संकेत बिंदु – (1) शिवरात्रि का पर्व (2) शिव-पार्वती विवाह का दिन (3) संस्कृति के समन्वयवादी रूप में शिव (4) मंदिरों की सजावट और पूजापाठ (5) आर्यसमाजियों द्वारा ऋषि बोधोत्सव रूप में मनाना।
फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को यह पर्व मनाया जाता है। निर्जल व्रत, रात्रि जागरण, चार पहरों की पूजा, दुग्ध से शिवलिंग का अभिषेक, शिव महिमा का कीर्तन इस दिन पूजा- अर्चना के मुख्य अंग हैं।
शिवरात्रि का पर्व ‘व्रतों का नरेश’ कहा जाता है। ‘शिवरात्रि व्रतं नाम सर्व पाप प्रणाशनम्’ के अनुसार शिवरात्रि व्रत सर्व पापों को नष्ट करने वाला है। इतना ही नहीं, यह व्रत व्रती को कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिंतामणि के सदृश मनोवांछित फल देने वाला है। ‘भुक्ति मुक्ति प्रदायकम्’ के अनुसार भोगों तथा मोक्ष का प्रदाता है। स्कंद पुराण के अनुसार, ‘जो मनुष्य इन तिथि को व्रत कर जागरण करता है और विधिवत् शिव की पूजा करता है, उसे फिर कभी अपनी माता का दूध नहीं पीना पड़ता, वह मुक्त हो जाता है। ज्योतिष के अनुसार अमावस्या में चंद्रमा सूर्य के समीप होता है, अतः उस समय जीवन रूपी चंद्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ संयोग होने से इप्ट सिद्धि की प्राप्ति होती है।’
शिवरात्रि शिव पार्वती के विवाह का दिन है। शिव-पार्वती के मिलन की रात है, शिव शक्ति पूर्ण समरस होने की रात है। इसलिए शिव ने पार्वती को वरदान दिया- ‘ आज शिवरात्रि के दिन जहाँ कहीं तुम्हारे साथ मेरा स्मरण होगा, वहाँ उपस्थित रहूँगा।’
डॉ. विद्यानिवास मिश्र कहते हैं, “लोग प्राय: इस उपस्थिति का मर्म नहीं समझते। सामान्य उपस्थिति सत्ता रूप में तो हर क्षण हर जगह है ही, पर भाव रूप में उपस्थिति माँग करती हैं, स्थल भावित हो, व्यक्ति भावित हो और समय भावित हो। शिवरात्रि के दिन इसी से काशी में भगवान विश्वनाथ के यहाँ तीनों प्रभूत परिमाण में भावित मिलते हैं। इतने दिनों से इतने असंख्य श्रद्धालु बाबा विश्वनाथ की शरण में भाव से भरे आते हैं, उन सबका भाव आज के दिन उच्छल नहीं होगा?”
शिव अपनी पत्नी पार्वती सहित कैलास पर वास करते हैं। उनका सारा शरीर भस्म से विभूषित हैं। पहनने-बिछाने में वे व्याघ्र चर्म का प्रयोग करते हैं। गले में सर्प और कण्ठ नरमुण्ड माला से अलंकृत हैं। उनके सिर पर जटाजूट हैं, जिसमें द्वितीया का नव-चंद्र जटित है। इसी जटा से जगत्पावनी गंगा प्रवाहित होती है। ललाट के मध्य में उनका तीसरा नेत्र है, जो अंतर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतीक है। इसी से उन्होंने काम का दहन किया था। कण्ठ उनका नीला है। एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू शोभायमान है। वे ध्यान और तपोबल से जगत् को धारण करते हैं।
सर्व विघ्ननाशक गणेश और देव सेनापति कार्तिकेय शंकर जी के दो पुत्र हैं। भूत और प्रेत इनके गण हैं। ‘नंदी’ नामक बैल इनका वाहन है। कृषि भू भारत में बैल का अनन्य स्थान है। ‘उक्षाधार पृथिवीम्’ अर्थात् समूची धरती बैल के सहारे स्थित है, कहकर वृषभ का वेद में गुणगान हुआ है।
शिव को भारतीय संस्कृति के समन्वयवादी रूप में स्मरण किया जाता है, जिनके तेज से जन्मत: विरोधी प्रकृति के शत्रु भी मित्रवत् वास करते हैं। ‘पार्वती का सिंह शिव के नंदी बैल को कुछ नहीं कहता। शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर शिव के गले में पड़े साँप को कभी छूता तक नहीं। शिव के गण वीरभद्र का कुत्ता गणेश के चूहे की ओर ताकता तक नहीं। परस्पर विरोधी भाव को छोड़कर सभी आपस में सहयोग तथा सद्भाव से रहते हैं।’
(पावन झलकियाँ : मदनलाल विरमानी, पृष्ठ 14)
शिव मंदिरों में शिव-लिंग पूजन का प्रसंग गंभीर एवं रहस्यपूर्ण है। पद्म पुराण के अनुसार ऋषियों का आराध्य देव कौन हो, इसके निश्चयार्थ ऋषिगण शिव के पास पहुँचे। शिव भोग-विलास में व्यस्त थे। अतः द्वार पर ही ऋषियों को रोक दिया गया। मिलने में विलंब होने के कारण भृगु मुनि ने शिव को शाप दिया कि तुम योनि रूप में प्रतिष्ठित हो। तब से शिव लिंग-रूप में पूजित हैं। डॉ. राजबलि पांडेय का कथन है कि ‘शिवलिंग शिव का प्रतीक है, जो उनके निश्चय ज्ञान और तेज का प्रतिनिधित्व करता है।’
(हिंदू धर्म कोश : पृष्ठ 629)
शिवरात्रि के दिन शिव मंदिरों को सजाया जाता है। बिल्व पत्र तथा पुष्पों से अलंकृत किया जाता है। शिव की अनेक मनमोहक झाँकियाँ दिखाई जाती हैं। गंगावतरण की झाँकी, शिव का प्रलयंकर रूप, शिव परिवार का दृश्य, इन झाँकियों में प्रमुख हैं। विद्युत् की चकाचौंध से झाँकियों और वातावरण को चमत्कृत किया जाता है।
हिंदू-जन महाशिवरात्रि के दिन शिव के प्रति श्रद्धा भावना व्यक्त करने के लिए उपवास रखते हैं। मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर दूध, बिल्व पत्र तथा कमल और धतूरे के पुष्प, मंदारमाला चढ़ाकर, धूप-दीप नैवेद्य अर्पित करके पूजा-अर्चना करते हैं। भजन कीर्तन में भाग लेते हैं। प्रवचन सुनते हैं। हृदय हारी झाँकियों को देखकर आत्मा को तृप्त करते हैं। मंदिरों में अपार भीड़ और धकापेल आज भी शिव के प्रति अपार श्रद्धा का ज्वलंत प्रमाण है। मंदिरों की भव्यता और आकर्षक झाँकियों के दर्शनार्थ श्रद्धालु विभिन्न मंदिरों में जाकर अपने को कृतार्थ करते हैं।
महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ के मतावलंबी महाशिवरात्रि को ‘ऋषि बोधोत्सव’ रूप में मनाते हैं। बालक मूलशंकर को शिवरात्रि के जागरण में शिवलिंग पर गणेशवाहन चूहे को देखकर बोध हुआ, ‘पुराणोक्त कैलाश-पति परमेश्वर का वास शिवलिंग में नहीं हो सकता। यदि होता तो वे मूषक को प्रतीक- स्पर्श से रोकते।’ उनमें ज्ञान का उदय हुआ। वे मूर्ति पूजा के विरुद्ध हो गए। शिवरात्रि के दिन आर्य समाजों की ओर से जलसे – सभाएँ आयोजित होते हैं। हवन-यज्ञ होते हैं। महर्षि दयानंद के महान् कार्यों पर प्रवचन, भाषण होते हैं।
शिवरात्रि पर्व भगवान शंकर की पूजा तथा भक्त की श्रद्धा और आस्था का पर्व है। पाचन प्रक्रिया के उद्धार और आत्म-शुद्धि निमित व्रत का महत्त्व है। पूजा-अर्चना से उत्पन्न मन की शांति और धैर्य का जनक है। यह पाप कृत्यों के प्रक्षालन का दिन है। भावी जीवन में कल्याण, मंगल, सुख और शक्ति प्राप्तत्यर्थ अभ्यर्थना का पावन प्रसंग है। शिव पार्वती की वंदना का महत्त्व तुलसी के इन शब्दों में देखिए-
भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धाविश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्॥
(रामचरितमानस)