संकेत बिंदु-(1) व्यायाम का अर्थ (2) व्यायाम में शरीर सुंदर और पाचन ‘शक्ति मजबूत (3) व्यायाम से अनेक लाभ (4) रक्त के संचार में वृद्धि (5) उपसंहार।
महर्षि चरक ने ‘शरीरस्य या चेष्टा, स्थैर्यार्था बलवर्धिनी देह व्यायामः’ कहकर देह को स्थिर करने एवं उसका बल बढ़ाने वाली शारीरिक चेष्टा को व्यायाम की संज्ञा दी है। डॉ. सिद्धेश्वर वर्मा ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘व्यायाम का अर्थ पहलवानी नहीं है। व्यायाम किसी भी ऐसे कार्य को कह सकते हैं, जिसके द्वारा शरीर की स्थायी शक्ति सतेज, सक्रिय तथा सुदृढ़ हो।’ डॉ. जॉनसर ‘बिना थकावट के परिश्रम’ को व्यायाम मानते हैं।’
मानव-जीवन की तीन महत्त्वाकाँक्षाएँ हैं-प्राणेषणा, वित्तेषणा तथा परलोकेषणा। इन तीनों में प्राणेषणा अर्थात् जीवित रहने की इच्छा उत्कृष्टतम है। कारण, शरीर के नष्ट होने पर धनप्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति संभव ही नहीं है। प्राणेषणा निर्भर करती है व्यायाम पर।
व्यायाम से शरीर की पुष्टि, गात्रों की कांति, माँस-पेशियों के उभार का ठीक विभाजन, जठराग्नि की तीव्रता, आलस्यहीनता, स्थिरता, हलकापन और मल आदि की शुद्धि होती है।
व्यायाम से पाचन शक्ति ठीक कार्य करती है। शरीर के विकार-मल, मूत्र, पसीना आदि नियमित रूप से बाहर आ जाते हैं। पाचक रस अधिक निकलते हैं, भूख बढ़ती है। भोजन पचने के बाद ही वह रक्त, मज्जा, माँस आदि में परिवर्तित होता है। शरीर में रक्त-संचार सुचारु रूप से होता है और हृदय में ताजगी आती हैं। शरीर सुडौल, सुगठित एवं सुदृढ़ बन जाता है। पुट्ठे मजबूत हो जाते हैं, सीना चौड़ा हो जाता है। गर्दन मोटी तथा गोल हो जाती है। सभी इंद्रियाँ ठीक तरह से कार्यरत रहती हैं। शरीर में स्फूर्ति आती है, उत्साहवर्द्धन होता है।
व्यायाम से शरीर सुंदर बनता है। चेहरे पर रौनक आती हैं। मस्तक चमकता है। मस्तिष्क की शक्ति उर्वरा होती है। मन में स्फूर्ति रहती है। कार्य करने के लिए उत्साह प्राप्त होता है। गति में तीव्रता आती है। वृद्धावस्था में भी यौवन प्रकट होता है।
बुढ़ापा अत्याचारी है, जो मृत्यु का भय दिखाकर यौवन के समस्त उल्लासों का निषेध कर देता है, किंतु व्यायाम करने वाले शरीर पर बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं कर पाता। फलतः वह मनुष्य ‘कुर्वन्नेहवेह कर्माणि जिजीविषेत्ः शतं समाः’ अर्थात् काम करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा पूरी कर पाता है।
व्यायाम से मनुष्य संयमी बनता है। संयमहीन जीवन विपनियों का आगार होता है, अतः विपत्तियाँ व्यायाम करने वाले से दूर रहती हैं। फिर, जो संयमी हैं, वही सर्वशक्तिमान् है।
धैर्य उसकी चारित्रिक विशेषता बन जाती है। धैर्य वीरता का अति उत्तम, मूल्यवान् और दुष्प्राप्य अंग है। धैर्य संतोष की कुंजी है और प्रकृति का रहस्य है।
क्षमा उसके स्वभाव का अंग बन जाती है, जो ‘वीरस्य भूषणम्’ है। क्षमा से बढ़कर किसी तत्त्व में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है।
संतोष रूपी अमृत से वह आकंठ पूर्ण रहता है, जो सुख-शांति का वाहन हैं। चाणक्य नीति के अनुसार संतोष देवराज इंद्र का नंदन-वन है।
व्यायाम से उत्पन्न आत्मविश्वास और आत्म-निर्भरता जीवन की सफलता का रहस्य है, विपत्तियों पर विजय का प्रतीक है। सर्वांगीण उन्नति की आधारशिला है। अतः ये दोनों व्यायाम की आत्मजा हैं।
व्यायाम-शील व्यक्ति साहस और शक्ति का संचय करता है। साहस और शक्ति से संकट का प्रतिरोध करने में ही उसका साफल्य निहित है। साहसी व्यक्ति आत्म-विश्वासी भी होता है।
जगत का ध्रुव सत्य है ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’। अर्थात् वीर पुरुष ही धरती का भोग करते हैं। भय पर आत्मा की शानदार विजय वीरता है, जो व्यायाम से ही संभव है। कारण, व्यायाम वीरता का लक्षण है।
मनुष्य शरीर में 519 पेशियाँ हैं। ये पेशियाँ ही मानव को कार्य करने, इधर-उधर मुड़ने, उठने-बैठने, फैलने सिकुड़ने आदि में सहायता देती हैं। माँस-पेशियाँ जितनी लचीली और स्वस्थ होंगी, उतनी ही अंग संचालन में सुगमता आएगी। व्यायाम इन माँस-पेशियों को सुदृढ़ करता है, रक्त के संचार को बढ़ाता है, शुद्ध करता है, जिससे रोगनाशक शक्ति का विकास होता है। रोग भयभीत होकर उससे दूर भागता है। अथर्ववेद ने इसका समर्थन किया है- ‘सर्व रक्षांसि व्यायामे सहामहे।’ सब रोग रूपी राक्षसों को हम व्यायाम करने से ही सहन अर्थात् नष्ट कर सकते हैं।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ भावप्रकाश में व्यायाम के लाभ पर निम्नोक्त सुंदर पद्य मिलते हैं-
लाघवं कर्म-सामर्थ्य विभक्त घन गात्रता।
दोष-क्षयोऽग्नि दीजिश्च, व्यायामादुपजायते।
व्यायाम-दृढ़- गात्रस्व, व्याधिर्नास्ति कदाचन।
विरुद्धं वा विदग्धं वा भुक्तं शीघ्रं विपच्यते॥
प्रतिदिन नियमपूर्वक व्यायाम करने से शरीर हल्का और फुर्तीला बन जाता हैं। कठिन से कठिन कार्य करने की शरीर में शक्ति और सामर्थ्य पैदा होती है। शरीर के सब अंगोपांग भरे हुए, सुंदर, सुडौल तथा अलग-अलग दीखने लगते हैं। बात, पित्त, कफ दोषों का नाश होकर जठराग्नि प्रदीप्त होती है। व्यायामशील व्यक्ति को कभी भी किसी प्रकार की बीमारी नहीं सताती। वह जो कुछ खाता है, चाहे वह विरुद्ध या विदग्ध ही क्यों न हो, उसे शीघ्र पचा लेता है।
व्यायाम के अनगिनत लाभों को देखकर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने कहा-
नेम से व्यायाम को नित कीजिए।
दीर्घ जीवन का सुधा रस पीजिए॥