संकेत बिंदु – (1) सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के प्रतीक (2) सामाजिक संस्कृति की आत्मा (3) प्राकृतिक सुंदरता और सजीवता (4) पारिवारिक और कर्त्तव्यबोध के संदेशवाहक (5) राष्ट्रीय एकता के उद्बोधक।
त्योहार सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के प्रतीक हैं। जन-जीवन में जागृति लाने वाले और उसके श्रृंगार हैं। समष्टिगत जीवन में जाति की आशा-आकांक्षा के चिह्न हैं, उत्साह एवं उमंगों के प्रदाता हैं। राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के द्योतक हैं।
जीवन की एक-रसता से ऊबे समाज के लिए त्योहार वर्ष की गति के पड़ाव हैं। वे भिन्न-भिन्न प्रकार के मनोरंजन, उल्लास और आनंद प्रदान कर जीवन चक्र को सरस बनाते हैं।
पर्व युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं, प्रथाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आदर्शों, नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक मूल्यों का वह मूर्त प्रतिबिंब हैं जो जन-जन के किसी एक वर्ग अथवा स्तर विशेष की झाँकी ही प्रस्तुत नहीं करते, अपितु असंख्य जनता की अदम्य जिजीविषा और जीवन के प्रति उत्साह का साक्षात् एवं अन्तःस्पर्शी आत्म-दर्शन भी कराते हैं।
त्योहार सामाजिक संस्कृति की आत्मा को अभिव्यक्ति देते हैं तो सामाजिक सामूहिकता का बोध कराते हैं और अगर विद्वेषकारी मतभेद कहीं हैं तो उनके विस्मरण की प्रतीति कराते हैं। इसीलिए त्योहारों की व्यवस्था समाज कल्याण और सुख-समृद्धि के उत्पादों के रूप में हुई थी। भारतीय समाज में ज्ञान का प्रसार करने के लिए श्रावण की पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म के रूप में ज्ञान की साधना का पर्व मनाया गया। समाज में शौर्य की परंपरा बनाए रखने और भीतरी तथा बाहरी चुनौतियों का सामना करने के लिए शक्ति अनिवार्य है। अतः शक्ति-साधना के लिए विजयदशमी पर्व को मनाने की व्यवस्था हुई। समाज को सुख और समृद्धि की ओर ले जाने के लिए संपदा की जरूरत होती है। उसके लिए दीपावली को लक्ष्मी पूजन का पर्व शुरू हुआ। विविध पुरुषार्थों को साधते समय समाज में एक या दूसरी तरह की विपमता उत्पन्न हो जाती है। इस विषमता की भावना को लुप्त करने के लिए और सभी प्रकार का मनोमालिन्य मिटाने के लिए तथा स्नेह – भाव की वृद्धि के लिए ‘होली’ पर्व की प्रतिष्ठा हुई।
जब-जब प्रकृतिसुंदरी ने सोलह शृंगार सजा कर अपना रूप निखारा, रंग-बिरंगे फूलों की चूनर ओढ़ी, खेत-खलिहानों की हरीतिमा से अपना आवरण रंगा या चाँद-तारों की बिंदिया सजाई, माँग में बाल अरुण की लालिमा रूपी सिंदूर भरा, इंद्रधनुष की भौंहे तान, काली घटा का अंजन आँजा और विराट् को लुभाने चली तब-तब धरती मुग्ध हो झुम उठी, धरती पुत्र कृत-कृत्ये हो मदमस्त हुआ। वह मस्ती में नाचने-गाने लगा। प्रकृति का बदलता सौंदर्य मानव-मन में उमड़ती उमंग और उल्लास के रूप में प्रकट होकर पर्व या त्योहार कहलाया।
प्रकृति की सजीवता से मानव उल्लसित हो उठा। प्रकृति ने संगिनी बनकर उसे सहारा दिया और मखी बनकर जीवन प्रसन्न मानव ने धरती में बीज डाला। वर्षा ने उसे सींचा, सूर्य की गर्मी ने उसे पकाया। जल और सूर्य मानव के आराध्य बन गए। श्रम के पुरस्कार में जब खेती लहलहाई तो मानव का हृदय खिल उठा, उसके चरण थिरक उठे, वाणी मुखर हो गई। संगीत- स्रोत फूट पड़े। वाणी ने उस आराध्य की वंदना की, जिसने उसे सहारा दिया था। सभ्यता के विकास में मन की उमंग और प्रभु के प्रति आभार प्रकट करने के लिए अभ्यर्थना और नृत्य संगीत ही उसका माध्यम बने। यह वही परंपरा तो है, जो त्योहारों के रूप में आज भी मुखरित है, जीवंत है।
त्योहारों का महत्त्व पारिवारिक बोध की जागृति में है, अपनत्व के विराट् रूप-दर्शन में है। होली तथा दीपावली पर परिवार जनों को तथा दीपावली पर इष्ट मित्रों को भी बधाई पत्र (ग्रीटिंग कार्ड) तथा मिष्टान्न आदि भेजना अपनत्व की पहचान ही तो है।
त्योहार कर्तव्यबोध के संदेशवाहक के नाते भी महत्त्वपूर्ण हैं। राखी ने भाई को बहिन की रक्षा का संदेश दिया। होली ने ‘वैर भाव भूलने’ के संदेश को दोहराया। दशहरे ने आततायी के विनाश के प्रति कर्तव्य का बोध कराया। दीपावली ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का संदेश दिया।
त्योहार राष्ट्रीय एकता के उद्बोधक हैं. राष्ट्र की एकात्मता के परिचायक हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक विस्तृत इस पुण्यभूमि भारत का जन-जन जब होली, दशहरा और दीपावली मनाता है, होली का हुड़दंग मचाता है, दशहरा के दिन रावण को जलाता है और दीपावली की दीप-पंक्तियों से घर, आँगन, द्वार को ज्योतित करता है, तब भारत की जनता राजनीति-निर्मित्त उत्तर और दक्षिण का अंतर समाप्त कर एक सांस्कृतिक गंगा – धारा में डुबकी लगाकर एकता का परिचय दे रही होती है।
दक्षिण का ओणम्, उत्तर का दशहरा, पूर्व की (दुर्गा) पूजा और पश्चिम का महारास, जिस समय एक-दूसरे से गले मिलते हैं, तब भारतीय तो अलग, परदेशियों तक के हृदय- शतदल एक ही झोंके में खिल खिल जाते हैं। इसमें अगर कहीं से वैसाखी के भंगड़े का स्वर मिल जाए या राजस्थान की पनिहारी की रौनक घुल जाए तो कहना ही क्या? भीलों का भगेरिया और गुजरात का गरबा अपने आप में लाख-लाख इंद्रधनुषों की अल्हड़ता के साथ होड़ लेने की क्षमता रखते हैं।
कवि इकबाल की जिज्ञासा, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ का समाधान हमारे पर्व और त्योहारों में ही है। सत्ययुग से चली आती त्योहार – परंपरा, द्वापर और त्रेता युग को पार कर कलियुग में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की ध्वजा फहरा रही है। ‘प्रत्येक आने वाले युग ने बीते युग को अपनाया और त्योहारों की माला में गूँथकर रख दिया। इस माला के फूल कभी सूखे नहीं, क्योंकि हर आने वाली पीढ़ी ने न सिर्फ उन फूलों . को सहेज कर रखा, वरन् उनमें नए फूलों की वृद्धि भी की। और ये त्योहार भारतीय संस्कृति और सभ्यता के दर्पण बन गए।’