संकेत बिंदु – (1) ग्रीष्मावकाश की छुट्टियाँ (2) गर्मियों की दिनचर्या (3) दर्शनीय स्थलों की सैर (4) कुतुबमीनार और लालकिले के सौंदर्य के दर्शन (5) ग्रीष्मावकाश की सहपाठियों से चर्चा।
दिल्ली- प्रदेश के विद्यालयों में एक मई से 30 जून तक दो मास का ग्रीष्मावकाश होता है। सूर्य की प्रचंड किरणों, गर्म-गर्म और तेज लुओं तथा तपती हुई धरती से बच्चों की सुरक्षा और सुविधा के लिए यह अवकाश किया जाता है।
20-21 अप्रैल से स्कूल में छुट्टियों की चर्चा होने लगी थी। एक दो मित्र बार-बार शिमला और नैनीताल जाने की बात कहकर कक्षा के शेष विद्यार्थियों को चिढ़ाते थे। आठ- दस मित्र अपने गाँव के खेतों को ही नंदन-वन की उपमा देकर वहीं छुट्टियाँ बिताने की कहानी सुनाते थे। चार-पाँच सहपाठी शिक्षण-प्रवास की काल्पनिक गाथा गाते थे। मेरे जैसे गरीब विद्यार्थी अपनी विवशता को छिपाकर उल्टा रोब झाड़ते हुए कहते थे- ‘तुम्हीं धक्के खाओ जगह-जगह के, हम तो दिल्ली में ही मजे लूटेंगे।’
आखिर छुट्टियों का पहला शुभ दिन आ ही गया। मैं मन में सोचने लगा कि इस बार छुट्टियाँ इस शानदार ढंग से बिताऊँ कि अध्यापक और सहपाठी सुनकर दंग रह जाएँ।
मेरा नियमित क्रम यह था कि प्रातः उठकर शौच आदि से निवृत्त होकर दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर घूमने जाता। चार किलो मीटर पैदल जाना और आना बड़ा सुहावना लगता। ‘बाऊँटे’ की चढ़ाई और उतराई में जो मजा आता, उसे शिमला वाले भी. क्या उठाते होंगे। वहाँ प्रातः काल की शीतल एवं सुगंधित पवन का आनंद उठाता।
‘बाऊँटे’ की पहाड़ी पर चढ़कर 2-4 मिनिट विश्राम करता। फिर व्यायाम करता। यद्यपि चार किलोमीटर का चलना स्वतः एक व्यायाम है, फिर भी मेरे जैसे किशोर की तृप्ति इतने व्यायाम में नहीं होती थी। फिर मन और शरीर में थकावट के लक्षण नहीं दिखाई पड़ते थे। थोड़ी पी. टी. तथा दो-चार आसन। मन प्रसन्न। दस मिनिट बैठकर विश्राम करता और फिर वापिस घर की ओर प्रस्थान।
वहाँ से वापस आने पर खूब रगड़-रगड़कर स्नान करता। थोड़ा अल्पाहार करता और स्कूल के कार्य में लग जाता। घंटा, डेढ़ घंटा पढ़ता। इधर भोजन तैयार हो जाता। माता जी के हाथ का ताजा भोजन करता। भोजन के बाद डेढ़-दो घंटे सोता। फिर, छोटे भाई- बहनों के साथ ताश, कैरम बोर्ड आदि खेलता। चार बजे अल्पाहार करके फिर पढ़ने बैठ जाता और सायंकाल छह बजे भोजन करने के उपरांत घूमने चला जाता। घूमकर आता तो दूरदर्शन के 3-4 एपीसोड़ देखकर, समाचार सुनकर सो जाता।
आप यह न समझें कि मैं रोजाना एक ही कार्यक्रम में कोल्हू के बैल की तरह घूमता रहता। मैने यह विचार किया कि जिस दिल्ली में मैं रहता हूँ, क्या उसको मैंने अच्छी तरह देखा है? मन कहता था, नहीं। इसलिए मैंने पिताजी से आग्रह किया कि वे मुझे दिल्ली के महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थान दिखाने की कृपा करें। उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे प्रत्येक रविवार को मुझे एक दर्शनीय स्थान दिखाने ले जाते रहे।
नई दिल्ली का वह भव्य बिड़ला मंदिर, जिसे देखने न केवल भारत के ही, अपितु विदेशों के लोग भी आते हैं, मैंने अच्छी तरह देखा। उसकी दीवारें भारत के महापुरुषों के दर्शन करा रही हैं, उनका जीवन-परिचय दे रही हैं और उनकी वाणी सुनाकर उपदेश दे रही हैं। उनकी भव्य प्रतिमाएँ बरबस हमें नतमस्तक कर देती हैं। मंदिर का पहाड़ी उद्यान और झरना बारंबार खेलने को बुलाते हैं।
कैसे भूलूँ कुतुबमीनार की उन सीढ़ियों को, जिन पर चढ़ते चढ़ते पैर थक गए, पर मन नहीं थका था। आखिर पिताजी की उँगलियाँ पकड़कर चढ़ ही गया था। सच बताऊँ, ऊपर चढ़कर मुझे बड़ा डर लगा था। फिर भी मैंने एक बार नीचे का दृश्य देखा था। विचित्र अनुभूति थी वह। दूर-दूर तक फैला हुआ दिल्ली नगर एक फैले हुए नक्शे जैसा दिखाई दे रहा था, बड़े-बड़े भवन छोटी झोपड़ियों जैसे नजर आ रहे थे और दौड़ती हुई मोटरें या चलते हुए आदमी चींटियों के समान रेंगते हुए प्रतीत हो रहे थे। कुतुबमीनार के आस-पास का वातावरण कम सुहावना नहीं है। चारों ओर दूर-दूर तक फैले घास के ढके हरे- भरे मैदान मन को आनंद और शांति प्रदान कर रहे थे। कुतुबमीनार से कुछ दूर महरौली में देवी का अति प्राचीन मंदिर और भूलभुलैयाँ भी मैंने देखी।
मुगल बादशाहों का राज भवन लालकिला तो सचमुच किला है और वह भी लाल पत्थर का। अब अंदाज़ा लगाया, मुगल बादशाहों की शान-शौकत का।
जिस दिन मैं राष्ट्रपति भवन देखने गया, पैरों पर तेल की मालिश करके गया था। राष्ट्रपति भवन क्या है, किसी राजा की पूरी रियासत हैं। उसके शानदार कमरे देखे, तो होश – हवास गुम हो गए। वे बड़े आलीशान और कीमती सामान से सुसज्जित हैं।
वास्तुकला का चमत्कार आधुनिक तकनीक का करिश्मा, एशियाई खेलों का क्रीड़ांगण, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम तथा इंद्रप्रस्थ इनडोर स्टेडियम देखे। इसके अलावा जंतर-मंतर, गाँधी-समाधि, विजयघाट और संसद भवन के दर्शन भी किए।
एक ऐसा भी अवसर आया जबकि एक दिन के लिए मित्र कमलेश के बड़े भाई के विवाह में मैं दिल्ली से बाहर भी गया। विवाह के ठाठ देखे। खूब खाया पिया, किंतु पेट खराब भी किया। बरातियों की हँसी-मजाक भी सुने और नई भाभी को भी देखा।
छुट्टियाँ समाप्त हुईं। सहपाठी मिले। कोई पूछता है, मित्र कश्मीर गए थे, जो इन तपती गरमी में भी इतने मोटे हो आए हो। दूसरा कहता है, नहीं ये नैनीताल गए थे। उन्हें यह पता न था कि नियमित जीवन से स्वास्थ्य कितना बनता है।
प्रत्येक कालांश (पीरियड) में अध्यापक आकर पहला काम छुट्टियों के काम की कापियाँ देने को कहते। जो नहीं दे पाते उन्हें बैंच पर खड़ा होने का कहा जाता।
डलहौजी और मसूरी जाने वाले बैंच पर खड़े हो जाते। मैंने मध्यावकाश में उनसे पूछा, “सुनाओ, इस बार तो प्रथम आओगे न?” मित्र कुछ न पूछो, सारी छुट्टियाँ खेल-कूद और सैर-सपाटे में बिताईं। बड़ी भूल हुई। कहकर वे चुप हो गए।
यह है छुट्टियों की कहानी, बड़ी सीधी-सादी और कम खर्चीली। स्वास्थ्य भी बनाया, जिस नगर में रहता हूँ उसके दर्शनीय स्थान भी देखे, पढ़ाई की कमी पूरी की और आनंद भी लूटा।