संकेत बिंदु – (1) ग्रीष्म का आगमन (2) लंबे और आलस भरे दिन (3) ग्रीष्म का प्रकोप (4) गर्मी से बचने के उपाय (5) ग्रीप्म के लाभ |
‘सूर्य भगवान् की अविश्राम तप्त किरणें, सन्नाटा मारते हुए लू की झपट, तेज-पुरित उष्ण निदाघ, कुसुमावली पूरित वृक्षों का मुरझाना, नदियों का शुष्क होते हुए मंद प्रवाह, धरणीतल पर की अविरल शून्यता’ यह है ग्रीष्म का परिचय महाकवि प्रसाद के शब्दों में।
वसंत के पश्चात् ग्रीष्म का आगमन होता है। भगवान् सूर्य पृथ्वी के कुछ निकट आ जाते हैं, जिससे उनकी किरणें अति उष्ण होती हैं। ज्येष्ठ और आषाढ़ ग्रीष्म ऋतु के महीने हैं। ग्रीष्म के प्रारंभ होते ही वसंत ऋतु में मंद मंद चलने वाली पवन का स्थान साँय- साँय चलने वाली लू ले लेती हैं। हरियाली का गलीचा फटने लगता है। वसंत के चैतन्य और स्फूर्ति का स्थान आलस्य और क्लान्ति ले लेती है।
गर्मी के दिन भी लंबे होते हैं। भगवान् भास्कर रात्रि के अंधकार को नष्ट करने के लिए जल्दी प्रकट हो जाते हैं और बहुत देर तक जाने का नाम भी नहीं लेते। उदय होते ही वे अपनी प्रचंडता का आभास प्रथम रश्मि में ही दे देते हैं तथा दिन-भर परशुराम के समान क्रोधाग्नि बरसाकर, जन-जीवन को झुलमाकर सायं को अंधकार में लीन हो जाते हैं। ऊपर से साँय – साँय कर लू चलती है, नीचे सड़कों का तारकोल पिघलकर चिप चिप करता है। सीमेंट की सड़कें अंगारे वरमाती हैं। ग्राम में ऊबड़-खाबड़ मार्गों की मिट्टी नंगे पैरों को तप्त करती है और रेत में चलने वालों को तो दादी-नानी याद आ जाती हैं। घर से निकलने को न नर-नारियों का मन करता है. न पशु-पक्षियों का और न जीव-जंतुओं
का।
गर्मी के प्रचंड रूप को देखकर प्रसाद जी कहते हैं-
“किरण नहीं, ये पावक के कण
जगती धरती पर गिरते हैं।
‘निराला’ जी का भी यही विचार है-
ग्रीष्म तापमय लू की लपटों की दोपहरी।
झुलसाती किरणों की वर्षों की आ ठहरी॥
मानव और पशु-पक्षी ही नहीं, ग्रीष्म की दुपहरी में तो छाया भी आश्रय माँगती है कविवर बिहारी इस तथ्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
बैठि रही अति सघन बन, पैंठि सदन सन माँह।
देखि दोपहरी जेठ की, छाहौं चाहति छाँह॥
ग्रीष्म का प्रकोप प्राणियों को इतना व्याकुल कर देता है कि उन्हें सुध-बुध भी नहीं रह जाती। प्राणी पारस्परिक राग-द्वेष भी भूल जाते हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले जंतु एक-दूसरे के समीप पड़े रहते हैं, किंतु उन्हें कोई खबर नहीं रहती। इस दृश्य को देखकर कविवर बिहारी ने कल्पना की कि ग्रीष्म ऋतु सारे संसार को एक तपोवन बना देती है। जिस प्रकार तपोवन में रहते हुए प्राणी ईर्ष्या-द्वेष से रहित होते हैं, उसी प्रकार इस ऋतु में भी प्राणियों की स्थिति ऐसी ही हो जाती है। वे लिखते हैं-
कहलाने एकत वसत, अहि-भयूर मृग- बाघ।
जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ-निदाघ॥
प्यास और पसीना गर्मी के दो अभिशाप हैं। अभी-अभी पानी पिया है, किंतु गला फिर भी सूखा का सूखा। प्यास से मन व्याकुल, पसीने से शरीर लतपथ। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ग्रीष्म ऋतु में संतप्त यशोधरा के माध्यम से प्राणिमात्र का चित्रण करते हैं-
सूखा कंठ, पसीना छूटा, मृग तृष्णा की माया।
झुलसी दृष्टि, अँधेरा दीखा, दूर गई वह छाया॥
सरिता-सरोवर सूख गए, नद-नदियों में जल की कमी हो गई। परिणामतः पशु-पक्षी सूखे सरोवर को देखकर प्यास से व्याकुल हैं। प्रकृति भी प्यासी है और प्यास में उदासी है। गर्मी के इस प्रकोप से अपने आपको बचाने के लिए मनुष्य ने उपाय खोज निकाले हैं। साधारण आय वाले घरों में बिजली के पंखे चल रहे हैं, जो नर-नारियों की पसीने से रक्षा करते हैं। अमीरों के यहाँ वातानुकूलन के यन्त्र लगे हैं। समर्थ-जन गर्मी से बचने के लिए पहाड़ी स्थलों पर चले जाते हैं और ज्येष्ठ की तपती दोपहरी पहाड़ की ठंडी हवाओं में बिताते हैं। प्यास बुझाने के लिए शीतल पेय हैं। बर्फ तथा बर्फ से बने पदार्थ ग्रीष्म के शत्रु और जनता के लिए वरदान हैं।
ग्रीष्म की धूप से बचने के लिए जन-साधारण अपना काम सुबह और शाम के समय करने का प्रयत्न करते हैं। स्कूलों और कॉलिजों में अवकाश रहता है। यदि धूप में निकलना ही पड़े, तो फिर देखिए अद्भुत दृश्य। हैटधारी बाबू, हैटनुमा टोपी पहले नवयुवक और सिर पर तौलिया या कपड़ा ओढ़े अधेड़ दिखाई देंगे। फैशनपरस्त नंगे- सिर नर-नारियों की विचित्र दशा तो अवर्णनीय है। सड़क पर चलते-चलते बेहोश होने वालों में इनकी संख्या ही अधिक होती है।
ग्रीष्म ऋतु में फलराज रसाल का आनंद जी भर कर लीजिए और कच्चे दूध की लस्सी पीजिए। खरबूजा और तरबूज का आनंद लुटिए, किंतु साथ में भूल से पानी न पीजिए। ककड़ी और खीरे का रसास्वादन कीजिए, किंतु खीरे के विष का मर्दन करके। अलूचे, आलूबुखारे, आडू, और फालसे की भी चखिए।
वस्तुतः गर्मी अनाज को पकाती है। आम और तरबूज में मिठास लाती है। यह ऋतु वर्षा की भूमिका है, जिसके अभाव में न जलवृष्टि होगी, न धरती फलेगी, न खेती होगी और जनता अकाल का ग्रास बन जाएगी।
ग्रीष्म ऋतु उग्रता और भयंकरता का प्रतीक है। यह हमें संदेश देती है कि आवश्यकता पड़ने पर हमें भी उग्र रूप धारण करने में संकोच नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्रीष्म ऋतु प्राणियों को कष्ट सहने की शक्ति भी प्रदान करती है। ग्रीष्म के बाद वर्षा का आगमन इस तथ्य का संकेत है कि दुख के बाद ही सुख की प्राप्ति होती है, कठोर संघर्ष के पश्चात् ही शांति और उल्लास का आगमन होता है। अतः हमें धरती के समान ही ग्रीष्म की उग्रता को झेलना चाहिए। रहीम के शब्दों में-
जैसी परी सो सहि रहे, कह रहीम यह देह।
धरती पर ही परत हैं, सीत घाम अरु मेह॥