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कर्तव्य परायणता – पर एक शानदार निबंध

kartavya parayata par hindi me ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) चित की शांति और आत्मसुख का मंत्र (2) अवसर के अनुकूल कार्य (3) स्वैच्छिक कर्त्तव्य के प्रकार (4) महापुरुषों की कर्त्तव्यपरायणता (5) आज का युग कर्त्तव्य विमुखता का कलंकित युग।

ऐसा काम जो किया जाने के योग्य हो, उसमें निरत रहना कर्तव्य परायणता है। ऐसा काम जिसे पूरा करना अनिवार्य और परम धर्म हो उसमें निरंतर संलग्न रहना कर्तव्य- परायणता है। ऐसा कृत्य जिसे संपादित करने के लिए व्यक्ति विधान या शासन द्वारा बंधा हो, उसे पूर्ण रूपेण पालन करना कर्तव्य परायणता है।

कर्तव्य परायणता चित्त की शांति का मूल मंत्र है। आत्म-सुख का सोपान है। जीवन की उन्नति तथा प्रगति का साधन है। मंगलमय भविष्य का द्वार खोलने वाली, कीर्ति को भुवन व्यापिनी और चरित को सुर वंद्य बनाने वाली है।

सृष्टि में मनुष्य का अवतरण कुछ करने के लिए हुआ है और उसे करने में निरत रहना ही कर्तव्य परायणता है। जीवन में कार्य करने के अवसर नित्य ही आते हैं। अवसरानुकूल जो करणीय है, वही कर्तव्य कहलाता है। शरत्चन्द्र कहते हैं, ‘कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिसको नाप जोखकर देखा जाए।’ डॉ. संपूर्णानंद का कथन है, ‘जो काम अभेद भावना की ओर ले जाता है, वह सत्कर्म है, कर्तव्य करणीय है।’ टालस्टाय कहते हैं, ‘ईश्वर शांति चाहता है और ईश्वर की इच्छा के अनुसार चलना मनुष्य का परम कर्तव्य है।’ गाँधी जी का विचार है, ‘बैर लेना या करना मनुष्य का कर्तव्य नहीं है, उसका कर्तव्य क्षमा है। ‘विनोबा के विचार में ‘मानव की सेवा करना मानव का सर्वप्रथम कर्तव्य है।’

कर्तव्य का विभाजन दो रूपों में कर सकते हैं – (1) जन्म लेने के कारण जो हमारा धर्म है और (2) जिनका भार हमने स्वयं अपने ऊपर लिया है।

जन्म लेने के कारण माता-पिता, समाज, स्वधर्म और स्वराष्ट्र के प्रति जो करणीय कर्म हैं, वे जन्मतः कर्तव्य की कोटि में आते हैं। इन पाँचों के प्रति कर्तव्य की अवहेलना करने वालों के लिए मैथिलीशरण गुप्त की यह सूक्ति चरितार्थ होती है, ‘वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।’

स्वेच्छिक कर्तव्य में विद्याध्ययन, विवाह, संतानोत्पत्ति, मानव सेवा आदि आते हैं। विद्याध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित है, परंतु यही विद्यार्थी का परम कर्तव्य है।

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर पत्नी तथा संतान का पालन-संवर्द्धन मानव का अपरिहार्य कर्तव्य है। भूखे को भोजन, गिरते को संबल, दुख-दर्द, कष्ट-पीड़ा में सहयोग आदि देना तथा मानव सेवा कर्तव्य हैं। इन्हें करना ही कर्तव्य परायणता है।

कर्तव्य परायणता का अपना एक आनंद है, उल्लास है। व्यक्ति का जीवन उसके कर्तव्य में खो जाता है। कष्ट कठिनाई, प्रतिरोध-प्रतिकार उसके लिए अचिंतनीय बन जाते हैं। उसकी प्रेरणा परमात्मा की अंतर्ध्वनि बन जाती है। समरसता की अपूर्व स्थिति उसकी हो जाती है।

परिवार के प्रति कर्तव्य निर्वाह में अहर्निश संलग्न परिवार का मुखिया, संतान- संवर्द्धन में सदैव चिंतित माता-पिता का मन, शिष्यों के शिक्षण में आत्म-विभोर गुरु, मानव-सेवा में लगा महामानव नित्य सुख में स्थित रहता है। उसके लिए प्रसाद जी के शब्दों में, ‘चेतनता एक बिलसती / आनंद अखंड घना था।’

कर्तव्य की कठोरता भी बड़ी विलक्षण है। इस कठोरता क्रूरता की भावनाओं को वही समझता है कि उसे जिन भावनाओं से प्रेरित होकर वैसा करना पड़ा था। अतः कर्तव्य जो न करा दे, कम है।

सती शिरोमणी, निरपराध, गर्भवती भगवती सीता के परित्याग का श्रीराम का आदेश उनकी कर्तव्य परायणता का (अर्थात् लोकाराधन का) अद्भुत उदाहरण है। हृदय पर वज्र रखकर ही यह आदेश उनके मुख से निकला होगा। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र का अपनी ही पत्नी से अपने ही आत्मज की अन्त्येष्टि के लिए श्मशान-कर माँगना, कितनी निर्मम कर्तव्य परायणता है। सरदार पटेल न्यायालय में बहस कर रहे थे। तभी उन्हें उनकी पत्नी की मृत्यु का तार मिला। तार पढ़कर जेब में रख लिया और उसी गंभीरता से बहस जारी रखी। अपने मुवक्किल को मुकद्दमे में जिताना उनका पहला कर्तव्य था। यहाँ कर्तव्य के सम्मुख भावना पराजित हो गई।

धर्म के दीवानों की कर्तव्य परायणता देखिए। महर्षि दधीचि ने देवताओं की आर्त प्रार्थना सुनकर अपनी अस्थियों का दान कर मृत्यु का आलिंगन कर लिया। गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्र दीवार में चुनावा दिए गए, पर इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया। धर्मवीर हकीकतराय ने अपनी गर्दन कटवाना स्वीकार किया, किंतु यवन धर्म स्वीकृत नहीं किया। स्वधर्म की रक्षा के लिए जीवन की आहुति देना उनका कर्तव्य था।

बीसवीं सदी का अंतिम चरण कर्तव्य विमुखता का कलंकित इतिहास है। माता-पिता, गुरुजन का अनादर, अपमान आदि कर्तव्य विमुखता है, धर्म तथा समाज के प्रति आत्मघाती द्रोह है। मातृभूमि के प्रति छल-कपट, प्रपंच तो नेताओं के रक्त की कैंसर है। निजी सुख, परिवार-समृद्धि, दल हित से ऊपर उठकर यदि भारतीय नेता सोचते, सोच को क्रियान्वित करते, नियति नहीं, अपनी नीयत को ठीक रखते तो भारत में सामाजिक- विपन्नता, आर्थिक दुर्दशा, राजनीतिक शून्यता, पारिवारिक विद्रोहात्मकता, धार्मिक अपमानजन्य अश्रद्धा जो आज है, वह न होती।

कर्तव्य जीवन का अनिवार्य अंग है। इसमें परायण होने में ही समझदारी है, सुख है। मायावी संसार से जूझने, संघर्ष करने तथा अग्नि परीक्षा में सफल होने का महामंत्र है, दिव्य अस्त्र है। उच्चचरित्र तथा उज्ज्वल भविष्य का परिचय पत्र है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय है कि हम पहले वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है और इस प्रकार धीरे-धीरे शक्ति संचय करते हुए क्रमशः हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।’

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