संकेत बिंदु – (1) अध्यापक द्वारा परामर्श (2) महर्षि अरविंद के विचार और अध्यापक का महत्त्व (3) अंग्रेजी भाषा का अभ्यास (4) निबंध और पत्र – लेखन (5) अध्यापक के आचरण का छात्रों पर प्रभाव।
अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया कि अंग्रेजी विषय में मेरी कक्षा के आधे से अधिक सहपाठी अनुत्तीर्ण हैं। एक-दो दिन तक अनुत्तीर्ण छात्रों की डंडे से थोड़ी-थोड़ी सेवा भी होती रही और ‘ट्यूशन’ रखने का सत्परामर्श भी उन्हें दिया जाता रहा। अंत में तीसरे दिन अध्यापक महोदय ने घोषणा की कि तुम्हारे ही हित के लिए मैंने 10-10 विद्यार्थियों के तीन समूह बनाकर पढ़ाने का निश्चय किया है। प्रत्येक छात्र से केवल सौ रुपये मासिक लूँगा। अलग ‘ट्यूशन’ रखने में तुम्हें एक हजार रुपये से कम में अध्यापक नहीं मिल सकता। इस प्रकार तुम्हारा खर्चा भी कम होगा और विषय की कमजोरी भी दूर हो जाएगी।
मुझे लगा हमारे अध्यापक कितने महान् हैं। विद्यार्थियों के कितने शुभचिंतक हैं। माता-पिता की खून-पसीने की आय का किस प्रकार ध्यान रखते हैं। विद्यार्थी का पूरा वर्ष न मारा जाए, इसकी इन्हें कितनी चिंता है।
रात्रि को सोने से पूर्व मैं किसी धार्मिक पुस्तक का अध्ययन अवश्य करता हूँ। इससे नींद में बुरे विचार और दुःस्वप्न नहीं आते। आज ‘महर्षि अरविंद के विचार’ नामक पुस्तक पढ़ रहा था। उन्होंने अध्यापक के संबंध में लिखा है- ‘अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच- सींचकर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं।’
महर्षि अरविंद के इन विचारों को पढ़कर उपर्युक्त अंग्रेजी अध्यापक की महत्ता काफूर हो गई। अपने स्वार्थवश छात्रों को अनुत्तीर्ण कर हतोत्साहित करना और फिर ट्यूशन के लिए प्रेरित कर श्रम का मूल्य वसूल करना अध्यापकीय जीवन की निकृष्ट भूमिका है। इसी क्रम में अनेक विचार मन में उठते रहे और इसी अंतर्द्वन्द्व में एक विचार भी हृदय में जागृत हुआ कि मैं अध्यापक बनूँगा। कितनी अच्छी कल्पना है। यदि मैं अध्यापक होता तो उक्त अंग्रेजी अध्यापक के समान अर्थ-लोभ के कारण छात्रों से वैसा व्यवहार न करता। अर्द्ध वार्षिक परीक्षा में छात्रों को असफल कर, ट्यूशन रखने का अर्थ अपने कर्तव्य की अवहेलना है। यदि मैं अध्यापक होता तो अपने मैं कर्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहता।
अंग्रेजी विदेशी भाषा हैं। इसको पढ़ाने के लिए मैं अत्यंत सावधानी और परिश्रम से काम लेता। पाठ पढ़ाते हुए मैं पहले पाठ के एक-एक अनुच्छेद का कक्षा में दो-तीन बार उच्चारण करवाता। फिर उस अनुच्छेद का आशय छात्रों को समझाता। एक-एक वाक्य का शब्दार्थ करते हुए अनुच्छेद की पूर्णता मेरी पद्धति नहीं होती, बल्कि मैं वाक्य के एक- एक शब्द को लेता एक-एक शब्द का अर्थ विद्यार्थियों से पूछता। जो उन्हें नहीं आता, वह बताता और आदेश देता कि वे अपनी कापी पर साथ-साथ लिखते चलें। एक-एक शब्द के पश्चात् वाक्य का सामूहिक या भाव पूर्ण अर्थ बताता। जो छात्र कॉपी में लिखना चाहते, उन्हें लिखने का अवसर देता। एक अनुच्छेद में यदि एक शब्द बार-बार भी आता तो मैं यथास्थान बार-बार उसका अर्थ दुहराता। अनुच्छेद समाप्ति पर उसमें आए वचन, लिंग तथा क्रिया संबंधी रूपों को स्पष्ट करता हुआ। ‘डायरेक्ट इनडायरेक्ट’ भी समझता।
तदनंतर जो पाठ, जितना भी पढ़ाया है, उसके अर्थ तथा वाक्यों का अनुवाद लिखकर लाने का आदेश देता। बच्चों को निर्देश होता कि वे पाठ के उन्हीं शब्दों के अर्थ लिखकर लाएँ जो उन्हें क्लिष्ट लगते हैं, शेष के नहीं। अनुवाद में सरलार्थ ही नहीं, भावानुवाद भी समझाता।
सप्ताह का एक दिन निबंध-पत्र के लिए निश्चित करता। जिस दिन निबंध या पत्र का क्रम होता, उससे पूर्व विद्यार्थियों को परामर्श देता कि वे घर में किसी भी निबंध की पुस्तक से निबंध-विशेष को पढ़कर आएँ। निबंध के पीरियड में मैं कक्षा में निश्चित विषय पर अपने विचार प्रकट करता। इस विचार-विमर्श के मध्य में निबंध से संबंधित कुछ सुंदर शब्दों को अर्थ सहित कापी पर लिखवाता। कुछ श्रेष्ठ वाक्यों को भी कॉपी पर अंकित करवा देता। अगले सप्ताह छात्रों से उसी विषय पर कक्षा में ही निबंध लिखवाता। यही शैली पत्र लिखवाने के लिए भी अपनाता। इससे बच्चों को स्वयं निबंध तथा पत्र लिखने के लिए प्रोत्साहन मिलता और वे पुस्तक से नकल करने की आदत ग्रहण न करते।
एक कार्य जो मैं अत्यंत निष्ठा से करता, वह होता कॉपी देखने का। मैं एक-एक अक्षर पढ़कर प्रत्येक छात्र की कॉपी शुद्ध करता। इसमें समय तो बहुत लगता है, किंतु छात्र की बुनियाद सुदृढ़ करने का श्रेष्ठतम उपाय यही है। कॉपियाँ लौटाते समय प्रत्येक विद्यार्थी का ध्यान उसकी व्यक्तिगत गलतियों और भूलों की ओर दिलवाता। साथ ही कक्षा में अपने ही सामने एक-एक गलती को पाँच-पाँच बार लिखवाता।
अध्यापक के आचरण का छात्रों पर दूरगामी, किंतु क्षिप्र गति से प्रभाव पड़ता है। यदि मैं अध्यापक होता तो मेरा यह प्रयास होता कि मेरी व्यक्तिगत दुर्बलताओं का प्रदर्शन छात्रों के सामने बिल्कुल न हो पाए। जैसे मुझे सिगरेट पीने का चमका है, किंतु मैं अपनी इच्छा पर इतना नियंत्रण रखूँ कि विद्या के मंदिर में, सरस्वती की आराधना करते समय वह दुर्व्यसन मेरा स्पर्श तक न कर पाए।
मेरा यह निश्चित सिद्धांत होता कि काम न करने वाले छात्र की काम न करके लाने की परिस्थितियों को समझैं और उससे वही काम स्कूल के पश्चात् ‘जीरो पीरियड’ में करवाऊँ। ‘भय बिन होय न प्रीति’ लोकोक्ति है, किंतु मैं यथासंभव अपने स्नेह और व्यक्तित्व के प्रभाव से छात्रों से काम करवाता। हाँ, कभी कभी केवल अति उद्दण्ड छात्रों को दंड भी देता।