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करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

karat karat abhyas ke practice makes a person perfect hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) अभ्यास से मूर्ख भी ज्ञानी और सिद्ध (2) चित्तवृतियों का निरोध (3) अभ्यास से प्रतिभा उत्पन्न (4) अभ्यास के द्वारा अनेक महान विभूतियों का जन्म (5) अभ्यास सिद्धि का साधन और विकास का मार्ग।

निरंतर अभ्यास से मूर्ख, अनाड़ी तथा असिद्ध व्यक्ति भी समझदार, चतुर, कुशल, निपुण, सिद्ध, प्रवीण तथा सुविज्ञ बन जाता है। बार-बार रस्सी के आने-जाने से कठोर शिला पर निशान पड़ जाते हैं। निरंतर रगड़ने पर काठ से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। निरंतर तीव्र गति से बहने वाली नदियाँ चट्टानों को भी तोड़ डालती हैं। निरंतर पृथ्वी खोदने से जल मिल जाता है। बट्टे की रगड़ से पत्थर की सिल भी चिकनी हो जाती है। पापाण धीरे- धीरे घिस कर चूर्ण बन जाता है। कूदते-कूदते आदमी नचनिया हो जाता है। धौंकनी से धधक-धधक कर काला कोयला भी धीरे-धीरे लाल अंगारा बन जाता है। ऐसे ही जो सुजान हैं, वे अभ्यास से विषय विशेष में पारंगत हो जाते हैं। जो पारंगत हैं वे कलाकार बन जाते हैं। जो कलाकार हैं, वे सिद्ध गुरु की दीप्ति से दमक उठते हैं।

अभ्यास से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है। चंचल मन वश में होता है। चित्तवृत्तियों के निरोध से मन वश में होकर अभ्यास में प्रवृत्त होता है, जिससे आत्मबल प्राप्त होता है। आत्मबल की प्राप्ति सफलता की परिचायक है। जड़मति के सुजान होने की साक्षी है।

योगवासिष्ठ कहता है, ‘निरंतर अभ्यास से किसी विषय का अज्ञ उस विषय का ज्ञाता हो जाता है।’ बोधिचर्यावतार में कहा गया है, ‘कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो अभ्यास करने पर दुष्कर है।’ बेकन कहते हैं, ‘मनुष्य मात्र में बुद्धिगत ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसका प्रतिकार उचित अभ्यास के द्वारा न हो सकता हो।’ संत ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘अभ्यास से कुछ भी सर्वथा दुष्प्राप्य नहीं है।’ संत तुकाराम की धारणा है, ‘अभ्यास के बिना साध्य की प्राप्ति हो, यह संभव नहीं है।’

अभ्यास कभी निरर्थक नहीं जाता, निष्फल नहीं होता। कारण, अभ्यास से प्रतिभा उत्पन्न होती है। बोपदेव संस्कृत और प्राकृत के बहुत बड़े विद्वान हुए हैं। उनका संस्कृत और प्राकृत का तुलनात्मक व्याकरण ‘प्राकृत सर्वस्वसार’ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। वे आरंभ में निरे मूर्ख थे। पढ़ने में मन नहीं लगता था। गायें चराते थे। एक दिन कुएँ पर मिट्टी के घड़े द्वारा पत्थर पर पड़े गड्ढे को देखकर उन्हें प्रेरणा मिली। वे पढ़ाई में लग गए। परिणामस्वरूप वे परम विद्वान हुए। कालिदास की कहानी कौन नहीं जानता? जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। विदुषी पत्नी ने उनकी मूर्खता को जानकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। आगे चलकर अभ्यास और परिश्रम के द्वारा वे संस्कृत के श्रेष्ठ कवि और नाटककार बने। महर्षि वाल्मीकि पहले रत्नाकर नामक व्याघ थे, पर ऐसी साधना की कि उनके शरीर पर मिट्टी एकत्रित हो गई, उनमें दीमकों ने बिल बना ली। वे वाल्मीकि बनकर राम कथा के प्रणेता और आदि कवि बने। भील बालक एकलव्य निरंतर अभ्यास से अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया।

प्राचीन काल में लोग इष्ट सिद्धि के लिए तप किया करते थे। तप क्या है? मन को वश में करके सिद्धि की ओर एकाग्र करना। यह अभ्यास का ही पर्याय है। निरंतर अभ्यास का परिणाम था कि लंकापति राक्षसराज रावण को ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त हुआ। धर्नुधर अर्जुन देवराज इंद्र से अमोघ अस्त्र ले आया। भीष्म पितामह ने भी अभ्यास साधना से ही मृत्यु को अपनी इच्छा का दास बना लिया था।

निरंतर अभ्यास नीरस नहीं होता। एकाग्र चित्तता से अभ्यास कभी उकताहट पैदा नहीं करता। अभ्यास तो आनंद का स्रोत है। न्यूटन सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक हुआ है। वह अपने प्रयोग में तल्लीन रहता था, उसकी नौकरानी खाना रख जाती थी। एक दिन उसके खाने को कुत्ता खा गया, जब वह भोजन करने गया तो प्लेट पर कुछ हड्डियाँ मात्र थीं। उसने समझा कि उसने पहले ही खा लिया है। वह फिर काम पर लग गया। इसी का नाम है लगन, यही है विद्याभ्यास।

शिक्षा और कला, दो ऐसी विद्याएँ हैं, जिनके दरबार का प्रहरी बड़ा कठोर है। बिना सतत अभ्यास का प्रवेश-पत्र देखे वह किसी को भीतर घुसने नहीं देता। तुमने अध्ययन और अभ्यास किया है तो कला के भंडार से मोती चुनने देगा, अन्यथा धक्का देकर बाहर निकाल देगा। लता मंगेशकर अभ्यास के बल पर विश्व प्रसिद्ध गायिका बनीं। पी.टी. उषा श्रेष्ठ धाविका बनीं। सोमा दत्त तीरंदाज बनीं। राजकपूर भारत का सबसे बड़ा  ‘शोमैन’ बना। शंकराचार्य 16 वर्ष की अल्पायु में वेद-शास्त्रों के पंडित बने। स्लेट पर काव्य-रचना कर-करके मिटाने वाला युवक मैथिलीशरण गुप्त भारत का राष्ट्रकवि बना।

मनु स्मृति कहती है- ‘बार-बार कार्य नष्ट होने पर भी कार्य को बार-बार करता रहे, क्योंकि निरंतर करने वाले को विजयश्री निश्चित ही मिलती है।’ कन्फ्यूशस कहते हैं, ‘हमारा महान गौरव कभी न गिरने में नहीं, अपितु जब भी गिरें हर बार उठने में है।’ संत तिरुवल्लुवर का कथन है, ‘सौभाग्य न होना किसी के लिए दोष नहीं है। समझकर सतत प्रयत्न न करना ही दोष है।’

संसार के महापुरुषों, वैज्ञानिकों, तपस्वियों की उपलब्धियाँ और सफलताएँ उनके सतत अभ्यास का ही सुपरिणाम हैं। केवल मनोरथ से सिद्धि प्राप्त होती तो सोते हुए सिंह के मुँह में मृग स्वयमेव प्रवेश कर जाता। विलिएम एडवर्ड हिक्सन की कविता है-

It as first don’t succeed

Try-try-try again.

अभ्यास सिद्धि का साधन है। यह विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। सुप्त प्रतिभा जाग्रत करता है। श्री और ऐश्वर्य की प्राप्ति करवाता है। यश का मुकुट बाँधता है। अतः निरंतर अभ्यास करते जाओ। इसलिए तो कहा गया है-

    करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

    रसरी आवत जात तैं सिल पर परत निसान॥

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