महानगरों में कानून व्यवस्था/ बढ़ते अपराध और कानून व्यवस्था/कानून और अपराध के बढ़ते चरण

unsocial activities in the metro city in India

संकेत बिंदु-(1) असामाजिक तत्त्वों का बोलबाला (2) प्राय: कानून, न्याय दिलाने में असफल (3) प्रशासन व पुलिस की मिली भगत (4) राजनीतिक अपराध बढ़ने का कारण (5) उपसंहार।

‘कानून के हाथ लंबे होते हैं’ लेकिन बाहुबलियों का यह कहना है कि ‘कानून मेरी मुट्ठी में है, यदि देखा जाए तो दोनों वाक्यों में कितना अंतर है? यह भी समाज में एक कहावत है कि ‘हाड़े की जोरू सबकी अम्मा और झाड़े की जोरू सबकी भाभी, यह सब बातें हमें अपराध और कानून के भेद का दर्शन कराती हैं। चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार, हत्या जैसे अपराध पूरे देश में होते हैं, लेकिन महानगरों में इस प्रकार के अपराधों की संख्या विकराल रूप से नित्य प्रति बढ़ती जा रही है।

महानगरों में इस प्रकार की बढ़ती हुई घटनाओं भय का वातावरण पनपता जा रहा है। यदि महानगर दिल्ली की ही बात करें तो दिल्ली में चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, अपहरण की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं, इनके अतिरिक्त महागर दिल्ली में अब आतंकवादियों द्वारा समय-समय पर विस्फोट करना भी कानून व्यवस्था की कलई खोलती है। जैसे-जैसे विज्ञान उन्नति कर रहा है, वैसे-वैसे अपराध जगत भी हाई टेक तरीके अपनाकर आगे बढ़ रहा है।

आजकल आधुनिक चोरों, डकैतों, झपटमारों, उठाईगिरों के पास आधुनिक मोबाईल फोन, लैपटॉप, तेजगति से चलने वाली मोटर साइकिलें, कारें इत्यादि जैसी सुविधा होने के कारण अनेक प्रकार की घटनाओं को सफल बनाने में समाज के असमाजिक तत्त्वों को सहायता मिल रही है।

मनुष्य को समाज में रहकर समाज की अनेक मान्यताओं और परंपराओं का पालन करना होता है और यही सामाजिक मान्यताएँ कालांतर में कानून का रूप धारण कर लेती। इन सामाजिक वर्जनाओं और कानूनों का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य समाज के सभी वर्गों के हितों को संरक्षण प्रदान करना है। कानून के निर्माताओं से लेकर कानून पालन करने वालों तक, सभी कानून राज्य में न्याय की स्थापना ही बताते हैं। प्रायः देखा गया है कि कानून कभी-कभी न्याय दिला पाने में असफल प्रतीत होता है, क्योंकि कानून तो तर्क और सबूतों को आधार मानता है। हम सभी जानते हैं कि कोई भी कानून अंतिम नहीं होता, इसीलिए संविधान और कानून में फेर-बदल का संशोधन होना अनिवार्य भी बताया गया है। इसीलिए कहा गया है कि-

नगरों में कानून की, उड़ें धज्जियाँ रोज।

मानवता है खिसकती, अपराधी को मौज॥

‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ आज अपराधी इतना आधुनिक हो गया है कि वह कानून को तोड़ने या मरोड़ने की कला सीख चुका है। अपराधी इस ताक में सदा रहता है कि किस स्थान पर, किस समय पर घटना को अंजाम दिया जाए और वह अपनी योजना में सफल भी हो जाता है। अपराध की दुनिया तो कानून की दुनिया से बहुत बड़ी है। छोटे-छोटे और महिलाओं द्वारा अपराध करवाने वाले गिरोह भी महानगर में सक्रिय हैं।

महानगरों के गली-मुहल्ले में पुलिस की गश्त या तो होती नहीं, अगर होती भी है वे केवल खानापूर्ति के लिए। महानगरों के पार्कों में जहाँ असामाजिक तत्त्वों का जमावड़ा रहता है क्या पुलिस को इसकी जानकारी नहीं होती? शाम के समय युवा लड़के-लड़कियाँ पार्कों में या सार्वजनिक स्थानों में अश्लीलता की गन्दगी फैलाते हैं, क्या पुलिस इन बातों से अनभिज्ञ है? सरेआम सड़कों पर झपटमारी की घटनाएँ होती हैं, क्या पुलिस को इसकी जानकारी नहीं होती? यदि पुलिस अपने कर्त्तव्य का सही पालन करने लगे तो यह दावा है कि महानगरों में अपराध बढ़ने के बजाय घटने लगेंगे, मगर ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि हर अपराधी की पुलिस में पूरी पैठ और चोरी, लूट या अन्य किसी भी अपराध का हिस्सा उस क्षेत्र के पुलिसकर्मी के पास ईमानदारी से पहुँच जाता है और अपराध फलता-फूलता है। एक पॉकेट मार की प्रार्थना की पंक्तियाँ-

ऊपर वाले तेरी दुनिया में, न जेब किसी की खाली मिले।

हर पॉकेट में ही बटुआ मिले, हर बटुए में हरियाली मिले॥

पॉकेट मार जब पॉकेट मारने जाता है तो इसकी जानकारी पुलिस के सिपाही को होती है, क्योंकि पॉकेटमारी के अपराध का पुलिसकर्मी भी घर बैठे भागीदार होता है और यही कारण है कि कानून के होते हुए भी अपराध बढ़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे देश का कानून अंग्रेजों द्वारा बनाया गया है। भारत के नेताओं ने कुर्सी के नशे में आकर कानून की ओर कभी ध्यान नहीं दिया, यदि कानून की ओर हमारे देश की सरकार ने ध्यान दिया होता तो अपराध इतने नहीं बढ़ते।

जब रिश्वत जैसे अपराध से बचने के लिए रिश्वत देकर छूट जाने का विधान हमारे कानून के रखवालों ने स्वयं बना लिया है, तो फिर महानगर में अपराधों का बढ़ना तो निश्चित है। यह भी माना जाता है कि हत्या के रेट, बलात्कार के रेट, चोरी-डकैती, झपटमारी के रेट अर्थात् हर अपराध के लिए अलग-अलग अपराधियों द्वारा कानून के रक्षक पुलिस वालों से तय किए जाते हैं। कल्पना की जा सकती है कि जब कानून की वर्दी ही अपराध का संरक्षण करे तो भला फिर वह अपराध कम क्यों होने लगेंगे? कवि मनोहरलाल ‘रत्नम्’ की चार पंक्तियाँ कानून व्यवस्था और अपराधों पर थोड़ा-सा प्रकाश डालती हैं-

आज नगर में शोर मचा है, आपाधापी कैसी आई,

भय से ही भयभीत है नारी, अनाचार की बाढ़ है आई।

मानव डाँवाडोल हो रहा, देखो ‘रत्नम्’ अपराधों का-

नुक्कड़ पर कानून खड़ा है, फिर भी बात न बनने पाई॥

कानून केवल तमाशा देखता है और अपराध रोज मुँह उठाकर बढ़ जाते हैं, नेता हमारे देश के घोटालों और दलाली में व्यस्त हैं, यदि ऐसा नहीं है तो इतनी सुरक्षा और चौकसी के रहते संसद भवन पर हमला होना क्या अपराध को बढ़ावा नहीं है, क्या किया हमारे कानून और संविधान ने इस दिशा में कि अपराध बढ़ने न पाये? दीपावली पर महानगर दिल्ली में भीड़े भरे क्षेत्र में बम विस्फोट, क्या यह अपराध नहीं है? वैसे हम अपने उपग्रह से हर बात की खबर रखने की बात करते हैं, कहाँ गई हमारी गुप्तचर सेवा? पुलिस अपराध क्यों बढ़ने देती है? जब पुलिसकर्मी को वेतन सरकार से मिलता है तो अपराधी से फिर धन मिलने का लालच क्यों? यदि इस प्रकार के ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर खोज लिया जाएगा तो महानगर तो क्या समूचे देश से अपराध समाप्त हो जाएगा।

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