तक्षशिला
नालंदा
वलभी
विक्रमशिला
ओदांतपुरी
जागद्दल
बनारस (वाराणसी)
कांची
नवद्वीप या नदिया।
वैदिक युग में ऋषियों के आश्रम ही उनकी शिक्षा-संस्थाएँ थीं, इनमें दूर-दूर से विद्यार्थी विद्या- उपार्जन के लिए आया करते थे। उस काल में ये आश्रम ही वास्तविक शिक्षा के केंद्र थे। उदाहरण के लिए कण्व आश्रम, मारीचि आश्रम, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि आचार्यो ऋषियों के आश्रमों का यत्र-तत्र संस्कृत साहित्य में उल्लेख मिलता है। नैमिषारण्य (सीतापुर) आचार्य शौनक का प्रसिद्ध आश्रम था। गुरु-गृह, गुरुकुल तथा आश्रम ही इस काल के प्रमुख शिक्षा-केंद्र थे, जहाँ विभिन्न शास्त्रों का सांगोपांग अध्ययन-अध्यापन किया जाता था। इस काल में व्यावहारिक शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जाता था।
बौद्ध-युग में गुरुकुलों और आश्रमों का स्थान बौद्ध विहारों ने ले लिया और यह आश्रम व्यवस्था धीरे धीरे इन विहारों में रूपान्तरित हो गई। इन विहारों में बौद्ध-धर्म के अतिरिक्त दूसरे धर्मों के व्यक्ति भी अध्ययन करने के लिए आया करते थे। इस काल में बौद्ध-धर्म में भिक्षु भिक्षुणियों को शिक्षित करने का उपक्रम उनके विहारों में प्रवेश काल से ही प्रारंभ हो जाता था। इस प्रकार के बौद्ध विहार ही शिक्षा केंद्र के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
जातक साहित्य का सर्वेक्षण करने पर विदित होता है कि प्राचीन भारत में अनेक शिक्षा-केंद्र थे, जिनमें निम्न अधिक प्रसिद्ध थे— तक्षशिला, काशी, राजगृह, नालंदा, वलभी, मिथिला, विक्रम। किंतु इन शिक्षा केंद्रों में तीन प्रमुख थे-
तक्षशिला,
नालंदा,
विक्रमशिला
तक्षशिला
प्राचीन भारत का सर्वाधिक पुरातन शिक्षा केंद्र तक्षशिला (रावलपिंडी के निकट) था। कहते हैं कि इसकी स्थापना भरत ने की थी और भरत का पुत्र ‘तक्ष’ उनका प्रथम कुलपति था, महाभारत में उल्लिखित जनमेजय के नाज्ञयज्ञ का यही स्थान था। रामायण-महाभारत जैसे ग्रंथों में इसका उल्लेख शिक्षा केंद्र के रूप में नहीं है किंतु ईसा पूर्व (BC) सप्तम शतक में यह स्थान विशिष्ट विद्या-केंद्र के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका था। इसलिए यहाँ राजगृह, बनारस, मिथिला जैसे दूरस्थ प्रदेशों से विद्यार्थी आया करते थे। किंतु ईसा पूर्व (BC) में ईरानी, शक, कुषाण, हूणों के निरंतर होने वाले आक्रमणों ने इस विश्वविद्यालय को नामशेष कर दिया था, इसलिए फाहियान ने इस स्थान का अपने विवरण में उल्लेख नहीं किया है। किंतु उत्खनन के समय इस स्थान से प्राप्त ‘बर्तन भाड़े, दवात, थाली, लोटा, हीरक-हार, कसौटी पत्थर, मटके आदि अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं’ जो उस समय की सभ्यता तथा शिक्षित समाज की ओर संकेत करती हैं। तक्षशिला के उस महान विश्वविद्यालय के स्थान पर खण्डहर तथा वीरान स्थान है। इसके खण्डहर जौलिया, पिपला, जांडियाल तथा रिचस्तूप आदि स्थानों के थोड़ी ही दूर पाए जाते हैं। इसकी खुदाई से यह भी पता चला है कि तक्षशिला में ब्राह्मण, बौद्ध दर्शन साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि पर अनेक ग्रंथ लिखे गए। अतः यह विश्वविद्यालय भारत की समृद्धिशालिनी सभ्यता का महान् प्रतीक है।
तक्षशिला यद्यपि शिक्षा केंद्र था किंतु उसका स्वरूप किसी विश्वविद्यालय की भाँति नहीं था, न तो वहाँ कोई निश्चित शिक्षाकाल था, न उपाधियाँ थीं, न कोई पाठ्यक्रम; अपितु वहाँ जगत प्रसिद्ध (दिसापामोक्ख) विद्वान रहते थे, जो कि स्वतंत्र रूप से विद्या दान देते थे, उनकी कीर्ति से आकृष्ट होकर दूर-दूर से विद्यार्थी विद्यार्जन के लिए जाते थे। भगवान बुद्ध का चिकित्सक सात वर्ष तक वहाँ विद्यार्जन करता है। विद्यार्जन करने के पश्चात् इसकी द्रव्यगुण में क्रियात्मक परीक्षा भी ली गई थी “यह खुरपी लो और तक्षशिला के चारों ओर एक योजन तक घूम आओ, तुम्हें जो भी पौधा औषधि के काम का न जान पड़े, उसे ले आओ।” जीवक तदनुसार उस प्रदेश में घूम आए किंतु उन्हें कोई भी ऐसा पौधा न मिला जो औषधि के काम का न हो। यह बात उसने अपने गुरु से कही और गुरु अपने शिष्य के ज्ञान सन्तुष्ट हुए और उन्हें घर जाने की आज्ञा प्रदान की।
तक्षशिला में नाना विषयों का अध्यापन किया जाता था, विशेषतः तीन वेद, वेदांत, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, तर्कशास्त्र, चिकित्सा, सैनिक शिक्षा, 18 शिल्प, तथा कृषि आदि।
इस शिक्षा केंद्र में अध्यापन करने वालों में पाणिनि, चाणक्य, प्रसिद्ध चिकित्सक जीवक, सम्राट चंद्रगुप्त तथा पुष्यमित्र आदि प्रसिद्ध हैं। जहाँ विद्यार्थी इच्छानुसार विषय का चयन करते थे, वर्ण-व्यवस्था उसमें बाधक न थी। ऊँच-नीच, गरीब- अमीर का भी यहाँ कोई भेद-भाव न था।
यहाँ गुरुकुल पद्धति पर शिक्षा दी जाती थी किंतु विद्यार्थी शिक्षा और भोजन
का शुल्क देते थे। वह तीन प्रकार से दिया जाता था :-
(1) प्रवेश के अवसर पर एक सहस्र मुद्राएँ देना,
(2) अध्ययन के पश्चात् एक सहस्र मुद्राओं को देने का वचन, तथा
(3) गुरु सेवा।
इस प्रकार यहाँ निर्धन और धनी सभी के लिए विद्या के द्वार खुले हुए थे। यहाँ प्रवेश की न्यूनतम आयु 16 वर्ष थी।
विद्या का यह केंद्र लगभग एक हजार वर्षों तक भारत में शिक्षा वितरण का कार्य करता रहा, देश-विदेशों में इसकी ख्याति थी।
तक्षशिला में कौटिल्य राजनीति के तथा भृत्यकौमारजीव जैसे शल्य-चिकित्सक अध्यापक थे। पाणिनि भी अटक के पास ‘शालापुर’ ग्राम के निवासी थे। संभवतः उन्होंने वहाँ विद्यार्जन किया हो और उसके पश्चात् अध्यापन कार्य भी।
नालंदा
प्राचीन भारत का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय नालंदा पटना के दक्षिण पश्चिम में चालीस मील दूर आधुनिक बड़गाँव में था जोकि राजगृह से आठ मील है। “नालंदा विश्वविद्यालय वास्तव में उस समय विश्व का ज्ञान पीठ था और इसी ने उस समय जगत् को भारतीय ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, कला तथा दर्शन का ज्ञान प्रदान किया था। यहाँ के स्नातक विश्व में ख्याति प्राप्त करते थे। बौद्ध-काल में यहाँ चीन, जापान, तिब्बत, स्याम, बर्मा आदि के विद्यार्थी विद्यार्जन के लिए आया करते थे। चीनी-यात्री ह्व ेनसांग ने यहाँ शिक्षा प्राप्त की थी, उसने उसकी महत्ता का भव्य वर्णन किया है। उसने लिखा है कि भारत में शिक्षा की हजारों संस्थाएं थीं पर कोई भी नालंदा के मुकाबले भव्य न थी। 10 हजार विद्यार्थी न केवल बौद्ध साहित्य की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन करते वरन् वे वेद (अथर्ववेद भी), तर्कशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद, सांख्य, दर्शन आदि भी पढ़ते थे। प्रतिदिन 100 आसनों से शिक्षाएँ दी जाती थीं। राजाओं की कई पीढ़ियों की उदारता के फलस्वरूप न केवल यहाँ निवास और व्याख्यान के भव्य भवन बनाए गए थे वरन् गुरु और शिष्यों की इतनी बड़ी संख्या की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति भी की जाती थी। 100 गाँवों की आय इस कार्य में व्यय होती थी और इन गाँवों के 200 परिवार उनकी दैनिक आवश्यकताओं की बारी- बारी से पूर्ति करते थे। चीनी यात्री ने ठीक ही लिखा है कि “इन्हीं कारणों से विद्यार्थियों को यहाँ इतना अधिक मिलता है कि उन्हें चारों आवश्यकताओं-कपड़ा, खाना, विस्तर और दवा – के लिए किसी से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहती। यही उनकी शिक्षा की पूर्णता का रहस्य है।”
ह्वेनसांग नालंदा की शिक्षा-पद्धति के संबंध में लिखता है कि “गम्भीर प्रश्नों के पूछने और उत्तर देने के लिए पूरा दिन भी पर्याप्त नहीं पड़ता। प्रातःकाल से रात्रि तक लोग वाद-विवाद में लगे रहते हैं। बूढ़े और जवान एक-दूसरे की सहायता करते हैं।”
ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं शिक्षार्थी ‘उच्चतम योग्यता और मेधा’ के व्यक्ति होते थे। नालंदा से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी जहाँ भी जाते थे, वहाँ उन्हें सम्मान प्राप्त होता था। एशिया के शिक्षा क्षेत्र में नालंदा सदा ही आदर्श शिक्षक का कार्य करता रहा है।
नालंदा विश्वविद्यालय में 10000 छात्र तथा 1500 अध्यापक थे। इस अध्यापक मंडल में धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित और पद्मसंभव जैसे प्रतिभावान अध्यापक थे। शीलभद्र प्रधानाध्यापक थे। इस विश्वविद्यालय में 8 हॉल तथा 300 छोटे-छोटे कक्ष थे। अनेक मठ थे। ‘रत्नसागर’ ‘रत्नोदधि’ तथा ‘रत्नरंजक’ नामक तीन सरस्वती मंदिर (पुस्तकालय) थे, इनकी इमारतें नौ मंजिल तक थीं। विभिन्न संप्रदायों से सम्बद्ध अनेक ग्रंथ इन पुस्तकालयों में सुरक्षित थे।
इन इमारतों के संबंध में ह्वेनसांग ने लिखा है कि “जो सभी कई मंजिल की थीं, लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की दृष्टि से अत्यंत भव्य थीं, इनमें अत्यंत सुसज्जित मीनार तथा बुर्जियाँ थीं, जैसी परियों की कहानियों में होती हैं, जो दूर से देखने में नुकीले पर्वत शिखरों जैसी लगती थीं, और प्रातःकाल के कुहरे में छिपी रहने वाली वेधशालाएँ थीं। ऊपर के कमरे बादलों में अपना मस्तक ऊँचा किए हुए दिखाई देते थे और उनकी खिड़कियों से हवाओं का वेग और नित नया रूप धारण करते हुए बादल तथा उनके अलिन्दों से सूर्यास्त का सौंदर्य ज्योत्सना का नयनाभिराम दृश्य देखा जा सकता था।” “ह्वेनसांग तथा उनके चरित्र के लेखक ह्व. ईली ने नालंदा के सौंदर्य के संबंध में लिखा है- “और फिर हम इसका भी उल्लेख कर सकते हैं कि निर्मल जल से भरे हुए गहरे खरोबरों के धरातल पर नील- कमल तैरते रहते हैं जिनके बीच-बीच में गहरे लाल रंग के कवल के फूल अपनी छवि दिखाते हैं और थोड़ी-थोड़ी दूर पर आम्रकुंज अपनी छाया से भूमि को ढक लेते हैं। बाहर के सभी प्रांगण, जिनमें पुरोहितों के कक्ष बने हुए हैं, चार मंजिले हैं। हर मंजिल पर अजगर की शक्ल में कटे हुए पत्थर बाहर को निकाले हुए हैं और रंग-बिरंगे अलिन्द बने हैं; मूँगे जैसे लाल स्तम्भों पर अत्यंत सुंदर बेल-बूटों की नक्काशी है, उन इमारतों में अत्यंत सुंदर तथा सुसज्जित जंगले तथा कटहरे हैं और छतों पर ऐसे चौके लगे हैं जिनसे प्रकाश हजारों अलग-अलग रंगों में प्रतिबिम्बित होता है। इन सब चीजों के कारण यहाँ के सौंदर्य को चार चाँद द लग जाते थे।”
नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध महायान पंथ का प्रमुख शिक्षा केंद्र था, अतः यहाँ प्रवेशार्थी छात्रों की संख्या अत्यधिक बो, इसलिए इस विद्यालय के प्रवेश नियम कठोर थे। प्रत्येक प्रवेशार्थी की परीक्षा ली जाती थी। ह्वेनसांग ने लिखा है-
“यदि बाहर के लोग वहाँ प्रवेश पाने और शास्त्रार्थ में भाग लेने की इच्छा से आते हैं तो द्वारपाल उनके सामने कुछ कठिन प्रश्न रखता है; बहुत से लोग इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते और वापस लौट जाते हैं। यहाँ प्रवेश पाने से पहले पुरातन तथा नूतन दोनों ही (ग्रंथों) का गूढ़ अध्ययन आवश्यक है इसलिए जो विद्यार्थी यहाँ नवागंतुकों के रूप में आते हैं, उन्हें कठिन वाद-विवाद में भाग लेकर अपनी योग्यता सिद्ध करनी पड़ती है, यदि सात या आठ लोगों को इसमें असफलता प्राप्त होती है तो दस लोग सफल भी हो जाते हैं। इन सात या आठ में से दो या तीन, जिनकी योग्यता साधारण होती है, सभा में शास्त्रार्थ के लिए पहुँचने पर निश्चित रूप से असफल सिद्ध होते हैं और अपनी ख्याति से हाथ धो बैठते हैं।”
नालंदा विश्वविद्यालय अष्टम शतक में अपने चरमोत्कर्ष पर था, इसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति इस काल में मिल गई थी, तथा यह बारहवीं शताब्दी में तुर्कों के आक्रमण के द्वारा नामशेष हो गया। प्राचीन भारत का विद्यार्थी जब तक इस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त नहीं कर लेता था, तब तक स्वयं वह अपनी शिक्षा को अपूर्ण मानता था।
वलभी
जिस प्रकार पूर्व में नालंदा विश्वविद्यालय की प्रसिद्धि थी, उसी भाँति सातवीं शती में पश्चिमी काठियावाड़ में स्थित ‘बलभी’ की प्रसिद्धि थी। चीनी यात्री इत्सिङ्ग ने वलभी शिक्षा केंद्र का विस्ता से वर्णन किया है। वह यहाँ दो- तीन वर्ष तक रहा था। वलभी में भारतवर्ष के विद्वान सिद्धांतों पर विचार करने के लिए एकत्र हुआ करते थे। वलभी में एकत्र विद्वान् जिस पंडित के सिद्धांतों को स्वीकार करते थे, अथवा जिसकी बुद्धिमता की प्रशंसा करते थे, उसे प्रसिद्धि शीघ्र ही मिल जाती थी। गंगा के मैदान तथा उत्तर भारत से अनेक व्यक्ति वलभी शिक्षा प्राप्त करने जाते थे। वलभी बौद्ध-धर्म की हीनयान शाखा का प्रमुख केंद्र था, और यह विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में उत्तर भारत में प्रसिद्ध था, यहाँ अध्ययन के प्रमुख समस्त विषयों का अध्यापन होता था विशेषतः कानून, अर्थशास्त्र, गणित और साहित्य जैसे विषयों का। प्रसिद्ध है कि ध्रुव की ज्येष्ठ राजकुमारी दुदरा ने वलभी के विहार का निर्माण कराया था। 640 ई0 के आसपास वहाँ लगभग 100 विहार थे। इसमें रहने वाले 600 भिक्षु भी इसी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करते थे।
सातवीं सदी के मध्य में विश्व प्रसिद्ध विद्वान यहाँ अध्यापन कार्य करते थे। वलभी से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति शासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। इस विश्वविद्यालय का पुस्तकालय नालंदा विश्वविद्यालय की भाँति ही संपन्न था। गुह्यसेन के दानपत्र (559 ई0) में पुस्तकों के खरीदने उल्लेख मिलता है।
वलभी समृद्ध नगरी थी, वह एक राजधानी थी, वहाँ एक बन्दरगाह था, अतः इस विश्वविद्यालय को आर्थिक अभाव न था, वहाँ के नागरिक अति संपन्न थे अतः विश्वविद्यालय बहुत अच्छी स्थिति में 775 ई0 तक चलता रहा, लगभग इसी समय अरबों के आक्रमण आरंभ हुए और इसके पतन का आरंभ भी हुआ किंतु लगभग बारहवीं सदी तक यह पश्चिम भारत का एक प्रमुख शिक्षा-केंद्र रहा था।
विक्रमशिला
विक्रमशिला बिहार प्रान्त के भागलपुर जिले में स्थित था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना पालवंशी राजा धर्मपाल ने अष्टम शतक में की थी। इस राजा ने यहाँ अनेक बुद्ध मंदिर और विहारों की स्थापना की थी, इस विश्वविद्यालय ने अपनी विशेषताओं के कारण शीघ्र ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करली। विक्रमशिला के प्रतिष्ठा प्राप्त प्राध्यापकों की एक लंबी तालिका है। इस विश्वविद्यालय का विशेष संबंध तिब्बत से था। इस विश्वविद्यालय में अध्ययन करने आने वालों में तिब्बतियों की विशाल संख्या रहती थी, इसलिए उनके लिए इसमें एक विशिष्ट अतिथिशाला भी थी। विक्रमशिला के संबंध में हमें विभिन्न आधारों से जानकारी मिली है, उसके संबंध में श्री गोखले लिखते हैं-
“उन महापुरुषों की जीवनियों में, जिन्होंने यहाँ विद्या लाभ किया और यहाँ के उन विद्वानों के जीवन चरित्र स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं, जिन्हें विदेशों में मुख्यतः तिब्बत में ज्ञान, संस्कृति तथा धर्म के प्रचार के लिए आमन्त्रित किया गया। इनमें से कुछ विद्वानों के वृत्तान्तों में हमें उनके विश्वविद्यालय के इतिहास की कुछ झलकियाँ मिलती हैं। सचमुच, विद्यालय के केंद्र के रूप में विक्रमशिला की सफलता का प्रचुर प्रमाण इस बात में मिलता है कि उसने बहुत बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली विद्वान् पैदा किये, उसने विलक्षण धर्मात्माओं को जन्म दिया, जिन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा ज्ञान तथा धर्म के क्षेत्र में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान दिए और उनके इसी योग- दान के आधार पर तिब्बत जैसे एक पूरे देश की सभ्यता तथा संस्कृति का वस्तुतः निर्माण हुआ। तिब्बत ने बड़ी कृतज्ञता के भाव से विक्रमशिला के कुछ स्नातकों की स्मृति को सुरक्षित रखा है और उनमें से कुछ को वहाँ धर्मगुरु के पद पर बिठा दिया गया है।” इनमें दीपंकर श्रीज्ञान सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। वे ग्यारहवीं शती में तिब्बत गए थे और कहा जाता है कि उन्होंने दो सौ पुस्तकें लिखीं तथा अनुवाद कीं।
बारहवीं शती में भी इस विश्वविद्यालय में अनेक भवन थे, तथा इससे सम्बद्ध छह विद्यालय थे, इन सभी के मध्य एक सभा भवन था जिसमें छह फाटक थे, जो कि प्रत्येक विद्यालय से इस भवन को सम्बद्ध करता था। इस भवन की दीवारें सुसज्जित थीं, उन पर प्रसिद्ध विद्वानों के चित्र लगे हुए थे,
प्रधान द्वार के दायें स्तम्भ पर नागार्जुन तथा बायें स्तम्भ पर अनेक कला चित्र थे। द्वार पर कुछ विद्वान नियुक्त थे, जो प्रवेश चाहने वालों की परीक्षा लेते थे, जो उसमें उत्तीर्ण होता था, वही उस विश्वविद्यालय में अध्ययन कर सकता था।
विश्वविद्यालय का प्रशासन महास्थविर चलाते थे, वही उसके कुलपति हुआ करते थे। कुलपति विद्वान तथा धर्म के ज्ञाता होते थे। विश्वविद्यालय के चलाने के लिए अनेक समिति और उपसमिति थीं।
अध्यापक सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श का पालन करते थे। एक अध्यापक आचार्य भिक्षु से चौगुना व्यय कर सकता था। इस विद्यालय में सीमित विषयों का ही अध्यापन किया जाता था — विशेषतः व्याकरण, दर्शन तथा कर्मकांड का अध्यापक किया जाता था, किंतु बाद में तंत्र मंत्र यहाँ का प्रधान विषय बन गया, और इसके घातक प्रभाव भी विश्वविद्यालय पर पड़े। इस विश्वविद्यालय में सत्र की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार होता था, और बंगाल के शासक उपाधि वितरण का कार्य करते थे। यह विश्वविद्यालय अन्य समस्त विश्वविद्यालयों से व्यवस्थित था। जेतारि और रत्नवज्र को महीपाल और कनक नामक राजाओं ने पदवियाँ प्रदान की थीं।
इस विश्वविद्यालय को 1203 ई0 में बख्यितार खिलजी ने नष्ट-भ्रष्ट किया और अनेक बौद्ध भिक्षुओं को तलवार के घाट उतार दिया। महास्थविर शाक्य श्री भद्र कुछ साथियों के साथ प्राणों की रक्षा के लिए तिब्बत चले गए और वहीं रह गए।
ओदांतपुरी
ओदांतपुरी का विश्वविद्यालय भी मगध के पालवंशी राजाओं के द्वारा विकास को प्राप्त हुआ। इस विश्वविद्यालय की स्थापना अष्टम शतक में गोपाल नामक राजा ने की थी। इस विश्वविद्यालय में तांत्रिक साहित्य का विशेष रूप से अध्यापन कार्य था। यह विश्वविद्यालय पाटलिपुत्र के निटक स्थित था। इसमें ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म की अलभ्य पुस्तकें संग्रहीत थीं। यहाँ शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। इसने बौद्ध-धर्म के प्रचार व प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया था।
जागद्दल
जागद्दल विश्वविद्यालय इन महान विश्वविद्यालयों में अन्तिम था। इसकी स्थापना बंगाल के राजा रामपाल ने की थी। इसका अस्तित्व केवल एक शताब्दी तक ही रहा। इसकी स्थापना बारहवीं शताब्दी में हुई थी तथा इसको विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट किया था। यह उच्च शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था, यहाँ अन्य विषयों के साथ-साथ तर्कशास्त्र और तंत्रविद्या की शिक्षा प्रदान की जाती थी। तिब्बत से आने वाले विद्वान् विद्यार्थी संस्कृत के मूल ग्रंथों की प्रतिलिपि और अनु- वाद किया करते थे। विभूतिचंद्र, शुभंकर, मोक्षकर आदि यहाँ के सुप्रसिद्ध विद्वान् थे।
बनारस (वाराणसी)
बनारस भी भारत का प्राचीन शिक्षा-केंद्र रहा है। इसे अधिक महत्त्व अशोक तथा उसके पश्चात् सारनाथ को अधिक महत्त्व मिलने पर प्राप्त हुआ है। भगवान बुद्ध के समय इसके महत्त्व की कुछ वृद्धि हुई थी, धर्मचक्र के प्रवर्तन का क्षेत्र भी यही था। अन्यथा ईसा पूर्व (BC) सप्तम शतक में बनारस के राजाओं का तक्षशिला विद्याध्ययन करने जाने का उल्लेख मिला है। हिंदू धर्म का महत्त्वपूर्ण तीर्थ होने के कारण बनारस (काशी) संस्कृत विद्या का केंद्र रहा है। ग्यारहवीं शती के अलबरूनी ने इसे विद्या का एक बहुत बड़ा केंद्र लिखा है। यहाँ आचार्य का घर ही उसका विद्यालय था। यहाँ नालंदा जैसा सुसंगठित विश्वविद्यालय नहीं था। आधुनिक युग में बनारस में तीन विश्वविद्यालय हैं।
कांची
पल्लव राजाओं की राजधानी कांची दक्षिण का एक प्रसिद्ध शिक्षा का केंद्र था। यहाँ ब्राह्मण एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों की पृथक्-पृथक् केंद्रों में शिक्षा दी जाती थी। धर्मों के अध्ययनाध्यापन के साथ तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र और व्याकरण तथा साहित्य शिक्षा के प्रधान विषय थे।
प्रसिद्ध न्यायभाष्य के रचयिता वात्स्यायन कांची के आचार्य थे, दिङनाग ने भी, इसी स्थान पर विद्याध्ययन किया था। पाँचवीं सदी के कदम्ब वंश के मयूर वर्मा ने भी यहाँ अध्ययन किया था।
चीनी यात्री ह्वेनसांग 642 ई0 कांची गया था, वह कांची में पर्याप्त समय तक रुका था, उसके अनुसार कांची में वैष्णव, शैव, दिगंबर जैन और महायानी बौद्ध रहते और अध्ययन भी करते थे। प्राचीन भारतीय शिक्षा का यह एक प्रसिद्ध केंद्र था यहाँ सैकड़ों बौद्ध विहार थे जिनमें लगभग दस हजार भिक्षु रहते थे।
नवद्वीप या नदिया
गंगा और जलांगी के संगम तट पर स्थित नदिया एक प्रसिद्ध व्यावसायिक और शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र रहा है। पालवंशी राजाओं ने इसके विकास में योगदान दिया है। राजा लक्ष्मणसेन (ग्यारहवीं शताब्दी) ने नवद्वीप को अपनी राजधानी बनाया था, परिणामस्वरूप नदिया की ख्याति दूर-दूर थी। लक्ष्मणसेन का मंत्री हलायुध स्वयं एक महान विद्वान था, उसके कई ग्रंथ जैसे ‘स्मृति सर्वस्व’, ‘मीमांसा सर्वस्व’ तथा ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ प्रसिद्ध हैं।
नालंदा और तक्षशिला के पतन हो जाने पर इस विद्या केंद्र का भारत में मान बढ़ा। गीतगोविन्दकार जयदेव, ‘स्मृति-विवेक’ के रचयिता उमापति इसी नवद्वीप की देन हैं।
कहा जाता है कि वासुदेव सार्वभौम नामक एक प्रतिभावान विद्यार्थी नवद्वीप से मिथिला गया था। उसने ‘तत्त्वचिंतन’ नामक ग्रंथ को कंठस्थ किया और उसने नवद्वीप में तर्कशास्त्र के अध्ययनाध्यापन का सूत्रपात किया। यहीं पर उनके शिष्य रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, रामभद्र, गदाधर भट्टाचार्य नामक प्रसिद्ध न्यायशास्त्र के विद्वान हुए जो न्यायदर्शन के इतिहास में अमर हैं। यहाँ न्याय के अतिरिक्त स्मृति तंत्र और ज्योतिष की भी शिक्षा दी जाती थी। इस विश्वविद्यालय में वाद-विवाद की कुशलता ही अध्ययनाध्यापन का मानदंड था।
इस विश्वविद्यालय के तीन केंद्र थे— एक नवद्वीप, दूसरा शांतिपुर और तीसरा गोपालपाड़ा। यहाँ बीस वर्ष तक अध्ययन चलता था। यहीं हजारों की संख्या में छात्र थे और छह सौ के लगभग आचार्य थे।