शीघ्र अन्त हो सकता है और बापू के “सस्ते शीघ्र और शुद्ध न्याय” की इच्छा पूर्ण हो सकती है।
इस प्रकार हमारी वर्त्तमान सरकार ने बापू की कामना के अनुसार प्रांत में ग्राम पंचायत राज्य का श्रीगणेश करके शासन- दक्षेत्र में एक नवीन युग का सूत्रपात किया है और प्रांत में सच्चा जनतंत्र, सच्चा स्वराज्य स्थापित करने का बीड़ा उठाया है। प्रत्येक नर-नारी अब स्वयं अपने शासन में भाग ले रहा है। जन-जन के हाथ में अब सत्ता आ गई है। अपनी उन्नति, अपनी समृद्धि, अपने सुख का दायित्व उसी पर है। वह स्वयं अपनी कठिनाइयों का निवारण करके, अपने पथ को परिष्कृत करके उत्थान पथ पर अग्रसर हो सकता है। जहाँ वह अपना भला कर सकता है वहाँ सेवा द्वारा समाज के कल्याण में भी योग दे सकता है। पंचायत – राज्य-योजना ने इस प्रकार का पर्याप्त सुयोग उसे प्रदान किया है। इससे स्वार्थ और परमार्थ दोनों बनते हैं। सचमुच यह योजना राम-राज्य की ओर पहला कदम है।
यदि पंचायत राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ग्रामीण जनता ने सदुपयोग किया, यदि गाँव वालों ने पारस्परिक मनमुटाव, शत्रुता, दलबन्दी, जातीय विद्वेष, साम्प्रदायिकता और भेद-भाव को तिलांजलि देकर तन-मन-धन से अपना कर्त्तव्य पालन किया, यदि उन्होंने पारस्परिक सहयोग से अपनी जन्म भूमि की सेवा करना स्वीकार किया, तो हमारे ग्राम अल्पकाल में ही स्वर्ग तुल्य हो जायँगे वहाँ न कोई दरिद्र रहेगा, न दीन, न दुःखी न दलित पंचायत- राज्य हमारे गाँवों की काया पलट देगा, उनमें नवीन जीवन, नवीन स्फूर्ति, नवीन उमंग, नवीन शक्ति का संचार करेगा। कंकाल – मात्र हमारे गाँव उसको दिव्य प्रभा से जगमगाने लगेंगे और हमारे देश में सच्चा स्वराज्य, सच्चा रामराज्य स्थापित हो जाएगा। तभी हमारे राष्ट्र-पिता की स्वर्गीय आत्मा को परमानंद प्राप्त होगा।