संकेत बिंदु – मनुष्य प्राकृतिक शक्ति का संवाहक (2) कवियों की दृष्टि में प्रकृति (3) मनुष्य के लिए आनंद का साधन (4) मानव द्वारा प्रदूषण (5) उपसंहार।
प्रकृति इस भौतिक जगत की उत्पत्ति का मूल कारण है तो मनुष्य इस भौतिक जगत का एक महत्त्वपूर्ण प्राणी। त्रिगुणात्मक शक्ति प्रकृति है तो मनुष्य उस शक्ति का संवाहक है। शुद्धाद्वैत के मतानुसार प्रकृति यदि भगवान का एक रूप है तो मनुष्य में भगवान का वास है। महाभारत के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार (अपरा) प्रकृति के भेद हैं तो इन आठों भेदों का साक्षात् रूप चेतन प्राणी मनुष्य है। अतः प्रकृति के बिना मनुष्य सौंदर्यहीन है और मनुष्य के बिना प्रकृति का कोई महत्त्व नहीं। ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
प्रकृति की छटा का वर्णन करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं, ‘अगाध जल के तल में, कैसी अद्भुत रचना, कैसा आश्चर्य। हिमपूरित तराइयों में तथा हिमावृत्त चोटियों पर अद्भुत रंग के नील, पीत, ललित कुसुम सहित लताओं का, शीतल वायु के झोंके से दोलायमान होना, पुनः प्रातः सूर्य की किरणों का छायाभास पड़ने से हिमावृत्त चोटियों का इंद्रधनुष- सा रंग पाना, कैसा सुंदर जान पड़ता है? शिखरों पर वेग से बहती नदियाँ, उनके प्रवाह से शिला – खण्डों का बनाव और उसकी अद्भुत स्थिति देखकर, मनुष्य की योग्यता और बुद्धि हतप्रभ रह गई।’
मनुष्य प्रकृति के सौंदर्य और प्रेम में खो गया। सैलानी बन उसने प्रकृति का आनंद लूटा। वैज्ञानिक बनकर उसके गर्भ से अमृत प्राप्त किया। व्यापारी बन उसके खनिज पदार्थों से वनस्पतियों और काष्ठों को बेचकर समृद्ध हुआ। चिकित्सक बनकर उसने जीवन-रक्षक औषधियाँ ढूँढी।
महाकवि प्रसाद ने प्रकृति में अतृप्ति-अवसाद, करुणा, वेदना, रोमांच और रहस्य भावना के दर्शन किए और वह कवि के लिए संवेदनशील बनकर आई।
‘रात’ को प्रिय के पास जाती हुई नायिका समझकर प्रसाद कहते हैं-
“पगली ! हाँ संभाल ले कैसे छूटा पड़ा तेरा अंचल।
देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल।”
पंत तो प्रकृति में इतना खो गए कि नारी का सौंदर्य भी उन्हें आकृष्ट न कर सका- “छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले ! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन?”
महादेवी तो प्रकृति में सर्वत्र अलौकिक प्रिय के दर्शन करती हैं-
“मुस्काता संकेत भरा नभ, आज क्या प्रिय आने वाले हैं?”
प्रकृति के समयानुकूल परिवर्तन में मानव तन मन को सुख शांति तथा ऊर्जा प्रदान की। षड्-ऋतु (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर) के अद्भुत परिवर्तन-चक्र को देखकर ‘प्रसाद’ के रूप में मनुष्य का विस्मित मन बोल उठा, ‘हे प्रकृति ! यह सब तुम्हारी आश्चर्यजनक लीला। इससे तुम्हारे अनंत वर्ण रंजित मनोहर रूप को देखकर कौन आश्चर्यचकित नहीं हो जाता?’
प्रकृति मनुष्य के लिए आनंद का साधन बनी, क्रीड़ा का स्थल बनी, स्वास्थ्यवर्धन और ज्ञानवर्धन का कारण बनी। ग्रीष्म में मनुष्य प्रकृति की गोद में (पर्वतों में) स्वास्थ्य लाभ और चित्त को रंजित करने पहुँचा। चाँदनी रात में नदी या सागर के जल में नौका विहार का आनंद लिया तो बर्फ पर स्केटिंग की क्रीड़ा का आनंद लिया। पहाड़ों पर चढ़ना, समुद्र की तह तक पहुँचना, नभ में अपने उपग्रह की ध्वजा फहराना, अन्य ग्रहों से परिचय बढ़ाना, मानव के प्रकृति पर विजय के शौक बने।
मानव ने प्रकृति से मित्रता निभाई। उसके सौंदर्य को द्विगुणित करने का प्रयास किया। उसकी मोहकता को बनाए रखने की चेष्टा की। उसकी शोभा वृद्धि की कोशिश की। प्रकृति ने भी मानव को अपना मूर्तरूप प्रदान किया। वनस्पति, जीवजंतु, जल स्रोत और वायुमंडल का संतुलित चक्र प्रदान कर स्वस्थ और सुवासित पर्यावरण दिया। सस्यश्यामला भूमि दी, जीवन रक्षक औषधियों के लिए जड़ी-बूटियाँ दीं। ईंधन दिया, कागज दिया, बिजली दी, खनिजपदार्थ दिए। मानव के सुख और ऐश्वर्य की निधि मानव चरणों में मुक्तहस्त से लुटाई।
लालची मानव ने प्रकृति के कोश को लूटने के लिए प्रकृति से शत्रुता करनी शुरू कर दी। उसके सस्यश्यामल खेत नष्ट किए, वन-उपवन काटे, हरियाली उजाड़ी, पहाड़ों को तोड़ा, नदियों को मरोड़ा। हरे-भरे खेतों का स्थान लिया भव्य भवनों ने। अमूल्य – बहुमूल्य पदार्थों के कोश वनों का स्थान लिया औद्योगिक संस्थानों ने। सुगंधित वायुमंडल को दूषित किया, विषैली गैसों ने, जल को अपवित्र किया कारखानों से निकले रसायनों ने।
एक जगह आकर प्रकृति और मनुष्य का अर्धनारीश्वर रूप प्रकट होता है। मनुष्य का वह चारित्रिक मूलभूत गुण, तत्त्व या विशेषता, जो बहुत कुछ जन्मजात और प्रायः अविकारी होती है, प्रकृति कहलाती है। इसी को ‘स्वभाव’ भी कहते हैं। जैसे परशुराम प्रकृति से ही क्रोधी थे। युधिष्ठिर प्रकृति से ही धर्म भीरु थे। यहाँ आकर मानव प्रकृति में मनुष्य की उन सभी आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों, वासनाओं आदि का अंतर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप उसका चरित्र अथवा जीवन बनता बिगड़ता है। इस प्रकार प्रकृति को मनुष्य से तथा मनुष्य को प्रकृति से अलग नहीं किया जा सकता।
आध्यात्मिक क्षेत्र में, विशेषतः वेदांत में प्रकृति को परमात्मा को मूर्तिमती इच्छा के रूप में माना गया है और इसे ‘माया’ का रूप कहा गया है। साधारण रूप में माया को सांसारिक भ्रम और अज्ञानता का ही नामान्तर माना माता है। मनुष्य सांसारिक प्राणी है। वह संसार के मिथ्यात्व और भ्रमात्मकताओं का शिकार है। इस प्रकार माया रूपी प्रकृति और श्रेष्ठ प्राणी रूपी मनुष्य का संबंध जल और मीन का-सा है।
प्रकृति अपने उत्पत्ति रूप में अनादि, अनंत और नित्य है तो मनुष्य प्रकृति के चैतन्य रूप में शाश्वत और अखंड है। प्रकृति मनुष्य के अंतर्भाव का दर्पण है तो मनुष्य प्रकृति का आजीवन बंदी है। प्रकृति और मनुष्य का संबंध रहस्यमय और कल्पनातीत है।