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करवा चौथ (करक चतुर्थी) का आरंभ कैसे हुआ आइए जानें।

karwa chouth ki shuruat kaise hui hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) पति की दीर्घायु का व्रत (2) उपवास का कारण और प्रकार (3) पर्व की विविधता (4) करवा चौथ की सार्थकता (5) पतिव्रता नारी और पति का कर्त्तव्य।

पति की दीर्घायु और मंगलकामना हेतु हिंदू-सुहागिन नारियों का यह महान् पावन पर्व है। करवा (जल पात्र) द्वारा कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा को अर्ध्य देकर पारण (उपवास के बाद का पहला भोजन) करने का विधान होने से इसका नाम करवा चौथ है। करवा चौथ और करक चतुर्थी पर्यायवाची हैं। चंद्रोदय तक निर्जल उपवास रखकर पुण्य संचय करना इस पर्व की विधि है। चंद्र दर्शनोपरांत सास या परिवार में ज्येष्ठ श्रद्धेय नारी को बायन (बायना) दान देकर ‘सदा सौभाग्यवती भव’ का आशीर्वाद लेना व्रत साफल्य का सूचक है।

सुहागिन नारी का पर्व होने के नाते यथासम्भव और यथाशक्ति न्यूनाधिक सोलह शृंगार से अलंकृत होकर सुहागिन अपने अंत:करण के उल्लास को प्रकट करती है। पति चाहे गूँगा हो, बहरा हो, अपाहिज हो, क्षय या असाध्य रोग से ग्रस्त हो, क्रूर – अत्याचारी- अनाचारी या व्यभिचारी हो, उससे हर प्रकार का संवाद और संबंध शिथिल पड़ चुके हों, फिर भी हिंदू नारी इस पर्व को कुंठित मन से ही सही, मनाएगी अवश्य। पत्नी का पति के प्रति यह मूक समर्पण दूसरे किसी भी धर्म या संस्कृति में कहाँ?

पुण्य प्राप्ति के लिए किसी पुण्य तिथि में उपवास करने या किसी उपवास के कर्मानुष्ठानं द्वारा पुण्य संचय करने के संकल्प को व्रत कहते हैं। व्रत और उपवास द्वारा शरीर को तपाना तप है। व्रत धारण कर, उपवास रखकर पति की मंगलकामना सुहागिन का तप है। तप द्वारा सिद्धि प्राप्त करना पुण्य का मार्ग है। अतः सुहागिन करवा चौथ का व्रत धारण कर उपवास रखती हैं।

समय, सुविधा और स्वास्थ्य के अनुकूल उपवास करने में ही व्रत का आनंद है। उपवास तीन प्रकार के रखे जाते हैं-

(क) ब्राह्म मुहूर्त से चंद्रोदय तक, जल तक भी ग्रहण न करना।

(ख) ब्राह्ममुहूर्त में सर्गी, मिष्टान्न, चाय आदि द्वारा जलपान कर लेना।

(ग) दिन में चाय या फल स्वीकार कर लेना, किंतु अन्न ग्रहण नहीं करना। भारतीय पर्वों में विविधिता का इंद्रधनुषीय सौंदर्य है। इस पर्व के मनाने, व्रत रखने उपवास करने में मायके से खाद्य-पदार्थ भेजने, न भेजने, रूढ़ि परंपरा से चली कथा सुनने-न सुनने, बायना देने न देने, करवे का आदान-प्रदान करने- न करने, श्रद्धेय, प्रौढ़ा से आशीर्वाद लेने-न लेने की विविध शैलियाँ हैं। इन सब विविधता में एक ही उद्देश्य निहित है, ‘पति का मंगल।’

पश्चिमी सभ्यता में निष्ठा रखने वाली सुहागिन, पुरुष मित्रों में प्रिय विवाहित नारी तथा बॉस की प्रसन्नता में अपना उज्ज्वल भविष्य सोचने वाली पति के प्रति अपूर्ण निष्ठिता का भी करवा चौथ के दिन सब ओर से ध्यान हटाकर व्रत के प्रति निष्ठा और पति के प्रति समर्पण करवा-चौथ की ही महिमा है।

हिंदू धर्म विरोधी, ‘खाओ-पीओ मौज उड़ाओ’ की सभ्यता में सरोबार तथा कथित प्रगतिशील तथा पुरुष – नारी समानता के पक्षपाती एक प्रश्न खड़ा करते हैं कि करवा चौथ का पर्व नारी के लिए ही क्यों? हिंदू धर्म में पुरुष के लिए पत्नी व्रत का पर्व क्यों नहीं? भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। 39.9 प्रतिशत परिवारों का संचालन – दायित्व पुरुषों पर है। पुरुष अर्थात् पति। ऐसे स्वामी, परम पुरुष, परम आत्मा, जिससे समस्त परिवार का जीवन चलता है, सांसारिक कष्टों और आपदाओं में अपने पौरुष का परिचय देता है, परिवार के उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर करने में जो अपना जीवन समर्पित करता है, उसके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करना कौन – सा अपराध है?

यह एक कटु सत्य है कि पति की मृत्यु के बाद परिवार पर जो दुख कष्ट आते हैं विपदाओं का जो पहाड़ टूटता हैं, उससे नारी का जीवन नरक-तुल्य बन जाता है। ‘निराला’ जी ने सच ही कहा है-

वह क्रूर काल तांडव की स्मृति रेखा- सी

वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन

दलित भारत की विधवा है।

(अपरा, पृष्ठ 57)

रही ‘पत्नी – व्रत’ की बात। पति चाहे कितना भी कामुक हो, लंपट हो, नारी – मित्र का पक्षधर हो, अपवाद स्वरूप संख्या में नगण्य-सम पतियों को छोड़कर सभी पति परिवार – पोषण के संकल्प से, व्रत से आबद्ध रहते हैं। अपना पेट काटकर, अपनी आकांक्षाओं को कुचलकर, अपने दुख-सुख की परवाह छोड़कर इस व्रत का नित्य पालन करते हैं। अपने परिवार का भरण-पोषण, सुख-सुविधा और उज्ज्वल भविष्य मेरा दायित्व है, मेरा व्रत है। वह इस व्रत पालन में जीवन की सिद्धि मानता है-

व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते।

व्रत से दीक्षा प्राप्त होती है। दीक्षा से दक्षिणा प्राप्त होती है। दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है। श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।

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