जब तक देश परतंत्र था, तब तक अंग्रेज सरकार का ध्यान केवल शासन और देश के शोषण की ओर रहा। वह भारतीय समाज की वास्तविक सेवा से सहानुभूति रख ही नहीं सकती थी। यद्यपि जनता की माँग और कुछ प्रदर्शन की भावना से कुछ न कुछ काम इधर-उधर अवश्य होता रहा, तथापि राष्ट्र-निर्माण की ओर सरकार का बहुत कम ध्यान रहा। इसलिए जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो नए शासकों और देश के नेताओं के सामने सबसे बड़ी समस्या जहाँ आर्थिक संकट के दूर करने की थी, वहाँ राष्ट्र-निर्माण की व्यापक योजनाएँ, उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हो सकती थीं। ब्रिटिश सरकार की प्रवृत्तियाँ अधिकांशतः नगरों तक सीमित रहीं; परंतु भारतवर्ष तो वस्तुतः गाँवों में बसता है। 70 लाख गाँवों की उपेक्षा करके देश उन्नत हो ही नहीं सकता था, इसलिए लोकप्रिय शासन ने पंचवर्षीय योजनाओं में नवभारत के निर्माण पर ध्यान देते हुए ऐसी बीसियों योजनाएँ तैयार की हैं, जिनके पूर्ण होने पर देश का कायाकल्प हो जाएगा।
राष्ट्र-निर्माण की समस्याएँ संक्षेप से निम्नलिखित हैं-
1. आर्थिक स्थिति का सुधार
2. सामाजिक और सामूहिक जीवन उत्पन्न करना
3. शिक्षा का प्रचार।
एक भ्रम
बहुत से विदेशी विचारों से दीक्षित अधिकारी, कार्यकर्त्ता तथा विद्वान अर्थशास्त्री प्रायः भारतीय ग्रामों की समस्या का विवेचन करते हुए, ग्रामों में अशिक्षा, जहालत, कुरीति प्रसार और मुकदमेबाजी आदि दोष गिनाकर ग्रामवासियों की कठोर आलोचना करते हैं। परंतु हमारी नम्र सम्मति में ग्राम समस्याओं पर विचार का यह तरीका गलत है। विदेशी शासन की नीति के कारण गाँवों की पंचायत व्यवस्था नष्ट हो गई और उसके साथ-साथ ग्रामों की सुख-समृद्धि भी। विदेशी शासन ने भारतीय ग्रामोद्योगों को नष्ट कर दिया था। देशी या विदेशी कारखानों ने भारतीय ग्रामोद्योगों को जीने लायक नहीं रखा। ग्रामोद्योगों के विनाश तथा जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण भूमि पर बोझ निरंतर बढ़ता गया। एक बार गरीबी से सताए जाने पर सरकारी कर्मचारियों, अदालतों, जमींदारों, महाजनों के चक्कर में आकर वे ज्यादा से ज्यादा दुर्बल और दरिद्र होते गए। इस दरिद्रता ने उनके जीवन का आनंद और रस ले लिया और इसी के परिणाम हैं, अज्ञान, अशिक्षा, जहालत, आलस्य इत्यादि। इसलिए यदि ग्रामों का पुनर्निर्माण करना है तो सबसे पहली प्रधान आवश्यकता ग्रामों की आर्थिक स्थिति सुधारकर उन्हें स्वाबलंबी बनाने की है।
आर्थिक स्थिति में सुधार
ग्राम समस्या के इस स्वरूप को राष्ट्रीय नेताओं ने भली भाँति समझ लिया है और यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामों के आर्थिक विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। ग्रामोद्योगों को पुनर्जीवित किया जा रहा है। उन्हें मिलों की प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए अनेक कदम उठाए जा रहे हैं। अंबर चर्खे के विकास और प्रचार के लिए लाखों रुपया व्यय हो रहा है। खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड तरह-तरह के उद्योगों को पुनर्जीवित करने और कारीगरों को नए औज़ार व प्रशिक्षण देने में पूर्ण सहयोग दे रहा है। चर्खा संघ भी इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य कर रहा है। खेती की पैदावार प्रति एकड़ जब तक नहीं बढ़ेगी, तब तक किसान समृद्ध नहीं हो सकता। इसलिए कृषि सुधार के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं। जमींदारी प्रथा का अंत करके किसानों को अपनी भूमि का मालिक बनाया जा रहा है और इस तरह उनका खोया हुआ आत्मगौरव उन्हें पुनः वापिस दिलाया जा रहा है। इस एक व्यवस्था से ही किसानों में एक नव चेतना और जागृति उत्पन्न हो जाएगी। अच्छे बीज, खाद, सिंचाई की छोटी-बड़ी व्यवस्थाएँ, खेतों की नए सिरे से चकबंदी आदि के कारण ही उपज अच्छी होगी और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा।
आर्थिक स्थिति में सुधार के साथ ही ग्राम निवासियों में अपने बच्चों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। वे अच्छे कपड़े पहनने लगे हैं, पहले से अच्छा खाना खाने लगे हैं। उनका जीवन स्तर ऊँचा होने लगा है।
सामाजिक चेतना
ग्रामों की दूसरी समस्या ग्रामवासियों में सामाजिक और सामूहिक चेतना उत्पन्न करने की है। दीर्घकाल तक शोषण, अत्याचार व पीड़न के शिकार होते रहने से ग्रामवासियों में आत्म-विश्वास की भावना सर्वथा लुप्त हो गई। उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी समाप्त हो गया। इस कारण गाँवों में आपसी लड़ाई-झगड़े और मुकदमेबाजी बहुत बढ़ गई। गरीबी भी इसका एक मुख्य कारण रहा। पंचायतों की समाप्ति ने उनमें परस्पर सहयोग, अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझाने और स्वावलंबन के भाव नष्ट कर दिए। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि उनमें आत्म-विश्वास पैदा किया जाए। इस दिशा में पिछले स्वातंत्र्य युद्ध और किसान आंदोलन काफ़ी सहायक सिद्ध हुए हैं। जमींदारी उन्मूलन ने भी उनकी सामाजिक चेतना को जागृत किया। पंचायतों के पुनः प्रसार से ग्रामवासी अब अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझाने का प्रयत्न करने लगे हैं। गाँवों की रोशनी, सफाई, शिक्षा और आपसी झगड़ों के निर्णय आदि में उनकी स्वाभाविक कुशलता पुनः प्रकट होने लगी है। सामुदायिक योजनाओं में सरकार के सहयोग से उन्हें और भी अधिक लाभ मिलने लगा है। वे एक साथ अपनी चतुर्मुखी उन्नति करने के लिए उठ रहे हैं। यातायात, कुएँ, चौपाल, विद्यालय आदि के निर्माण में स्वयं श्रमदान करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पशु संवर्द्धन तथा खाद के बनाने तथा कृत्रिम खाद के प्रयोग के लाभों को वे अधिक समझने लगे हैं। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए नाटकों, मेलों और सामाजिक कार्यक्रमों का जाल सारे देश में फैल रहा है। ग्रामवासियों में यह भावना पैदा हो रही है कि अब उन्हें स्वतंत्र देश का स्वस्थ और सभ्य नागरिक बनकर रहना है। गलियों में कूड़ा-कचरा फेंकने, कुएँ या तालाब को गंदा करने और गोबर को जलाने आदि के दुष्परिणामों को वे अनुभव करने लगे हैं।
जगह-जगह बनने वाली सहकारी समितियाँ भी जहाँ ग्रामवासी की आर्थिक दशा सुधारने में सहयोग दे रही हैं, वहाँ उनमें परस्पर सहयोग और संगठित होकर कार्य करने की भावना भी उत्पन्न कर रही हैं। कृषि में सहकारिता की नई प्रवृत्तियाँ बढ़ाने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। सरकार जिस तरह सहकारी समितियों को उत्साहित कर रही है, यदि उन्हें ठीक ढंग से चलाया जाए तो इसमें संदेह नहीं कि ग्रामवासी जनता में सामूहिक चेतना विकसित हो जाएगी। देश के स्वतंत्र होने के बाद दो आम चुनावों और समय-समय पर होने वाले पंचायतों के चुनावों ने उनमें राजनैतिक जागृति पैदा कर दी है। वे अपने बल, महत्त्व और मूल्य को समझने लगे हैं। उन्हें यह मालूम हो गया है कि देश के निर्माण में वे भी महत्त्वपूर्ण भाग अदा कर सकते हैं। यह ज्ञान उनमें जहाँ आत्माभिमान जागरूकता और चेतना को उत्पन्न करेगा, वहाँ ग्रामों का पुननिर्माण भी कर देगा।
शिक्षा-प्रसार
तीसरी समस्या शिक्षा प्रसार की है। राज्यों की सरकारें गाँव-गाँव में शिक्षा प्रसार के लिए तरह-तरह के प्रयत्न कर रही है। प्राइमरी स्कूल, मिडिल स्कूलों के अतिरिक्त दोपहर और रात्रि की पाठशालाएँ वयस्कों के लिए खोली जा रही हैं। सिनेमा फिल्मों और रेडियो से नागरिक शास्त्र की शिक्षा दी जाती है। शराब, जुआ, मुकदमेबाजी, बाल-विवाह तथा अन्य कुरीतियों के विरुद्ध प्रचार किया जाता है। खेती में सुधार के लिए आवश्यक निर्देश दिए जा रहे हैं। सामुदायिक योजना में शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता है। महिलाओं में शिक्षा और साक्षरता-प्रसार के लिए विशेष रूप से महिला कार्यकत्रियाँ नियुक्त की गई हैं। मद्य निषेध का आंदोलन भी आदि जातियों में किया जा रहा है। कस्तूरबा निधि, गांधी स्मारक निधि आदि जन-संस्थाओं का सहयोग भी उल्लेखनीय है। यों भी ग्रामोद्योगों के प्रसार के साथ-साथ ग्रामों में शिक्षा की आवश्यकता और रुचि बढ़ती जा रही है। ग्रामवासी अपने महत्त्व को समझ रहे हैं और देश के निर्माण में अधिकतम भाग लेने को कटिबद्ध हो रहे हैं।
नई सूचना
जहाँ ग्रामोत्थान और राष्ट्र-निर्माण की दिशा में यह सब प्रयत्न प्रशंसनीय हैं, वहाँ एक नई समस्या भयंकर रूप से खड़ी हो रही है। वह यह है कि उठता हुआ स्वाभिमान, जात-पाँत और वर्ग की क्षुद्र सीमाओं से बाहर नहीं जा रहा। वर्ग और जाति की चेतना राष्ट्रीय चेतना पर हावी हो रही है। पंचायतों के चुनावों में दलित जातियों में उच्च वर्गों के प्रति प्रतिशोध की भावना प्रकट हो रही है। महान दलित नेता डॉ. अम्बेडकर की शिक्षाओं का दुष्परिणाम सामने आ रहा है। दलित अपने को पृथक् वर्ग समझकर उच्च वर्णों के विरोध में अपने को संगठित कर रहे हैं। दक्षिण भारत में तो एक बहुत व्यापक संगठन आर्य संस्कृति के विरुद्ध बल पकड़ रहा है। उच्च वर्ण के हिंदुओं में भी जात- पाँत की क्षुद्र भावना जोर पकड़ रही है। सच्ची नागरिकता, जन सेवा या सिद्धांतों के नाम पर चुनावों में वोट न माँगकर अग्रवाल, बनिया, ब्राह्मण, जाट और अहीर आदि के नाम पर वोट माँगे जाते हैं। प्रांतीयय और भाषागत भावनाएँ भी राष्ट्रीयता का विकास नहीं होने दे रहीं। इसलिए राष्ट्र सेवकों का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वे जात-पाँत, अछूत आदि सामाजिक कुरीतियों को नष्ट करके अखंड राष्ट्रीयता का रूप देश के सामने रखें।
राष्ट्र-निर्माण की दिशा में भारत सेवक समाज और भारत साधु-समाज आदि का संगठन किया गया है। यदि इनके कार्यकर्त्ता सरकारी मशीनरी और पैसे एवं मोटरों, प्रदर्शनों और आत्म-विज्ञापन का मोह छोड़ दें तो निःसंदेह ये संस्थाएँ राष्ट्र निर्माण और ग्रामोत्थान में सहायक हो सकती हैं। सरकारी कर्मचारियों को भी अपनी टीपटाप, आडंबर, समृद्धि और पद के प्रदर्शन छोड़कर गाँवों के उत्थान में लग जाना चाहिए।