आज के कुछ दशकों पहले बुद्ध – पूर्णिमा (24 मई 1956) को भारत तथा अन्य अनेक पूर्वी एशिया के देशों ने महात्मा बुद्ध का 2500वीं स्मृति दिवस मना कर भारत और विश्व की एक पवित्रतम, विशुद्धतम और उदात्ततम विभूति के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की थी। वस्तुतः महात्मा बुद्ध यद्यपि भारत में उत्पन्न हुए थे, पर वे विश्व के एक महान गौरवपूर्ण विभूति थे। उन जैसे महान मानव पर भारत ही नहीं, समस्त विश्व गर्व कर सकता है। उनकी मानवता को किसी देश या काल में सीमित नहीं किया जा सकता। उनकी मानवता तो मनुष्य की सीमा भी पार कर विश्व के प्राणिमात्र तक व्याप्त थी। महान चरित्र के महान संदेश ने जिस तरह आज से 2500 वर्ष पूर्व केवल प्रेम, शिक्षा और उपदेश के द्वारा विश्व के विशाल प्रदेशों में लोकप्रियता प्राप्त की थी, उसका उदाहरण मानव इतिहास में नहीं मिलता।
जिस समय महात्मा बुद्ध ने भारत में जन्म लिया, उस समय देश में अनेक धार्मिक व सामाजिक कुरीतियाँ व्यापक रूप से विद्यमान थीं। लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूलकर रूढ़िवाद में ग्रस्त थे। चरित्र और आचरण की किसी को चिंता नहीं थी। जात-पाँत और बाह्य आडंबर का जोर था। यज्ञ और कर्मकाण्डों का बहुत प्रचलन था, परंतु उनमें पशुओं की बलि और मांसाहार धर्म का विशेष अंग बन गया था। वस्तुतः धर्म धर्म न रहा था। उसका कंकाल मात्र रह गया था। जो दुर्दशा सामाजिक क्षेत्रों में थी, राजनैतिक क्षेत्र में भी वही हालत थी। देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। राजा परस्पर एक दूसरे से युद्ध कर अपनी राज्य-सीमा को बढ़ाने का प्रयत्न करते रहते थे। इस कारण राजवंशों में बैर-द्वेष की भावना बहुत बढ़ गई थी। ऐसे समय में भारत की पवित्र भूमि पर महात्मा बुद्ध जैसे पुण्य आत्मा का आविर्भाव हुआ।
महाराजा शुद्धोदन के यहाँ जन्म लेकर सिद्धार्थ ने बाल्यावस्था में ही अपनी विशेषताओं का प्रदर्शन शुरु कर दिया। राजवंश की सब सुख-सुविधाएँ होते हुए भी उनमें अनुराग न था। संसार के दुखों को देखकर उनसे मुक्ति की भावना विद्यार्थी जीवन में ही अंकुरित हो गई थी। युवावस्था में एक वृद्ध, एक रोगी और एक शव को देखकर तथा दूसरी ओर एक प्रसन्न साधु का भव्य चेहरा देखकर वैराग्य की भावना प्रबलतर हो गई। पिता के द्वारा डाला गया विवाह बंधन और रूपसी पत्नी का मोह भी वैराग्य की प्रदीप्त भावना को शांत नहीं कर सका। घर बार छोड़कर संसार के दुखों से बचने और सच्चा धर्म जानने के लिए उन्होंने तरह-तरह के प्रयत्न व परीक्षण किए। वर्षों की भाग-दौड़ तथा शरीर को कृश करने वाली कठोर तपस्या से भी हृदय को शांति नहीं हुई। जो वस्तु वर्षों की भाग-दौड़ से नहीं मिली, वह अंतर्दृष्टि से कुछ समय में प्राप्त हो गई। निरंजना नदी के तट पर एक पीपल के पेड़ के नीचे अनेक दिनों तक समाधि के बाद उन्हें वह प्रकाश मिल गया, जिसे तलाश करने के लिए वह घर के बाहर निकले थे।
महात्मा बुद्ध को ज्ञान
उनको यह ज्ञान हुआ कि वास्तविक धर्म शरीर को तपाने तथा यज्ञों में पशुओं की बलि देने में नहीं है, सच्चे और सदाचारमय जीवन व्यतीत करने में है। बस, इस बोध के साथ राजकुमार सिद्धार्थ बुद्ध हो गए, सचमुच ज्ञानी हो गए। उन्होंने जिस धर्म का अनुभव किया, वह धम्मपद के तीन-चार श्लोकों से प्रकट होता है। इन श्लोकों का आशय निम्नलिखित है-
“बहुत बोलने से धर्मघर नहीं होता। जो थोड़ा भी सुनकर शरीर से धर्म का आचरण करता है, और जो धर्म में असावधानी नहीं करता, वह धर्मधर है।”
“केवल सिर मुँडाने से कोई श्रमण नहीं हो सकता। जो मिथ्या बोलता है और सांसारिक लाभ की इच्छा रखता है, वह श्रमण कैसे कहला सकता है।”
श्रमण कौन है, इस प्रश्न का उत्तर महात्मा बुद्ध ने निम्नलिखित रूप में दिया है-
“जो यहाँ पाप से अलग होकर ब्रह्मचारी बन, ज्ञान के साथ लोक में विचरता है, वह भिक्षु कहा जाता है।”
“जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और नियम है, वही विगतमल, धीर और स्थविर कहा जाता है।”
उस समय क्षुद्र राजकीय संघर्षो और बैर व द्वेष-अग्नि में जलने वाले राज-परिवारों को उन्होंने संदेश दिया कि – यहाँ बैर से बैर शांत नहीं होता, अबैर से बैर शांत होता है। यही सच्चा सनातन धर्म है। वे जानते थे कि मानव के मन में प्रविष्ट पशुत्व को निकालने के लिए अहिंसा व प्रेम का प्रचार करना होगा। उन्होंने यज्ञ में पशु बलि देने का तीव्र विरोध किया, क्योंकि आत्मा, हृदय व प्राण तो पशु-पक्षी में भी हैं। मूक प्राणियों के प्रति दया भाव उनके हृदय में बाल-अवस्था से था। जब देवदत्त ने एक हंस को तीर मारकर गिरा दिया था, बुद्ध ने उसका तीर निकालकर उसकी रक्षा की थी।
चार सत्य
उस समय के जटिल कर्म-कांड तथा विविध शास्त्रों की बजाए उन्होंने धर्म का सरल स्वरूप निम्नलिखित आर्य सत्य चतुष्टय के रूप में प्रकट किया-
1 संसार में दुख है। जरा में, मृत्यु में अप्रिय के मिलने में और प्रिय के वियोग में दुख ही दुख है।
2. दुख का मूल कारण तृष्णा है। रात-दिन बनी हुई अभिलाषा ही दुखों को उत्पन्न करती है।
3. मनुष्य दुख से छूटना चाहता है।
4. दुख से छूटने का उपाय अष्टांग मार्ग है- सत्य दृष्टि, सत्य संकल्प, सत्य वचन सत्य कर्म, सत्य आजीविका, सत्य व्यायाम, सत्य स्मृति एवं सत्य समाधि।
इस तरह मिथ्या ज्ञान व जटिल हिंसापूर्ण कर्म-कांड से परेशान लोगों को महात्मा बुद्ध ने व्यावहारिक सत्य के मार्ग का उपदेश दिया। इस सरल मार्ग को राजा और प्रजा दोनों ने अपनाया। देश में फैले हुए हजारों भिक्षुओं द्वारा लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षा व सम्राट् अशोक की शस्त्रविजय छोड़कर धर्म- विजय की ओर प्रवृत्ति इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।
महात्मा बुद्ध व कर्मण्यता
महात्मा बुद्ध की अहिंसा व शांति की शिक्षाओं में अनेक विचारकों ने देश में बाद में फैले हुए अकर्मण्यता, उदासीनता तथा राजनैतिक पराधीनता के कारण तलाश करने का प्रयत्न किया है, किंतु ये आरोप निराधार हैं। अकर्मण्यता का संदेश तो देश भर को अकर्मण्य बना देता, परंतु हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध के अवसान के कुछ वर्षों बाद समस्त देश में ही बौद्ध धर्म का प्रचार नहीं हुआ; हमारे देश के भिक्षु एक ओर विशाल समुद्र के वक्ष स्थल को चीरकर सुदूरवर्ती पूर्वीय देशों और द्वीपों में बौद्ध धर्म व भारतीय संस्कृति का संदेश देने पहुँचे, दूसरी ओर महान् हिमालय की दुर्लंघ्य बरफीली गिरिमाला को पार कर तिब्बत, चीन और अफगानिस्तान में गए। यह वह महान् संदेश था, जिसे बहुत थोड़े समय में संसार के एक विशाल भाग ने जिसमें चीन, बर्मा, लंका, इंडोनेशिया, इंडोचीन और जापान सम्मिलित है, अपना लिया। यह धर्म निष्कर्मण्यता और निर्जीवता का न था, प्राणवान् और बलवान् था। बौद्ध- कालीन भारत, साहित्य व कला में ही नहीं, भौतिक दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध था। भारत के गौरवमय इतिहास की रचना इसी काल में की गई थी। नालन्दा और तक्षशिला के गौरवशाली विश्वविद्यालय अजंता की कलापूर्ण कृतियाँ, सांची व सारनाथ आदि के विशाल स्तूप. देश भर में फैला हुआ सम्राट् अशोक का विशाल समर्थ राज्य और विदेशों से आते हुए स्वर्ण-रत्नों का अजस्र प्रवाह सभी यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि महात्मा बुद्ध का संदेश जीवन में से अपवित्रता व पशुत्व को दूर कर मानव को संप्राण, बलवान और सक्रिय एवं सदाचारी बनाता था।