संकेत बिंदु-(1) लोकतंत्र और चुनाव अन्योन्याश्रित (2) लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर (3) चुनाव राजनीतिक पार्टियों के शक्ति परीक्षण का अखाड़ा (4) चुनावों का दुरुपयोग (5) उपसंहार।
लोकतंत्र और चुनाव अन्योन्याश्रित हैं। बिना चुनाव के लोकतंत्र राजतंत्र बन जाता है। चुनाव लोकतंत्र रूपी रथ की धुरी है; लोक-निष्ठा का प्रतीक है; जनता का अपने द्वारा अपने लिए शासकों का चयन है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इससे आगे एक और कदम बढ़ाते हुए कहा था, “लोकतंत्र में चुनाव राजनीतिक शिक्षा देने का विश्वविद्यालय है। “
अमेरिका के विख्यात राष्ट्रपति श्री अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र का अर्थ बताया है-“ जनता के हेतु, जनता द्वारा, जनता का शासन।” जनता का शासन तभी होगा, जब जनता शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधि चुनेगी। प्रतिनिधि चुनने की क्रिया चुनाव पर अवलंबित है। अतः लोकतंत्र में चुनाव का महत्त्व सर्वोपरि है।
लार्ड विवरेज ने लोकतंत्र और तानाशाही शासन में अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है, “लोकतन्त्रीय और तानाशाही में अंतर नेताओं के अभाव में नहीं है, वरन् नेताओं की बिना हत्या किए हुए बदल देने में है। शांतिपूर्वक सरकार बदल देने की शक्ति लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त हैं।” यह शर्त पूरी होती है-चुनाव द्वारा। 1975 के आपत्काल के अनंतर 1977 में भारत में शांतिपूर्वक शासन-बदल चुनाव की शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसी प्रकार 1984 के महानिर्वाचन में चुनाव की महाशक्ति एक बार फिर प्रकट हुई है, जिसने कांग्रेस (इ) को लोकसभा में चार सौ एक सीटें प्रदान करके प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के प्रति अद्वितीय आस्था व्यक्त की है।
चुनाव का अर्थ है प्रत्याशियों का जनता के दरबार में पहुँचकर अपने तथा दल के प्रति जनता का विश्वास अर्जित करना। अपनी नीतियों, सिद्धांतों, कार्यों के प्रति जनता की स्वीकृति प्राप्त करना। शासन करने के ढंग तथा राष्ट्र-कल्याण के लिए प्रस्तुत योजनाओं पर जनता की स्वीकृति की मोहर लगवाना।
चुनाव राजनीतिक दलों के लिए अपनी नीतियों तथा सिद्धांतों के प्रचार का सरल माध्यम है, जनता तक अपनी बात पहुँचाने का बेरोक-टोक साधन है। विपक्षी दलों द्वारा सरकार के क्रिया-कलापों की शल्य क्रिया करने का स्वर्ण अवसर है।
चुनाव के समय विद्यमान सरकार के लिए चुनाव उसके गत शासन-काल के क्रिया-कलापों का प्रश्न-पत्र है। उसकी गलत नीतियों के कारण राष्ट्र को पहुँची क्षति का विवरण प्रस्तुत करने वाली उत्तर पुस्तिका है। उनकी आपा-धापी, कुटुंबपरस्ती, गलत ढंग से धनाढ्य बनने के मूल्यांकन का अवसर है तो अपने सुकर्मों की हुंडी को भुनाने का उचित अवसर भी है।
चुनावी-चरित्र पर सारगर्भित टिप्पणी बर्नार्ड शॉ तथा प्रोफेसर लास्की की दिलचस्प बातचीत में समझिए-
बर्नार्ड शॉ-“जिसे आप लोकतंत्र कहते हैं, वह असल में धूर्ततंत्र है।”
प्रोफेसर लास्की-“लोकतंत्र को धूर्ततंत्र मानना सत्य का अपमान है।”
इस पर शॉ ने शैतान की सी मुस्कान से लास्की की ओर देखा और सफाई पेश की, ‘प्रोफेसर, क्या आपको प्लेटो का यह कथन याद है कि जहाँ मतदाता मूर्ख हैं, वहाँ प्रतिनिधि धूर्त होंगे।”
प्रसिद्ध विद्वान् बर्क को कहना पड़ा, “लोकतंत्र की मूल बीमारी यह है कि भूर्तता और मूर्खता रूपी दो पाटों की चक्की में न्याय और ईमानदारी आटे की तरह पिस गए हैं।”
आज की भारतीय राजनीति में, विशेषकर चुनाव के मध्य, प्रेम के तौर-तरीके खरगोश के सींग वन जाते हैं। क्यों न हो? आखिर कितने वायदों को चेतना के ऊँट पर लादना पड़ता हैं, कितनी मिथ्याओं पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाना पढ़ता है, मच्चाई से कितनी बार ईमान निचोड़ देना पड़ता है। अकबर इलाहाबादी का व्यंग्य साकार हो उठता है-
नयी तहज़ीब में दिक्कत, ज़्यादा तो नहीं होती।
मजहब रहते हैं, क़ायम, फ़क़त ईमान जाता है।
देश में शहद और दूध की नदियाँ बहाने की कसमें खा-खाकर चुनाव का धर्मक्षेत्र या कुरुक्षेत्र जीतने वाले ये नेता स्वयं के लिए सबसे बड़ा बोझ बन जाते हैं। ऐसे लोकतंत्र पर वज्र नहीं गिरेगा, तो कहाँ गिरेगा?
चुनाव धन, बोगस वोटिंग तथा मृगमरीचिकी नारों के बल पर लड़ा जाता है। जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर जीता जाता है। भारत का 40 प्रतिशत मतदाता आज भी अशिक्षित है। अशिक्षित मतदाता से सोच-समझकर मतदान की आशा की भी कैसे का जा सकती है? यही कारण हैं कि सच्चा देश भक्त और त्यागी नेता चुनाव के रेगिस्तान में निरर्थकता की फसल बोते-बोते दम तोड़ देता है तथा धूर्त एवं छली व्यक्ति मैदान मार जाते हैं।
लोकतंत्र तभी सफल रह सकता है जब चुनाव निष्पक्ष हों। धन, धमकी, जाति, कुल, संप्रदाय और धर्म के नाम पर पर वोट (मत) न डाले जाएँ। जन-प्रतिनिधि सच्चाई और ईमानदारी से राष्ट्र की सेवा करने वाले हों। तब चुनाव लोकतंत्र के लिए युद्ध नहीं, तीर्थ-यात्रा बन जाएगा, पर्व बन जाएगा। पानीपत या कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र मैदान नहीं, प्रयाग का पुनीत संगम बन जाएगा।