संकेत बिंदु-(1) संवैधानिक त्रुटि (2) तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दों का अभाव (3) अंग्रेजी मोह और राजकीय नीति के उपेक्षा (4) पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव (5) उपसंहार।
आज हिंदी-भारती का रथं कच्छप गति से आगे बढ़ रहा है। संविधान ने उसका लक्ष्य क्षितिज के उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ तक वह कभी पहुँच ही नहीं पाएगी। प्रांतीय भाषाओं ने उसे पंगु बना दियां है। अंग्रेजी की मानसिकता ने हिंदी-अभिरुचि का गला ही घोट दिया है। हिंदी के पक्षपाती, उसके कर्णधार तथा उसके नाम पर व्यवसाय करने वाले उसे गंगा में समाधिस्थ करने पर तुले हुए हैं।
कहने को हिंदी राष्ट्रभाषा है, पर उसकी स्थिति दासी से भी निकृष्ट है। संवैधानिक दृष्टि से राजनीतिज्ञों ने इस संदर्भ में तीन भूलें की हैं-
(1) यह निर्णय करना कि यदि भारत का एक भी प्रांत हिंदी को राष्ट्रभाषा रूप में प्रतिष्ठापित नहीं करना चाहेगा, तो वह राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती।
(2) हिंदी के साथ अंग्रेजी की प्रतिष्ठा।
(3) 16 प्रांतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा-पद देना।
भाषावार प्रांत निर्माण के पश्चात् देश के अहिंदीभाषी राज्यों में प्रांतवाद का विष तीव्र गति से फैला। प्रांतवाद की वाहिका बनी प्रांतीय भाषाएँ। इन प्रांतों ने अपनी प्रांतीय भाषाओं को शासकीय भाषा का पद प्रदान कर उसका अभिषेक किया। ऐसी स्थिति में हिंदी उनकी आँखों में शूल बन गई। वे खुलकर हिंदी-विरोधी हो गए। वे हिंदी के वर्चस्व को ताल ठोक कर नकारते हैं। प्रजातंत्र राष्ट्र में प्रांतीय वीटो (निषेधाधिकार) ने हिंदी को सदा-सर्वदा के लिए राष्ट्रीय मुकुट से वंचित कर दिया। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। न सारे प्रांत हिंदी का समर्थन करेंगे, और न हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो सकेगी।
हिंदी भाषा में तकनीकी शब्दों का अभाव, विधि, वैज्ञानिक, औद्योगिक तथा प्रशासनिक अभिव्यक्ति की अक्षमता, शब्द कोषों, पारिभाषिक कोषों, अंतर्राष्ट्रीय-कोषों का अभाव तथा असमृद्ध साहित्य का रोना रोकर हिंदी के रथ का मार्गावरोध किया जा रहा है। फलतः हिंदी का रथ मार्ग के कंटकों को हटाने में ही लगा रहेगा और अंग्रेजी तथा प्रांतीय भाषाएँ विकसित होकर अपने रथों को तीव्रगति से दौड़ा रही होंगी। विश्व-हिंदी सम्मेलन में परम विदुषी महादेवी वर्मा ने हिंदी की इस तथाकथित अक्षमता तथा अव्यावहारिकता के लिए पूर्णतः सत्ता को उत्तरदायी ठहराते हुए सटीक टिप्पणी की थी-‘घोड़े को गाड़ी के पीछे बाँध दिया है।’
सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजूकेशन की परीक्षा-पद्धति हिंदी के अध्ययन-अध्यापन को हतोत्साहित करने का केंद्रीयय षड्यन्त्र है। 11वीं कक्षा में ‘एक भाषा’ की उत्तीर्णता की अनिवार्यता ने अंग्रेजी लेने को प्रोत्साहित किया और डॉक्टर, इंजीनियर, विधि-विशेषज्ञ, गणितज्ञ अथवा वैज्ञानिक बनने के इच्छुक छात्रों को हिंदी त्यागने के लिए विवश कर दिया है। न होगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। ज्ञानार्थी न हिंदी में उच्च शिक्षा लेगा, न हिंदी-प्रेमी बनेगा।
राजकीय नीति (कुनीति) के कारण हिंदी की पाठ्य पुस्तकों में उर्दू के कवि, कथाकार घुस गए हैं। गणतंत्र दिवस का ‘हिंदी-कवि सम्मेलन’ सर्वभाषा कवि सम्मेलन बन गया है। विश्व पुस्तक मेले में ‘हिंदी-मंडप’ का स्थान ‘ भारतीय भाषा-मंडप’ ने ले लिया है। विश्व हिंदी सम्मेलनों में प्रांतीय विद्वानों का सम्मान अनिवार्य बना दिया गया है। दिल्ली का हिंदी अकादमी भी विद्यालयों में हिंदी शिक्षकों को सम्मानित करने के साथ उनके कोटे से अन्य विषयों के शिक्षकों को भी सम्मानित करने में गर्व अनुभव करती है। हिंदी को अपने पैरों पर खड़ा रहने ही नहीं दिया जाता। प्रांतीय बैसाखी का सहारा अनिवार्य कर दिया गया है। राजकीय सोपान पर चढ़ने के लिए प्रांतीय भाषाओं के सहयोग की शर्त हिंदी को अपमानित करने तथा पग-पग पर नीचा दिखाने एवं अक्षमता, असमर्थता का बोध कराने की चाल है।
हिंदी-रथ के रथी भी हिंदी भारती की प्रतिमा में दोषारोपण करने लगे हैं। वे सरलता के नाम पर उर्दू-फारसी के शब्दों की बहुलता से माँ के आँचल को कलंकित कर रहे हैं। हिंदी की जननी संस्कृत से उसका संबंध-विच्छेद कर उसके पीयूष और मूल स्रोत को ‘ही अवरुद्ध करने पर तुले हुए हैं। इतना ही नहीं, हिंदी के नाम पर आजीविका चलाने वाले हिंदी के ये ठेकेदार, साहित्यकार, कर्णधार अपने बच्चों को हिंदी की छाया से भी दूर हटाते जा रहे हैं, उन्हें कान्वेंट स्कूलों में शिक्षा दिला रहे हैं। हिंदी की अगली पीढ़ी को अंग्रेजी-भक्त बना रहे हैं।
पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ने हिंदी भाषी परिवारों को मोहित कर लिया है। अंग्रेजी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। प्रातः, सायं तथा रात्रि का अभिवादन ‘गुड मार्निंग, गुड ईवनिंग, गुड नाइट’ से होता है। माता-पिता ‘मम्मी-डैडी’ बन गए है। बहन ‘सिस्टर’ और पत्नी ‘वाइफ’ बन गई है। अंकल-आटी के दर्शन जहाँ चाहे, हो जाते हैं। बातचीत में बिना अंग्रेजी शब्दों के व्यक्तित्व नहीं निखरता। ‘कौन-सी पिक्चर देखनी है?” लंच का टाइम हो गया।’ ‘संडे का शो देखना है,’ कहे बिना बात समझ नहीं आती। कहाँ है हिंदी-संस्कार।
हिंदी के रथ को गति प्रदान करने के लिए चाणक्य चाहिए, जो हिंदी के विरुद्ध किए जाने वाले शासकीय षड्यन्त्रों का पर्दाफाश करके, हिंदी की पताका फहराने वालों की हिंदी-विरोधी नीति को उजागर करके जन-मानस में हिंदी-संस्कार का अमृत पहुँचा सके। लोभ, लालच, ममता, स्वार्थ के कंटकों को हटाकर मार्ग में पुष्प बिखेर दे, ताकि माँ भारती का रथ सरलता से चलकर भारत-भारती का भाल विश्व-प्रांगण में उन्नत कर सके।