“जमींदारी गाड़ी के पाँचवें पहिये के समान है— अर्थात् केवल निरर्थक ही नहीं, बस अड़ंगा लगाने वाला और जमीन पर अनावश्यक बोझ”
– पंडित जवाहरलाल नेहरू
जमींदारी प्रथा का जन्म
भूमि व्यवस्था संबंधी सुधारों में योजना आयोग ने सब से अधिक महत्त्व भूमि संबंधी अधिकारों को दिया है। सरकार व किसान के बीच अंतर्वर्ती जमींदार वर्ग को समाप्त करके भूमि किसान को दिए जाने का समर्थन आज प्रायः सभी अर्थशास्त्री, नेता और अधिकारी करने लगे है। वस्तुतः जमींदारी प्रथा किसान की निजी उन्नति में ही नहीं, देश के आर्थिक विकास में भी बहुत बाधक रही है। किसी समय भारत में किसान ही भूमि का स्वामी था। जैमिनी ने पूर्व मीमांसा में लिखा है कि राजा भूमि किसी को प्रदान नहीं कर सकता, क्योंकि वह उसकी अपनी दौलत नहीं है। मनु भी जंगलों को साफ करने वाले और जोतने वालों को खेतीबाड़ी का स्वामी बताते हैं। मुस्लिम काल में जमींदार थे अवश्य, पर वे केवल लगान वसूल करने वाले अफसर थे, जमीन के मालिक नहीं। अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब ने किले बनाने के लिए किसानों से जमीनें खरीदी थीं। वस्तुतः पहले भूमि राजाओं की अपनी संपत्ति नहीं थी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने लगान वसूल करने के लिए कार्नवालिस के समय जमींदारी प्रथा की नींव डाली थी। मालगुजारी वसूल करने वाले अफसर न रहकर जमीन के मालिक मान लिए गए।
शायद अंग्रेज शासक जमींदारी प्रथा को बहुत समय तक जारी न भी रखते, लेकिन 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध में उन्होंने अनुभव किया कि ताल्लुकेदारों में एक भी विद्रोह में सम्मिलित नहीं हुआ और एक भी किसान राजभक्त नहीं रहा। इसलिए उन्होंने जमींदारों व ताल्लुकेदारों को अपने राज्य का स्तंभ मानकर उन्हें अधिकाधिक अधिकार दिये।
दुष्परिणाम
भूमि पर नई स्वामित्व – नीति का प्रभाव बहुत बुरा हुआ। उससे बड़ी-बड़ी हानियाँ हुई, जिनमें से कुछ हानियाँ निम्नलिखित हैं-
1. पहले के स्वावलंबी गाँव परावलंबी हो गए। किसानों को मिलने वाला अनाज उनके पास नहीं रहा और उनकी क्रयशक्ति निरंतर कम होती गई। उनके ग्रामोद्योग नष्ट हो गए।
2. कुटीर उद्योग नष्ट होने के कारण अधिकाधिक लोग कृषि पर अवलम्बित होते गए। 1779 ई. में एक किसान की खेती का औसत रकबा 40 एकड़ था, 1615 में सात एकड़ रह गया और 1931 में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल व आसाम में क्रमशः 6.4, 24 और 2 एकड़ रह गया है। अधिकांश जोतें अलाभकर हो गई। उनकी पैदावार घट गई, जो परिवार के रहने-सहने तक के लिए काफी न हुई। किसानों को बीज खरीदने और लगान अदा करने तक के लिए महाजन की शरण में जाना पड़ा। लगान अदा न होने पर छोटे-छोटे किसानों की भूमि नीलाम पर चढ़ जाना साधारण सी बात हो गई। उन पर ताल्लुकेदारी और जमींदारी प्रथा के कारण किसानों की आर्थिक दशा इतनी कमजोर हो गई कि जहाँ 1880 ई. में हमारे पास लगभग 50 लाख टन गल्ला अपनी आवश्यकता से अधिक था, वहाँ आज 100 लाख टन गल्ले की कमी है।
जमींदारों को अपने लगान से मतलब था। वे किसानों का खूब शोषण करते थे। समय-समय पर किसान पर लगान का बोझा बढ़ता गया, यद्यपि जमींदारों की मालगुजारी में कोई वृद्धि नहीं होती थी।
सन् 1948-49 में 694 लाख रुपये सरकारी मालगुजारी वसूल करने के लिए जमींदार 1,126 लाख रुपये के हकदार हो गए। इसमें अधिक मूर्खतापूर्ण और भी कोई सौदा हो सकता है?
यह तो कानूनी वसूली थी, जो जमींदार ले सकता था, किंतु बेगार, नज़राना, हाथी, मोटर, खरीद, शादी कर आदि न जाने पचासों टैक्स किसान को और देने पड़ते थे। उनकी संख्या भी करोड़ों रुपये तक जा पहुँचेगी, परिणामस्वरूप कसान गरीब होता गया।
जमींदारी व्यवस्था से खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ती गई, क्योंकि जोत छोटे हो गए और आमदनी का बड़ा भाग जमींदार के हाथों में जाने लगा। लाचार होकर किसान भूमि बेचने पर विवश हुए और खेतों पर ही मजदूरी करने लगे।
किसानों की बुरी हालत का समस्त देश के आर्थिक जीवन-स्तर पर प्रभाव पड़ा। खेती में उनका अपनापन ही नहीं रहा। स्वभावतः खेती में वे पूरे दत्तचित्त नहीं हो सके। पैदावार कम होती गई या बढ़नी बंद हो गई।
जमींदारी उन्मूलन
इस शोचनीय स्थिति को दूर करने लिए जमींदारी उन्मूलन एकमात्र उपाय बताया गया। जमीदारों द्वारा होने वाले शोषण के विरुद्ध किसान की रक्षा का आश्वासन कांग्रेस दे चुकी थी। इसलिए स्वाभाविक था कि वह शासन- सूत्र हाथ में लेते ही जमींदारी उन्मूलन का निश्चय करती। कांग्रेस ने इस विषय पर विचार करने के लिए अनेक कमेटियाँ नियत की और उनकी रिपोर्ट आने के बाद प्रायः सभी राज्यों में बिल पेश हुए। जमींदारों व उनके वकीलों की ओर से जितनी बाधाएँ खड़ी की जा सकती थीं की गई। हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट तक प्रायः सभी राज्यों में मामले गए। पार्लियामेंट को एक कानूनी बाधा दूर करने के लिए संविधान की 31वीं धारा में कुछ संशोधन करना पड़ा। आज यह स्थिति है कि अनेक राज्यों में जमीदारी समाप्त हो चुकी है. कुछ राज्यों में कानून बन चुके हैं और शेष राज्यों में बन रहे हैं। इस सब का परिणाम होगा जमीन पर उसे जोतने वाले का प्रभुत्व। यही आज न्याय है।
तीन मुख्य प्रश्न
जमींदारी उन्मूलन के साथ तीन मुख्य प्रश्न भी उपस्थित हुए हैं-
1. जमींदारों को मुआवजा दिया जाए या नहीं;
2. नई भूमि-पद्धति क्या हो; और
3. भूमि का पुनर्वितरण किस तरह हो?
मुआवजे के प्रश्न पर भारी मतभेद रहा। बहुत से सार्वजनिक कार्यकर्ता मुआवजा देने के पक्ष में नहीं थे, किंतु संविधान के अनुसार जायदाद विना मुआवजे के नहीं ली जा सकती। ब्रिटेन की मजदूर सरकार ने भी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण करते समय पूरा मुआवजा दिया था। फलत: कश्मीर के सिवाय सभी राज्यों में मुआवजा देने का निश्चय किया गया। मुआवजा देने की नीति और उसकी दरों पर भी काफी विचार किया गया और अंत में ज़मींदारी की वार्षिक आय का दस गुना प्रतिकर देने का निश्चय किया गया। बहुत आमदनी पर प्रतिकर में भी कमी की गई। यह मुआवजा बॉण्डों में दिया जा रहा है।
नई पद्धति के संबंध में भी यह निश्चय किया गया कि भूमि पर राज्य का नहीं, किसान का अधिकार स्वीकार किया जाए। न जमींदार रखे गए और न राज्य का ही उस पर अधिकार माना गया, जैसा कि चीन व रूस में किया गया। इस दृष्टि से भारत अन्य साम्यवादी देशों से भी आगे है।