विधाता ने विश्व में दो प्रकार के जीव उत्पन्न किए हैं। एक पशु-पक्षी और दूसरे मनुष्य हैं। दोनों में विवेक बुद्धि की मात्रा का अंतर है। पशु-पक्षियों में तात्कालिक बुद्धि होती है। जबकि मानव अपने बीते हुए कल के अनुभव से भविष्य का निर्माण करता है। जीवित रहने के लिए दोनों को परिश्रम करना होता है। कार्य करने की क्षमता दोनों में है। कोई थोड़ा कार्य करके फल पाता है और किसी को लगातार कार्य करने की आवश्यकता होती है। दोनों प्रकार के जीवों को जीवन जीना है तो परिश्रम की अनिवार्यता को स्वीकारना होगा।
विभिन्न शास्त्र-पुराण एक स्वर से परिश्रम के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। परिश्रम के बिना न तो कोई कार्य और न ही कोई मनोरथ सिद्ध होता है। आइंस्टाइन, सी०वी० रमन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सुनील गावस्कर, अमर्त्य सेन जैसे अनेक व्यक्तियों ने परिश्रम करके ही इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की है और इतनी ऊँचाइयों को छूकर अपने लक्ष्य की सिद्धि की है। सच तो यह है कि जीवन की साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर बड़े-बड़े कार्य बिना परिश्रम के संभव नहीं हैं। काम न करने वाले व्यक्ति एक दोहा प्रस्तुत करते हैं-
“अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥”
इस दोहे में छिपे विश्वास का तो उल्लेख किया नहीं जाता, क्योंकि यह बात वही कह सकता है जिसका परमात्मा पर अटूट विश्वास हो। इसके विपरीत परिश्रम न करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की बात करने वाले दोहे को ढाल की तरह प्रयोग करते हैं।
परिश्रमी व्यक्ति साहित्य, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करता है। निर्धन परिवार में जन्म लेकर परिश्रम के बल पर उच्च शिक्षा पाता है और तब धन-वैभव की वर्षा उसके घर में होने लगती है। इस प्रकार सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की कृपा उस पर होती है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति से रोग कोसो दूर भागते हैं। उसका शरीर स्वस्थ रहता है। बड़े से बड़े शारीरिक कार्य को वह सहजता से कर पाने में सक्षम होता है।‘आराम हराम है’ उसके जीवन का नारा बनता है। शरीर के साथ उसे मानसिक शक्ति और संतोष भी मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम अठारहवें अध्याय का अंतिम श्लोक इस प्रकार है
“यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम॥”
अर्थात् जहाँ योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है। कृष्ण विवेक बुद्धि तथा अर्जुन परिश्रम, कर्म करने वाले व्यक्ति के ही प्रतीक हैं। सुख, वैभव, सफलता इन्हीं दोनों के संयोग से प्राप्त होती हैं।
परिश्रम द्वारा हम केवल अपना ही भला नहीं करते वरन् अपने समाज और अंततः अपने राष्ट्र का विकास करते हैं। देश की गरीबी और अशिक्षा का अंधकार परिश्रम के बल पर ही दूर किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि जिस जाति या राष्ट्र ने उन्नति की है, सुख-समृद्धि प्राप्त की है वहाँ के लोगों ने कठोर परिश्रम किया है। जर्मनी और जापान इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वहाँ के नागरिकों के परिश्रम ने उन्हें उन्नत देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। सारा विश्व आज इनकी ओर निहारता है और स्वयं प्रत्येक राष्ट्र इन्हें अपना आदर्श मानता है।
अस्तु, परिश्रम में ही जीवन का सुख है, यही जीवन का मूल तत्त्व है। छोटी सी चींटी का उदाहरण प्रस्तुत प्रसंग में अनुपयुक्त नहीं होगा। वह चीनी का एक-एक दाना लाकर एकत्रित करती है, बार-बार ऊपर चढ़ती है फिर नीचे गिर जाती है पर थकती नहीं, परिश्रम करके अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती है। मनुष्य में शक्ति भी है और विवेक भी। उसे यह बात अच्छी प्रकार समझ लेनी होगी कि परिश्रम ही जीवन में सफलता की कुंजी है।