संकेत बिंदु-(1) एक महत्ती आवश्यकता (2) वन से ईंधन, छायादार वृक्ष और औषधियाँ (3) प्रदूषण के नाशक (4) हिंदू धर्म ग्रंथों में वृक्ष का महत्त्व (5) उपसंहार।
पृथ्वी को शोभायमान रखने के लिए, स्वास्थ्य वृद्धि के लिए, वर्षा के निमंत्रण के लिए, विविध प्रकार के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए, प्राणिमात्र के पोषण के लिए, मरुस्थल का विस्तार रोकने के लिए, उद्योगों की वृद्धि के लिए, राष्ट्र को अकाल से बचाने के लिए फल, लकड़ी, विविध प्रकार की वनस्पति, फल-फूल तथा जड़ी-बूटी आदि की प्राप्ति के लिए वृक्षारोपण एक महती आवश्यकता है।
वृक्ष पृथ्वी की शोभा हैं, हरियाली का उद्गम हैं, स्वास्थ्य वृद्धि की बूटी हैं, वर्षा के निमंत्रणदाता हैं, प्रकृति के रक्षक हैं, प्रदूषण के नाशक है, प्राणिमात्र के पोषक हैं। वृक्ष अपने पत्तों, फूल, फल, छाया, छाल, मूल, वल्कल, काष्ठ, गंध, दूध, भस्म, गुठली और कोमल अंकुर से प्राणिमात्र को सुख पहुँचाते हैं।
वृक्ष अधिक होंगे तो वर्षा अधिक होगी। वर्षा से पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी। खेती फले-फूलेगी। पृथ्वी पर हरियाली छाएगी। मरुस्थल फैलने से रुकेंगे। सरिता-सरोवर जल से लहलहा उठेंगे। प्राणिमात्र का पोषण होगा।
लाल-लाल नारंगियाँ, पके हुए रसमय आम, सुस्वादु केले, गुलाबी सेब, अनूठे अखरोट, लाल-लाल लीचियाँ, अमरूद, बेर, अनार, मौसमी, खट्टे-मीठे नींबू, लुकाट, खरबूजा, पपीता, खीरा, तरबूज, अंगूर न जाने कितने प्रकार के फल इन वृक्षों और लताओं से प्राप्त होते हैं। फल स्वास्थ्य के लिए प्राकृतिक औषधि है। इस कारण भी वृक्षारोपण अत्यंत आवश्यक है।
बाँस की लकड़ी, पापलर और घास से कागज बनता है। खैर के पेड़ की लकड़ी से कत्था और तेन्दू वृक्ष के पत्तों से बीड़ी बनती है। लाख और गोंद भी वृक्षों से मिलती है, जो खिलौने बनाने और रंग में मिलाने के काम आती है। वृक्षों की छाल और पत्तियों से अनेक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं, जिनसे दवाइयाँ बनती हैं। नीलगिरि के वृक्षों से रबड़ मिलता है। वृक्षोत्पादन के बिना इनकी प्राप्ति संभव नहीं। उत्पादन वृद्धि के लिए वृक्ष उगाने की होड़ चाहिए।
ईंधन के लिए, दरवाजे, खिड़कियाँ, अलमारी, मेज-कुर्सी, सोफा आदि समान बनाने के लिए लकड़ी चाहिए। गुल्ली-डंडा, बैट, हॉकी आदि खेल-साधनों के लिए लकड़ी चाहिए। नौका निर्माण के लिए लकड़ी चाहिए। लकड़ी की प्राप्ति का माध्यम है वृक्ष। वृक्ष होंगे, तो लकड़ी होगी। इसलिए भी वृक्षारोपण आवश्यक है।
सड़क के किनारे छायादार वृक्ष तो यात्रियों के प्राण हैं। ग्रीष्म में इनकी छाया में चलने में कष्ट नहीं होता। इनके कारण लू, धूप, वर्षा से रक्षा तो होती ही है, थकान भी कम चढ़ती है। पक्षियों के तो प्राणधार ही पेड़ हैं। पक्षी पेड़ों पर नीड़-निर्माण करते हैं। उनके फलों-पत्तियों से उदर-पूर्ति करते हैं। उन पर बैठ कर कलरव करते हुए मनोविनोद करते हैं।
वृक्ष जलवायु की विषमता को दूर करते हैं। जहाँ वृक्षाधिक्य होता है, वहाँ गर्मियों में गर्मी कम लगती है और शीत ऋतु की ठंड भी कम असर करती है।
वृक्ष प्रदूषण के नाशक हैं। पेट्रोलियम पदार्थों के प्रयोग से, ईंधन के जलने से, मिल- फैक्टरियों के कचरे और चिमनी के धुएँ से जो प्राणनाशक गंदी वायु उत्पन्न होती है, उसे वृक्ष भक्षण करते हैं। बदले में प्राणप्रद वायु छोड़ते हैं। औद्योगिक उन्नति ने महानगरों में पर्यावरण संकट उत्पन्न कर दिया है, जिससे शुद्ध वायु तथा शुद्ध भोजन का अभाव उत्पन्न हो गया है। महानगरों में साँस लेना भी कठिन होता जा रहा है। इस संकट के निवारण का एकमात्र उपाय है अधिक संख्या में वृक्षारोपण।
पेड़-पौधों के प्रति प्रेम की भावना हमारे देश के लोगों में बहुत प्राचीन काल से हैं। भारतवासी इन पेड़-पौधों को लकड़ी का साधारण ठूँठ ही नहीं, बल्कि उन्हें देवता मानते आए हैं। भगवान शंकर का निवास मानकर वट की पूजा होती हैं। आमलकी एकादशी को आँवला पूजा जाता है। पीपल और तुलसी की पूजा तो घर-घर में प्रतिदिन होती है। पीपल ही ऐसा वृक्ष है जो दिन-रात प्राण वायु (शुद्ध आक्सीजन) देता है। इसी कारण पीपल को काटना पाप माना गया है।
मत्स्य पुराण के अनुसार एक वृक्ष का आरोपण दस पुत्रों के जन्म के बराबर है। वराह पुराण के अनुसार, ‘पंचाम्रवापी नरकं न याति’ आम के पाँच पौधे लगाने वाला कभी नरक जाता ही नहीं। विष्णु-धर्म-सूत्र के अनुसार, ‘एक व्यक्ति द्वारा पालित पोषित वृक्ष एक पुत्र के समान या उससे भी कहीं अधिक महत्त्व रखता है। देवगण इसके पुष्पों से, यात्री इसकी छाया में बैठकर, मनुष्य इसके फल-फूल खाकर इसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं।’ पद्म पुराण का कहना है, ‘जो मनुष्य सड़क के किनारे वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक सुख भोगता है, जितने वर्ष वह वृक्ष फलता-फूलता है।’ पुराणों के ये कथन पुण्य प्राप्ति के लिए वृक्षों से प्रेम करना सिखाते हैं।
हिंदुओं ने वृक्ष लगाने का एक बड़ा सुंदर उपाय खोज निकाला था। जिस स्थान पर शव को जलाया जाता था, वहाँ पर चौथे दिन फूल चुगने के बाद चिता के चारों कोनों पर चार वृक्ष लगाने का विधान था, जो अब केवल चार टहनियाँ गाड़कर पूरा कर दिया जाता है। 360 दिन तक इन वृक्षों को दूध और पानी से सींचने का भी विधान था, जो आज पीपल की जड़ में इकट्ठे 108 लोटे पानी लुढ़का कर पूरा कर दिया जाता है।
केंद्रीय सरकार ने पर्यावरण के परिरक्षण के लिए (प्रकृति की रक्षार्थ) राष्ट्रीय समिति गठित की है। नवमी योजना में प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने पर विशेष बल दिया गया है। प्रकृति की रक्षा और प्राकृतिक संतुलन के लिए प्रत्येक विकास खंड में प्रशिक्षित कर्मचारी नियुक्त किए जाएँगे, जो ग्रामीणों को न केवल वृक्षारोपण का महत्त्व समझाएँगे, बल्कि उन्हें उपयोगी वृक्षों की पौध भी उपलब्ध कराएँगे।
वर्तमान भारत में जबकि पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है, ओलावृष्टि और असमय वर्षा से फसल नष्ट हो रही है; अकाल की वेदी पर प्राणी अपने जीवन की आहुति दे रहे हैं, जनसंख्या की वृद्धि के कारण ईंधन, इमारती लकड़ी और खेल-कूद के सामान को माँग सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही है; बीमारियों पर विज्ञान की विजय के लिए जड़ी- बूटी, वृक्ष- त्वचा और पत्र-पुष्प फल की अत्यधिक आवश्यकता है; ज्ञान -प्रसार की दृष्टि से कागज की अत्यधिक माँग है, तब तेजी से तथा अत्यधिक परिणाम में वृक्षारोपण के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं।