संकेत बिंदु-(1) कामकाजी महिला का क्षेत्र (2) कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ (3) पारिवारिक और सामाजिक समस्या (4) कामकाजी महिलाओं का शोषण व स्थानांतरण (5) उपसंहार।
कुशल अथवा अकुशल श्रम के द्वारा आजीविका अर्जन करने वाली नारी कामकाजी महिला है। बिना ‘सर्विस’ के परिवार को सहयोग देने वाली नारी कितना ही श्रम क्यों न करती हो, वह कामकाजी नहीं कहलाती, क्योंकि उसे श्रम का प्रतिदान नहीं मिलता। श्रम का प्रतिदान ‘वेतन’ अथवा ‘पारिश्रमिक’ प्राप्त करना कामकाजी महिला की पहचान है। कामकाजी महिलाओं का क्षेत्र अत्यंत विशाल है। सरकारी, अर्द्धसरकारी या निजी कार्यालयों में काम करने वाली, प्रशासनिक कार्यों में हाथ बटाने वाली, खेत-खलिहान, फैक्ट्रियों, कारखानों तथा मिल जैसे औद्योगिक संस्थाओं में काम करने वाली, पुलिस तथा सेना में कार्यरत महिलाएँ, न्याय सिंहासन को सुशोभित करने वाली स्त्रियाँ कामकाजी महिलाओं की श्रेणी में आती हैं।
प्राचीन काल से घर-गृहस्थी का दायित्व नारी पर और धन का उपार्जन पुरुष पर रहा। अर्ध नारीश्वर की पावन भावना इसी सत्य को उजागर करती है। समय बदला। नारी शिक्षा और बढ़ती महँगाई के कारण परिवार चलाने की समस्या ने नारी को घर के बाहर कमाई के क्षेत्र में धकेल दिया। विवशतावश इस क्षेत्र में आई नारी, अब इस क्षेत्र में गर्व का अनुभव करती है। ‘सर्विस’ द्वारा वह पुरुष के अहं और अर्थ-परतंत्रता की लौह शृंखलाओं को तोड़ने के साहसिक प्रयास में रत है। साथ ही है उसमें ‘अहं’ के पोषण की चाह और ‘स्व’ के विकास की तीव्र भावना।
परिवार-पालन कामकाजी महिला की महती समस्या है। सफाई व्यवस्था, नाश्ता-भोजन, बच्चों तथा परिवार का दायित्व, पति की प्रसन्नता आदि को निभा पाना क्या ऐसी नारी के लिए संभव है? कोमल शरीर एक, और गृहस्थी के झंझट अनेक। महिला का शरीर, माँसपेशियों का कोमल ढाँचा है, कोई लौह मशीन नहीं। दुहरी थकान, क्लांति, सिर दर्द, ‘मूड ऑफ’, सब उसके लिए भी हैं।
कामकाजी महिला के परिवार में माता-पिता या सास-स्वसुर, ननद-देवर यदि हों और उनमें पारस्परिक विश्वास और सहयोग का भाव हो तो परिवार इंद्रधनुष-सा सुंदर बन जाता है। घरेलू काम-काज में कुछ सुविधा, विश्रान्ति का समय तथा जीवन जीने का आनंद मिल जाता है, परंतु यही स्थिति पलटा खाती हो तो पति से पत्नी की शिकवे-शिकायतें, घर में काना-फूसी, षड्यंत्र तथा संपूर्ण दायित्व का बोझ कामकाजी महिला पर डाल दिया जाए तो उसका जीवन नरक-सम बन जाता है।
परिवार का एक अंग है-संतान। संतान के उज्ज्वल भविष्य के लिए कामकाजी महिला खप रही है, जीवन को होम कर रही है, परंतु वह उपेक्षा भी अपनी संतान की करती है। कितना विरोधाभास है उसके जीवन में। बच्चे को नित्य प्रति अनिवार्य समय देने, उसके स्कूली अध्ययन में भागीदार बनने, उनके दैनिंदिन आचरण तथा चाल-चलन की निगरानी रखने तथा उत्तम संस्कार देने की असमर्थता से बच्चे उपेक्षित रह जाते हैं। फलतः उसमें उच्छृंखलता, उद्दंडता तथा कर्तव्य विमुखता घर कर जाती है। इसमें भी यदि माता-पिता में परस्पर स्नेह संबंध न हों तो बच्चा अपराधबोध लेकर जीएगा। इसे कहते हैं- ‘विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्’, चले थे बनाने गणेश जी, बन गया बंदर। इस प्रकार कामकाजी महिला संतान के भविष्य से खिलवाड़ करती है।
परिवार बनाकर रहने वाला एक मनुष्य सामाजिक प्राणी है। परिवार में उसके समीपस्थ और थोड़े दूर के रिश्तेदार शामिल हैं। पति-पत्नी तथा माता-पिता के विवाहित भाई-बहनों को इस सीमा में ले सकते हैं। दूर के रिश्तों में भाई तथा बहिनों, मौसी तथा बुआ से जुड़े परिवारों को ले सकते हैं। समाज में पड़ोसी मित्र तथा संगी-साथी हैं। पर्व-त्योहार, जन्म-मरण, मंगलमय उत्सव तथा कष्टप्रद पीड़ा में एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना, यही सामाजिकता है, पारिवारिकता है। जब पति-पत्नी, दोनों ही सर्विस में हों तो यह आना-जाना समयाभाव के कारण भारी पड़ जाता है। भारी पड़ने का अहसास आने-जाने में दीवार खड़ी करता है। संबंध शिथिल होते हैं। रिश्तेदारों की नाराजगी महँगी पड़ सकती है, इसीलिए कामकाजी महिला की प्रकारांतर से यह भी एक अन्य समस्या है।
घर से दफ्तर जाने और दफ्तर से घर लौटने के लिए वाहन चाहिए। वाहन अर्थात् बस या लोकल ट्रेन। महानगरों की बसों में जिस प्रकार ठूँस-ठूँस कर सवारियाँ भरी जाती हैं, जेबें कटती हैं, नारी से छेड़-छाड़ होती है, अपमान होता है, अश्लील तथा श्लिष्ट (दो अर्थ वाले) शब्दों से स्वागत होता है तथा खड़े-खड़े यात्रा पूर्ण करनी पड़ती है, कामकाजी महिला की ये विवशताएँ हैं।
काम पर ‘मेकअप’ करके या सज-सँवर कर पहुँचना, यह ऑफिस या कार्यक्षेत्र की आवश्यकता है। महिला कर्मचारी इस दृष्टि से अधिक सचेत रहती है। रूपवती दिखने की यह चाह नारी की प्रकृति है। साथियों तथा अधिकारियों के साथ अर्ध-मुस्कान से मधुर-वचन बोलना, हास-परिहास करना आम बात है। इस सहजता में जब कामकाजी महिला अपने को खो देती है तो वह कहीं न कहीं, किसी न किसी से वासनात्मक संबंध बना बैठती है। दूसरी ओर, किसी ऑफीशियल उलझन में फँसने, पदोन्नति चाहने तथा विशेष-सुविधा प्राप्त करने के लिए कामकाजी महिला का आत्म समर्पण भी उसकी विवशता है।
शरीर को तिल-तिल क्षीण करना कामकाजी महिला की अन्य समस्या है। शारीरिक सामर्थ्य से अधिक काम लेना शरीर शोषण है। जिस नारी के भाग्य में मेज-कुर्सी नहीं, शारीरिक मजदूरी से ही जो आजीविका कमाती हैं, उनका शरीर क्षीण होता ही है। पुलिस और सेना की नौकरी भी कम शरीर तोड़क नहीं। ‘वह तोड़ती पत्थर’ में तो महाकवि निराला ने इसी ओर संकेत किया है। निराला का हृदय उसी दृश्य से द्रवित हो उठा था।
इस प्रकार कामकाजी महिलाओं की अनेक समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ, उनके लिए शाश्वत हैं, अनिवार्य हैं। जब उसने घर की लक्ष्मण रेखा पार कर, दाम्पत्य-जीवन और संतान के भविष्य को दाँव पर लगाया है तो मन में घुटन क्यों? द्वंद्वग्रस्तता क्यों? नौकरी करनी है तो नखरे कैसे? ओखली में सिर दिया है तो मूसली का डर क्यों? निराशा, हताशा, कुंठा समस्या को विकरालता प्रदान करेंगी। इन समस्याओं के होते हुए भी नारी में धैर्य हो और संघर्ष से दो हाथ करने का पूर्ण सामर्थ्य हो तो उक्त समस्याएँ उससे हार जाएँगी।