आज के युग में लोकतंत्र सर्वोत्तम शासन पद्धति स्वीकार की जाती है, पर आज से कुछ समय पहले ऐसा न था। प्राचीन भारत और प्राचीन यूनान भले ही लोकतंत्र के उदाहरण पाए जाते होंगे, लेकिन उसके बाद लोकतंत्र का सिद्धांत प्रचलित न रहा। साधारणतः सब देशों में राजतंत्र या एकतंत्र की शासन पद्धति ही प्रचलित रही। राजतंत्र के मूल में यह भावना काम करती है कि यह राजा की संपत्ति है, वही देश की समस्त संपत्ति व प्रजा का स्वामी है। उसे कानून बनाने व प्रजा पर शासन करने का अधिकार है। मध्यकाल में तो यहाँ तक कहा जाने लगा था कि उसका यह अधिकार परमात्मा द्वारा प्रदत्त है- “महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।” इंग्लैंड के राजा जेम्स ने सिंहासन पर बैठने से पूर्व यह लिखा था कि राजा ईश्वरीय अधिकार से राज्य करते हैं, प्रजा को उसके विरुद्ध चूँ करने का भी अधिकार नहीं। राजा ईश्वर का प्रतिबिंब और प्रतिनिधि है। इसलिए उसके विरुद्ध विद्रोह करना पाप है। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक भी राजा की दिव्यता का यह सिद्धांत जोरों पर था। सन् 1815 में रूस, आस्ट्रिया और एशिया के सम्राटों ने अपने एक संधि-पत्र में ईश्वरीय अधिकार की घोषणा करते हुए लिखा कि हमें ईश्वर ने लोगों पर शासन करने के लिए भेजा है। भारतवर्ष तथा अन्य एशियायी देशों में भी यही परंपरा काम कर रही थी। इस पद्धति में राजा ही कोई कानून बना सकता है, किसी दूसरे देश के साथ संधि या युद्ध कर सकता है अथवा अपने
देश का कोई भाग दूसरे के हवाले कर सकता है।
विचार-क्रांति
लेकिन समय बदला। राजा को ईश्वर या देवता मानने की भावना भी बदली। फ्रांस की महान क्रांति ने राजा को समाप्त कर दिया। रूसो प्रभृति क्रांति के नेताओं ने जनता को यह बताया कि राजा और प्रजा का समझौता ही राज्य का जनक होता है। देश की जनता ही देश की स्वामिनी होती है। वह सरकार या राजा के हाथ में देश का शासन प्रबंध तब तक के लिए छोड़ती है, जब तक राजा न्यायानुकूल जनता की सुख-सुविधाओं को देखते हुए शासन- प्रबंध करता है और इसके बदले में जनता उसकी आज्ञा का पालन करती है और खर्च चलाने के लिए टैक्स देती हैं। यदि राजा अपने कर्तव्य का पालन न करे, तो जनता का यह अधिकार है कि वह उसे हटाकर दूसरा प्रबंध कर लेवे।
राजतंत्र की समाप्ति शुरू
इंग्लैंड में 17वीं सदी में राजतंत्र के विरुद्ध आंदोलन चला था और चार्ल्स का वध करके प्रजातंत्र की स्थापना कर दी गई थी। यद्यपि यह प्रजातंत्र या लोकतंत्र शासन स्थायी नहीं रहा, तथापि इसने अंग्रेज जनता में यह भावना उत्पन्न कर दी कि राजा प्रजा की अनुमति के बिना न टैक्स लगा सकता है न कोई कानून बना सकता है। फ्रांस की क्रांति से कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका भी राज्य में बिना प्रतिनिधित्व के टैक्स न देने का नारा लगाकर ब्रिटेन से स्वाधीन हो चुका था। समय की गति के साथ-साथ अन्य अनेक राष्ट्रों ने राजतंत्र को समाप्त कर लोकतंत्र की स्थापना कर दी थी।
1912 में नव चीन के निर्माता डॉ. सन्यात सेन ने राजवंश की समाप्ति कर लोकतंत्र की समाप्ति कर दी थी। 1917 में रूस के जार निकोलस की हत्या कर दी गई और वहाँ प्रजातंत्र स्थापित हो गया। जर्मन सम्राट् कैसर द्वितीय जब अपने देश से भाग गए तब वहाँ भी लोकतंत्र की स्थापना हुई। 1922 में कमाल अतातुर्क ने सुलतान को गद्दी से हटाकर दम लिया। 1931 में स्पेन के राजा अल्फैंसों को गद्दी छोड़कर भागना पड़ा। यूगोस्लेविया और ग्रीस में भी राजतंत्र समाप्त हुआ और कुछ समय बाद इटली के राजा की हटने की बारी आई। अन्य भी अनेक छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी गद्दियों से हटाए गए।
दूर क्यों जाएँ, भारत ने स्वतंत्र होते ही नए संविधान के द्वारा ब्रिटिश सम्राट् से संबंध विच्छेद करके लोकतंत्र की घोषणा कर दी और सदियों से चलते आने वाले अनेक रियासती राजवंशों को गद्दी छोड़ने के लिए विवश किया। 1954 में कर्नल नासिर ने मिश्र में से उसके राजा को गद्दी से उतारकर लोकतंत्र की स्थापना की है। अब जापान, हालैंड, इंगलैंड आदि बहुत कम देश बचे हैं, जहाँ राजतंत्र पद्धति किसी न किसी रूप में विद्यमान है, यद्यपि इन देशों में भी राजा के अधिकार नाममात्र के रह गए है।
अधिनायकवाद
वस्तुतः आज राजतंत्र का युग नहीं रहा। प्रथम महायुद्ध के बाद कुछ राष्ट्रों में लोकतंत्र के विरोध में एकतंत्रवाद की लहर चली थी। इटली, जर्मनी और रूस में क्रमशः मुसोलिनी, हिटलर तथा स्टालिन ने व्यावहारिक रूप में संपूर्ण शासन सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। इन नेताओं ने देश की जनता को, कुछ सेवा करके और कुछ बल व भय का प्रदर्शन करके इस बात पर उद्यत कर लिया कि वह उन पर विश्वास करे और उनकी आज्ञा का बिना ननु नच किए पालन करे। एक बार जब जनता ने उन पर विश्वास कर लिया, तब क्रमशः उनका अहंकार बढ़ता गया और उन्होंने अपनी इच्छाओं को राष्ट्र की इच्छा और राष्ट्र हित के रूप में प्रकट करना शुरू किया। उनसे मतभेद प्रकट करना राष्ट्रद्रोह माना जाने लगा। उनके दल या पार्टी के सिवा बाकी सब दल गैरकानूनी करार दिए गए। और उनके दल में भी नेता के प्रति अगाध अंध श्रद्धा अनिवार्य हो गई। प्रारंभ में तो उन तीनों देशों के नेताओं ने जो तब तानाशाह, अधिनायक या डिक्टेटर का रूप धारण कर चुके थे, देश हित की योजनाओं पर तेजी से चलना शुरू किया, किंतु कुछ समय बाद अधिनायक की अहंकारपूर्ण भावना ने किसी दूसरे के मतभेद को सहन न कर सकने और बल व आतंक के द्वारा स्थापित अपने नेतृत्व को अखंड रखने की अदम्य भावना ने उनको इतना मदोन्मत्त कर दिया कि देश में विचार- स्वातंत्र्य भी अपराध माना जाने लगा। हिटलर ने जर्मन रीशस्टिंग के भवन में आग लगाकर और उसका अपराध जर्मन नेताओं पर लगाकर हत्याकांड शुरू कर दिया। अपने ही 150-200 साथियों को एक साथ एक दावतघर में सैनिकों की गोलियों द्वारा भून डाला, क्योंकि उसे यह संदेह हो गया था कि कहीं वे उसकी डिक्टेटरशिप का विरोध करेंगे। स्टालिन ने जिस नृशंसता से हजारों आदमियों को मरवा डाला, उसके रहस्य अब रूसी नेताओं ने खोले हैं। डिक्टेटर किसी की सुनता नहीं, किसी की सलाह लेना नहीं चाहता और आतंक का, भय का राज्य सारे देश में स्थापित कर लेता है। इस शासन में नागरिक अपना व्यक्तित्व खोकर मशीन का एक पुर्जा भर बन जाता है। लोकतंत्र की यह भावना कि जनता देश की स्वामिनी है, डिक्टेटरशिप या अधिनायकवाद में कायम नहीं रहती। डिक्टेटर की एक भूल का परिणाम सारे देश को भुगतना पड़ता है। मुसोलिनी व हिटलर ने अपने देशों का सर्वनाश अपने हाथों करा दिया।
लोकतंत्र के विशेष तत्त्व
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र का यह अर्थ किया था – जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता पर शासन। इंगलैंड के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ मिल के शब्दों में सब लोग या अधिकांश लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा जिस देश में शासन करते हैं, उसे लोकतंत्र शासन कहते हैं। डिक्टेटरशिप में सर्वथा इसका अभाव होता है।
लोकतंत्र की स्थिरता के लिए दो-तीन आधारभूत सिद्धांत आवश्यक हैं, जिनके बिना कोई शासन लोकतन्त्री नहीं हो सकता। इनमें से पहला सिद्धांत यह कि कानून बनाने, नीति निर्धारित करने तथा बजट पास करने और कर लगाने का अधिकार जन प्रतिनिधियों को ही है। मंत्रिमंडल इनके सामने अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। जब तक मंत्रिमंडल को इनका विश्वास प्राप्त रहे, वह अपने पद पर रह सकता है। विश्वास खो देने की स्थिति में वह एक दिन भी नहीं रह सकता। इन मर्यादाओं का पालन करने से कभी मंत्रिमंडल जनता के प्रतिनिधियों – अर्थात् जनता के विरुद्ध जाने का साहस नहीं करेगा।
लोकतंत्र की स्थिरता के लिए दूसरा आवश्यक सिद्धांत यह है कि जनता को दो या अधिक पार्टियों में से अपना प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता हो, परंतु यह अधिकार तभी अक्षुण्ण रह सकता है, जब कि विभिन्न विचारों व नीतियों के समर्थकों को अपना संगठन करने, भाषण देने और लिखने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। उन पर किसी प्रकार का बंधन न हो। चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करने की स्वाधीनता भी होनी आवश्यक है।
सच्चे लोकतंत्र के लिए प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना लिंग, जाति, धर्म, आदि के चुनाव में निर्भय होकर स्वतंत्रता से वोट देने का अधिकार हो, परंतु इसके लिए आवश्यक यह है कि मत लेने का तरीका गुप्त होना चाहिए। यदि मतदान गुप्त रूप से न हुआ तो संपन्न या शक्तिशाली लोग अपने मातहत या गरीब व निर्बल नागरिकों पर दबाव डालकर किसी एक विशिष्ट व्यक्ति को ही मत देने के लिए विवश कर सकेंगे। इन तीनों सिद्धांतों का पालन करने से लोकतंत्र की रक्षा होती है।
लोकतंत्र की त्रुटियाँ
अनेक विचारकों का विचार है कि लोकतंत्र की वर्तमान पद्धति में अनेक दोष हैं। स्वयं महात्मा गांधी आज के लोकतंत्र के पूर्ण समर्थक नहीं थे। आखिर एक अशिक्षित, निपट मूर्ख या दुराचारी व्यक्ति को एक विद्वान, सदाचारी के बराबर वोट देने का अधिकार देना कहाँ तक तर्कसंगत है? बहुमत भी कभी किसी हलके-भड़कीले नारों द्वारा वश में किया जा सकता है?
60-70 वर्ष पूर्व भारत में ही मुस्लिम सांप्रदायिकता के उन्माद में बहकर मुसलमान जनता देश को खंड-खंड करने पर तैयार हो गई। प्रांतीयय भाषा का उन्माद नासमझ जनता के एक बड़े भाग को गुमराह किए रहा और आज भी कर रहा है फिर आज के चुनावों में एक बड़ा दोष यह भी है कि संगठन व प्रचार के लिए जिस दल के पास अधिक साधन होते हैं, वह चुनाव जीत जाता है। इन दोषों के होते हुए भी अब तक लोकतंत्र पद्धति से अधिक उत्तम दूसरी व्यवस्था आविष्कृत नहीं हो सकी है; इसलिए प्रायः सभी देश इसी व्यवस्था को अपनाते हैं।