संकेत बिंदु – (1) हिंदी दिवस का महत्त्व (2) संविधान के अनुसार हिंदी की स्थिति (3) राजनीति, प्रांतीयता और अंग्रेजी पत्रों का हिंदी पर प्रभाव (4) हिंदी का विरोध (5) उपसंहार।
प्रतिवर्ष चौदह सितंबर को मनाया जाने वाला हिंदी-दिवस हिंदी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरव और गर्वपूर्ण दिन है। हिंदी के प्रति निष्ठा व्यक्त करने का दिन है। विश्व भर में हिंदी चेतना जागृत करने का दिन है। हिंदी की वर्तमान स्थिति का सिंहावलोकन कर उसकी प्रगति पर विचार करने का दिवस है।
हिंदी दिवस एक पर्व है। हिंदी के हक में प्रदर्शिनी, मेले, गोष्ठी, सम्मेलन तथा समारोह आयोजन का दिन है। हिंदी सेवियों को पुरस्कृत तथा सम्मानित करने का दिन है। सरकारी, अर्ध सरकारी कार्यालयों तथा बड़े उद्योगों में हिंदी – सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा द्वारा हिंदी मोह प्रकट करने का दिवस है।
संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया। संविधान के अनुच्छेद 343 में लिखा गया-
“संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिए भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा”, किंतु अधिनियम के खंड (2) में लिखा गया ‘इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा, जिसके लिए इसके लागू होने में तुरंत पूर्व होता था।’ अनुच्छेद की धारा (3) में व्यवस्था की गई – ‘संसद उक्त पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा – (क) अंग्रेजी भाषा का (अथवा) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जैसे कि ऐसी विधि में उल्लिखित हो।’
इसके साथ ही अनुच्छेद (1) के अधीन संसद की कार्यवाही हिंदी अथवा अंग्रेजी में संपन्न होगी। 26 जनवरी, 1965 के पश्चात् संसद की कार्यवाही केवल हिंदी (और विशेष मामलों में मातृभाषा) में ही निष्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्यथा व्यवस्था न करे।
प्रभु राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ था और पांडवों को बारह वर्ष का, किंतु हिंदी को 15 वर्ष का वनवास मिला। पांडवों के वनवास के साथ एक वर्षीय अज्ञातवास की शर्त थी, उसी प्रकार हिंदी के साथ समृद्धि की शर्त थी। महाभारत के दुर्योधन ने हट किया कि उसने पांडवों को अज्ञातवास में पहचान लिया है, अतः उन्हें पुनः वनवास दिया जाए, पर उसकी गलतफहमी को किसी ने स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी के 15 वर्षीय वनवासी काल में हिंदी की पहचान कर सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम में संशोधन करवा दिया। ‘जब तक भारत का एक भी राज्य हिंदी का विरोध करेगा हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा।’ यह लोकतंत्र के मुँह पर तानाशाही का जोरदार तमाचा था जो माँ भारती के चेहरे को आज भी कलंकित पीड़ित कर रहा है। थी किसी कांग्रेसी राजनीतिज्ञ में हिम्मत जो पंडित नेहरू का विरोध करता? माँ भारती के एक सच्चे सपूत कांग्रेमी सेठ गोविंददास ने ही संसद में इस संशोधन विधेयक के विरोध में मत दिया।
हिंदी को उसका वर्चस्व प्राप्त न हो इसके लिए संविधानेतर कार्य भी जरूरी थे। पंडित नेहरू तथा उनके कांग्रेसी प्रबल समर्थकों ने ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति अपनाते हुए ‘हिंदी बनाम प्रांतीय भाषाओं’ का विवाद खड़ा कर दिया। भारत राष्ट्र को दो भागों में विभक्त कर दिया – उत्तर (हिंदी पक्षधर) और दक्षिण (हिंदी विरोधी)। हिंदी उत्तर- दक्षिण के विवाद में फँसकर ‘सैंडविच’ हो गई और अंग्रेजी इस उत्तर-दक्षिण के झगड़ों में देश की एकता बनाए रखने के लिए एकमात्र विकल्प बन गई। प्रांतीयता के मोह ने राष्ट्रीयता को डस लिया। आज उसी विष का परिणाम है कि केंद्रीय राजनीति पर प्रांतीयता हावी है। हिंदी आज ईस्वी सन् 2000 में प्रवेश करते हुए भी वनवासिनी ही है।
दूसरी ओर हिंदी के प्रति अंग्रेजी – पत्रों और कूटनीतिज्ञों ने खुलकर व्यंग्य वाण मारे। उसे हिंदी हिंटर लैंड (हिंदी का अंदरूनी क्षेत्र), हिंदी बैक वाटर्स (ठहरे हुए पानी जैसा हिंदी क्षेत्र), काऊबेल्ट (गाय-बैलों का क्षेत्र) ‘इंडियाज गटर’ (देश की नाली) और टैकनीकल बैकवर्ड (तकनीकी दृष्टि से पिछड़ा हुआ) कहा जाता है। हिंदी भाषियों को ‘धर्मान्ध जीलरस’ तथा ‘फेनेटिक’ की संज्ञा दी गई है। सर्वश्री खुशवंतसिंह, रक्षत पुरी, अनीता मलिक और सुनील एडम्स जैसे विद्वान् और अंग्रेजी पत्रकार यह भूल जाते हैं कि हिंदी वैज्ञानिक और व्यवस्थित भाषा है। यह पूरी तरह से ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) है और इंटरनेशनल फोनेटिक एल्फाबेट (अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला) के अत्यंत समीप मानी जाती है। विश्व के सैंतालीस देशों के 180 विश्वविद्यालयों में इसके उच्चस्तरीय अध्ययन की व्यवस्था है।
अनेक हिंदी विरोधी और हिंदी पक्षधर हिंदी की क्लिष्टता का रोना रोते हैं। पर वे भूल जाते हैं कि बोलचाल और साहित्यिक भाषा में अंतर होता है। भावाभिव्यक्ति और रसानुभूति साहित्यिक भाषा की शर्त है। यदि सरलीकरण के नाम पर हिंदी के मूल रूप को ही बिगाड़ दिया जाए तो वह संस्कृत से कटकर अलग होने पर विकृत हो जाएगी, हिंदी – हिंदी न रहेगी। बीसवीं सदी के अंत में हिंदी के सरलीकरण के नाम पर हिंदी के विद्वानों, लेखकों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा हिंदी का संस्कृत से मूलोच्छेदन हिंदी को विकृत करने का कुत्सित षड्यंत्र है।
हिंदी – विरोध दर्शाना और हिंदी-पक्ष से आँखें मूँद लेना आज के राजनेताओं की विवशता है। हिंदी क्षेत्र में गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री तथा केंद्रीय मंत्री हिंदी के कट्टर समर्थक रहे हैं। सत्ता प्राप्ति के पश्चात् वे हिंदी को भूल गए। हिंदी के प्रति उनकी वचनबद्धता पर उनकी राजनीतिक व्यूह रचना भारी पड़ गई। मुसलमानों का सहयोग पाने के लिए हिंदी – प्रेम न्योछावर कर दिया।
हिंदी के चापलूस, स्वार्थी और भ्रष्ट अधिकारियों ने हिंदी के विकास और समृद्धि के नाम पर अदूरदर्शिता और विवेकहीनता का परिचय दिया है। राजकीय कोश के अरबों- खरबों रुपए खर्च करके भी हिंदी का जो भला हुआ है, वह आटे में नमक बराबर है। जब साधन भ्रष्ट होगा तो साध्य कैसे शुद्ध होगा? हिंदी प्रचार के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए की हिंदी पुस्तकें खरीदी जाती हैं। इस खरीद का मानदंड है, ‘जिसे पिया चाहे वही सुहागन’ और ‘काली कलूटी से प्रेम हो गया तो वह पद्मिनी लगती है।’ इसलिए कहना होगा, ‘इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से।’
इस राजकीय सोच का ही परिणाम है कि साहित्यिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ ने दम तोड़ दिया। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ स्वर्ग सिधार गया। ‘आलोचना’ और ‘साहित्य- संदेश’ अंग्रेजी की भीड़ में खो गए। साहित्यिक कृतियाँ हजार-दो हजार छपते-छपते 250-500 तक रह गईं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अंग्रेजी को कल्प वृक्ष सिद्ध किया है तो दूरदर्शन ने हिंदी की ‘अर्थी’ उठाने की कसम खाई हुई है।
हिंदी दिवस पर माँ भारती की प्रतिमा पर पुष्प चढ़ाकर, धूप-दीप जलाकर, उसका गुणगान और कीर्तन करके हम अपने को कृत-कृत्य समझते हैं, पर प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हेतु उसकी व्यावहारिक आरती उतारने के लिए दैनिक जीवन शैली में अपनाने और सोच बनाने से हम कतराते हैं। जिस दिन यह चेतना भारत के जन-जन की आत्मा में जागेगी, उस दिन हिंदी की प्राण प्रतिष्ठा होगी, तभी हिंदी दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी।