संकेत बिंदु-(1) प्राचीन और भव्य संस्कृति (2) अध्यात्म पर आधारित (3) पुनर्जन्म पर विश्वास (4) हिंदू संस्कृति के अनेक रूप (5) उपसंहार।
विश्व की नाना संस्कृतियों का इतिहास साक्षी है कि संसार में अनेक संस्कृतियाँ बरसाती पौधों के समान उत्पन्न हुईं और सूख गईं। नील नदी की घाटी में गगन चुंबी पिरामिडों का निर्माण करने वाली तथा अपने पितरों को ‘ममी’ के रूप में पूजा करने वाली मिश्र की संस्कृति अब कहाँ है? असीरिया और बेबीलोनिया की संस्कृतियाँ क्या अब भूमि पर हैं? देवी-देवताओं और प्राकृतिक शक्तियों को पूजने वाली संस्कृतियाँ क्या वर्तमान रोम के लोगों के लिए कोई महत्त्व रखती हैं, किंतु भारतीय संस्कृति का अमर वटवृक्ष प्राचीनतम वैदिक काल से लेकर आज तक फल-फूल रहा है तथा अपने लोक-मंगलकारी रूप में विद्यमान है।
वस्तुतः भारत की संस्कृति (हिंदू संस्कृति) अध्यात्म पर आधृत है। इसलिए भारत भू धर्म भूमि कहलाती है। ‘नानात्वमय समस्त प्रपंच के प्रत्यक्ष बहुत्ववाद से अलक्ष्य, अगोचर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष से परे, निर्गुण-निराकार एक तत्त्ववाद, अद्वैत सिद्धांत की प्रतिष्ठा ही हिंदू-दर्शन की मौलिक विशेषता है। साकार-निराकार का पूर्ण समन्वय हिंदू-दर्शनों में ही पाया जाता है। यही कारण है कि हिंदू-संस्कृति में व्यावहारिक उत्तमता और पारमार्थिक श्रेष्ठता, दोनों पूर्णता की सीमा पर प्रतिष्ठित हैं। प्रतिपल सांसारिक व्यवहार करते हुए भी हिंदू द्वैत-प्रपंच से उठकर अद्वैत स्वरूप निष्ठा-जीवन मुक्ति की अवस्था प्राप्त करने में समर्थ होता है। मनुष्य को मानव विकास के उच्चतम शिखर पर पहुँचाकर जीवन-मुक्ति की अवस्था में प्रतिष्ठित करा देना ही हिंदू संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।’
हिंदू संस्कृति में जीव के आवागमन चक्र और जन्मान्तरवाद पर विश्वास है। इसी विश्वास के आधार पर परलोकवासी जीव का पथ सरल रहे और उसे कष्ट न हो, इसके लिए नित्य नैमित्तिक श्राद्ध-तर्पणादि कर्मकांड की सुव्यवस्था के लक्ष्य से ‘दायभाग’ की विशेष व्यवस्था है।
जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। गीता में कहा गया है-‘जातस्यहिध्रुवा मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च।’ इस प्रकार जन्म और मृत्यु संसार के दो निर्विवाद सत्य हैं। पुनर्जन्म की समस्या इन्हीं दो सत्यों का स्पर्श करती है। पुनर्जन्म का आधार है आत्मा की अमरता। पाश्चात्य दर्शन का मानना है कि मरने के बाद आत्मा अनंत में मिलकर आनन्त्य प्राप्त करता है जबकि हिंदू दर्शन आत्मा को अविनाशी और अमर मानता है। आत्मा का न कभी जन्म होता है, न मरण, ‘न जायते म्रियते वा कदाचित्।’ आत्मा मृत्युकाल में स्थूल देह का त्याग कर सूक्ष्म देह से अपने-अपने कर्मों के अनुसार अपने-अपने उपयुक्त लोक में दुख-सुख का भोग करने के लिए चला जाता है। दीर्घकाल के बाद आत्मा दूसरी देह में प्रवेश करती है; ठीक ऐसे ही जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण कर लेता है।
हिंदू संस्कृति सर्व कल्याणकारिणी है, मंगलमयी है। यहाँ एक जाति, धर्म या राष्ट्र की मंगल कामना नहीं की, अपितु ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ मानकर चराचर के जीव-जगत की मंगलमय कामना की गई है-
सर्वेऽपि सुखिनः संतु सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत्॥
[सभी सुखी हों, सब नीरोग हो, सब मंगलों का दर्शन करें। कोई भी दुखी न हो।]
हिंदू संस्कृति में नास्तिक दर्शन-चार्वाक, बौद्ध, जैन तथा छह आस्तिक दर्शनों-वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा के अतिरिक्त अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, अचिन्त्यभेदाभेदवाद, शैवदर्शन, पाशुपत्य, प्रत्यभिज्ञा, शिवाद्वैत, लकुलीय, पाशुपत तथा शक्ति दर्शन आदि लगभग 24 दर्शन हैं। सनातन धर्म, आर्यसमाज, ब्राह्मसमाज, नाथपंथी, कबीरपंथी, दादूपंथी, नानक पंथी (सिक्ख) वैष्णव, शैव, (पाशुपत, लिंगायत), शाक्त, गाणपत्य आदि की उपासना पद्धति में भेद हैं। यह भेद सांस्कृतिक इंद्रधनुषी रंग हैं। जो संस्कृति की अपनी विविध छटाओं से सुशोभित करते हैं। हिंदू जीवन प्रणाली से कोई कटा नहीं, पृथक् नहीं। जैसे समुद्र की विविध लहरें समुद्र का आंचल नहीं छोड़तीं, उसी प्रकार ये दर्शन हिंदू-संस्कृति से अभिन्न हैं।
‘दूसरी ओर उपासना-शैली की पूर्णता भी हिंदू संस्कृति की विशेषता है। अधिकारानुसार मंत्रयोग, हठयोग, लययोग, राजयोग एवं भक्ति की प्रक्रियाएँ मनुष्य को शक्तिपुंज से सिद्धि संपन्न बनाकर उसे अनन्तानंद प्रदान करती हैं। निरंतर जगत्कार्य में लगे लोगों को हिंदू संस्कृति निष्काम कर्म का उपदेश उनके संपूर्ण कार्यक्षेत्र को ही उपासना का साधन बना देती है। और उनके भगवदर्पण बुद्धिपूर्वक कार्य कराते हुए उनके लिए लौकिक तथा पारलौकिक सर्वोन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है। इनके अतिरिक्त यज्ञों, महायज्ञों एवं विविध अनुष्ठानों द्वारा उपासना करके स्थूल जगत के नियामक सूक्ष्म दैवी जगत के पदाधिकारी विभिन्न देवी-देवताओं को प्रसन्न करके हिंदू अपने वैयक्तिक, सामाजिक एवं विश्व कल्याण के लिए दैवी बल प्राप्त करने में समर्थ होता है।’
श्री एन.ए. निगम ने भारतीय संस्कृति के अमरत्व के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, ‘भारतीय संस्कृति बहुत पुरानी है, मगर जीवंत है। लगातार जारी रहना और अपने को नए ढंग से परिभाषित करना, इसके दो मुख्य गुण हैं। ये दोनों गुण भारतीय संस्कृति को आज के बदले हुए विश्व में प्रासंगिक बनाते हैं। द्वंद्ववाद और मिथक, दो ऐसे मूलभूत रूप हैं, जिनके द्वारा भारतीय संस्कृति अपने आपको व्यक्त करती है। अनुभवातीत परिकल्पना के द्वारा भारतीय संस्कृति प्रकृति की व्याख्या और प्रकृति के मिथकों की रचना करती है। अपनी द्वंद्ववाद की क्रिया द्वारा भारतीय संस्कृति जीवन और मृत्यु के रहस्य के भीतर तक पहुँचती है, ताकि उन महान् विचारों का आविष्कार किया जा सके, जो हमारी आस्था और कर्म को प्रभावित करती हैं। ये विचार इसके चिंतन, जीवन और इतिहास को समन्वित करते हैं। भारतीय संस्कृति सामान्य जनता की सामान्य चेतना में असाधारण व्यावहारिक प्रज्ञा की विरासत के रूप में जीवित रहती है।’
हिंदू संस्कृति सृष्टि के आदिकाल से आज तक अपने मूल रूप में वर्तमान है। यथा–समय उसमें सुधार अवश्य हुए हैं। इस्लाम और ईसाई संस्कृति के अत्याचार, अनाचार तथा विनाशक प्रहार के बावजूद भी यह गर्व और गौरव से अपना मस्तक ऊँचा किए है। निकट भविष्य में संस्कृति की उदात्त विशेषताएँ ही इसे पुन: ‘जगद्गुरु’ पद पर प्रतिष्ठित करेंगी।
अपनी संस्कृति का अभिमान, करो सदा हिंदू संतान।
सब आदर्शों की वह खान, नर-रत्नत्व करेगी दान॥
-मैथिलीशरण गुप्त