(1) प्रस्तावना – मनोरंजन की आवश्यकता,
(2) समय के साथ-साथ मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन,
(3) रेडियो,
(4) सिनेमा,
(5) सर्कस और कार्नीवाल,
(6) शतरंज ताश आदि घर के भीतर खेले जाने वाले खेल (Indoor
games),
(7) क्रिकेट, हॉकी आदि मैदान के खेल (Outdoor games),
(8) उपन्यास, कहानी और कविता
(6) मेले, तमाशे आदि;
(10) पार्क, उद्यानादि की सैर,
(11) उपसंहार – सारांश
मानव-जीवन के दो पहलू हैं और हमारी आवश्यकताएँ भी दो प्रकार की होती हैं – एक शारीरिक अथवा बाह्य जीवन की; और दूसरी मानसिक अथवा आंतरिक जीवन की। जब हमारे बाह्य जीवन की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं, जब हम दिन-भर के परिश्रम से उकता जाते हैं, तब हमारे मन को भूख लगती है, तब हम मनोरंजन के साधन ढूँढ़ते हैं। हममें से कोई शतरंज से मन बहलाता है, तो कोई ताशों से। कोई क्रिकेट खेलता है, तो कोई टैनिस। कोई हारमोनियम पर राग अलापता है, तो कोई ग्रामोफोन सुनता है। कोई सिनेमा हाल की ओर पदार्पण करता है, तो कोई रेडियो से अपना मनोरंजन करता है। कोई नृत्य से मन की भूख मिटाता है, तो कोई वनस्थली में प्राकृतिक सौंदर्य देखकर। कोई पशु-पक्षियों से खेलता है, तो कोई आराम-कुर्सी पर लेटकर उपन्यास कहानी पढ़कर दिल बहलाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि छोटे-बड़े, धनी-निर्धन, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी-सभी जीवधारी कुछ- न कुछ समय मनोरंजन के लिए अवश्य देते हैं।
समय के साथ-साथ जैसे हमारी रुचि में परिवर्तन होता गया है वैसे ही हमारे मनोरंजन के साधन भी बदलते गए हैं। एक समय था जब कठपुतली का नाच हमारा मनोरंजन करता था, पर आज नहीं करता। एक समय था जब नाटक हमारे मन को खूब बहलाते थे, पर आज उतना नहीं बहलाते। एक समय था जब बाजीगर का खेल हमें बहुत प्यारा लगता था आज उतना प्यारा नहीं लगता। आज से सौ वर्ष पूर्व जो मनोरंजन के साधन थे वे प्रायः अब नहीं रह गए हैं। विज्ञान ने इस क्षेत्र में उलट-पुलट कर दी है। रेडियो और सिनेमा का, जो आधुनिक काल के मनोविनोद के प्रधान साधन बने हुए हैं, प्राचीन काल में कोई नाम भी नहीं जानता था।
रेडियो एक यंत्र है जिसके द्वारा कितनी ही दूर की ध्वनि सुनी जा सकती है। इसका उपयोग समाचार और संगीत प्रसारित करने के लिए किया जाता है। किसी बड़े नगर में रेडियो का स्टेशन होता है, जहाँ से समाचार अथवा संगीत प्रसारित किया जाता है। इस यंत्र द्वारा संसार के अच्छे से अच्छे गायक का गायन घर पर बैठे सुना जा सकता है। इसके अभाव में अच्छे-अच्छे गायकों का गाना सुनने के लिए लोगों को इधर-उधर जाना पड़ता था, अब वे अपनी गायन क्षुधा की निवृत्ति घर पर ही कर सकते हैं। रेडियो वाले के लिए मानो संसार के विख्यात गवैए द्वार पर खड़े रहते हैं। परन्तु यह मनोरंजन का साधन केवल धनिकों को उपलब्ध है। दरिद्र इसके आनंद से वंचित रहते हैं। उन बेचारों के पास इतना रुपया कहाँ कि वे रेडियो खरीद कर उससे अपना मनोविनोद कर सकें। हाँ, यदि किसी लक्ष्मी के लाल की कोठी में रेडियो बज रहा हो तो बाहर खड़े होकर उन्हें भले ही उसका आनंद मिल जाए।
रेडियो के अतिरिक्त ग्रामोफोन, हारमोनियम, बाँसुरी आदि वाद्य यंत्र भी आमोद प्रमोद के साधन हैं।

रेडियो से भी बढ़कर मनोरंजन का साधन टेलीविजन है, जो विज्ञान का नवीनतम आविष्कार है। रेडियो हमारी कर्णेन्द्रिय को ही तृप्त करता है, टेलीविजन नेत्रेन्द्रिय को भी तृप्त कर सकेगा। इसके द्वारा नेत्रों को सुंदर से सुंदर दृश्य, मनोहर से मनोहर रूप, भव्य से भव्य नृत्य, अभिराम से अभिराम छटा देखने को मिलेगी और धनवानों के लिए घर पर ही सिनेमा के आनंद की योजना हो जाएगी।
पर दिन भर की थकान मिटाने के लिए, सिनेमा से सुलभ और सस्ता मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। गरीब जन-समाज के लिए सिनेमा विज्ञान की अमूल्य भेंट है। इसमें पुरुष स्त्रियों के चलते- फिरते चित्रों द्वारा कोई कहानी दर्शकों को दिखलाई जाती है। नाटक से इसमें यह भिन्नता है कि इसमें अभिनेता-अभिनेत्रियों के चित्र रहते हैं और नाटक में साक्षात् अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ रहती हैं। पहले सिनेमा में मूक चित्र होते थे। अब यह कमी दूर हो गई है और चित्रों में वाणी का संचार हो गया है। यही नहीं, अब तो रंगीन चित्र भी बनने लगे हैं। प्राकृतिक दृश्यों के वास्तविक रंग व चित्रपट पर देखे जाने लगे हैं। बसन्त की बहार, ऊषा की लालिमा, पुष्षों की रंगविरंगी छटा और अभिनेत्रियों के शरीर का गुलाबी रंग देखकर दर्शक मन्त्र-मुग्ध हो जाता है। वस्तुतः दृश्य- विभाग और संगीत सिनेमा के प्राण हैं। जब दर्शक प्रकृति के सुंदर दृश्य के बीच किसी अभिनेत्री अथवा अभिनेता को गाते हुए देखता है तो उसके हृदय की कली कली खिल जाती है। क्षणभर के लिए वह अपने को भूल जाता है। निस्सन्देह आधुनिक काल में सिनेमा मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन है। बलिहारी है विज्ञान की जिसने जन-साधारण के लिए सिनेमा जैसा सुलभ मनोरंजन का साधन प्रस्तुत किया।
सरकस और कॉर्नीवाल भी सर्व साधारण का मनोरंजन करते हैं। विचित्र और रोचक बातों को देखकर दर्शक का मन प्रसन्न होता है। मोटर साइकिल का गोले में दौड़ना, बन्दर का साइकिल चलाना, तार पर साइकिल चलाना, भागते हुए घोड़े पर शीर्षासन लगाना, सिंह और बकरे का एक-साथ पानी पीना आदि दृश्य मनोविनोद की सामग्री जुटाते हैं। इसके साथ साथ लॉटरी मिलने की अभिलाषा तथा मिलने पर प्राप्त आनंद मनोरंजन को दुगना कर देते हैं। यह मानव-स्वभाव की विशेषता है कि आश्चर्यजनक वस्तुएँ उसे आनंद देती हैं। जब हम बाजीगर के चकित करने वाले खेलों को देखते हैं तब खेल के स्थान को छोड़ने की इच्छा नहीं होती। हमारा मन वहीं रम जाता है। इसी प्रकार सरकस और कॉर्नीवाल हमें अचम्भित करके प्रसन्न करते हैं।
शतरंज, ताश, चौपड़ आदि घर के भीतर खेले जाने वाले खेल (Indoor games) भी आजकल मन बहलाव के अच्छे साधन हैं। यह देखा गया है कि शतरंज के खिलाड़ी खेल में इतने मस्त हो जाते हैं कि भोजन, निद्रा और काम-काज को भी भूल जाते हैं। स्वर्गीय प्रेमचंद्रजी ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक कहानी में बतलाया है कि शतरंज के खेल में मस्त होकर दो व्यक्तियों ने सब भुला दिया और बातों-बातों में ही झगड़कर एक-दूसरे के प्राण ले लिए। ताश और चौपड़ भी अच्छे खेल हैं, पर यह शतरंज की समानता नहीं कर सकते। यदि शतरंज रानी है तो ताश और चौपड़ उसके दास और दासी हैं। बैंडमिंटन, पिंगपोंग आदि कई अँगरेजी खेल भी बहुत रोचक होते हैं।
क्रिकेट, हॉकी, फुटबल, वॉलीबॉल, टैनिस इत्यादि मैदान के खेल (Outdoor games) भी मनोरंजन करते हैं और कॉलेज के विद्यार्थियों को प्रायः ये ही खेल खिलाए जाते हैं। विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार व्यायाम तथा मनोरंजन के लिए इन्हीं में से कोई- सा चुन लेता है। खेलने वालों को तो यह खेल आनंद देते ही हैं, दर्शकों का भी इनसे मनोविनोद होता है। जब कभी मैच होता है तब सैकड़ों दर्शक उसे देखने के लिए एकत्र हो जाते हैं। बीच- बीच में वे अपने हर्ष को करतल ध्वनि द्वारा प्रकट करते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि मनोरंजन के अन्य साधनों से यह खेल इसलिए अच्छे कहे जा सकते हैं कि इनसे दो कार्य सिद्ध होते हैं- शारीरिक व्यायाम होता है और मनोविनोद भी।
उपन्यास और कहानी, साहित्य के ये अङ्ग भी मनोरंनज की सामग्री जुटाते हैं। आजकल इनकी बहुत भरमार देखी जाती है। प्रतिमास अनेक नए-नए उपन्यास निकलते हैं और हाथोंहाथ विक जाते हैं। यही दशा कहानियों की है। भारतवर्ष में मनुष्य को बचपन से कहानी के प्रति प्रेम हो जाता है। बालक को उसकी माता, दादी, नानी आदि स्त्रियाँ कहानी सुनाया करती हैं। यही प्रेस बड़े होने पर बना रहता है। मनुष्य समाचार-पत्रों, मासिक पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में कहानियाँ पढ़कर अपने इस प्रेम को तृप्त करता है। आजकल पत्र – पत्रकाएँ कहानियों से बे-तरह भरी रहती हैं। कविता से भी मनोरंजन होता है। आजकल कवि सम्मे- लनों की खूब धूम रहती है।
मेले और तमाशे भी मनोरंजन के अच्छे छोटे से छोटा मेला होगा अनेक दर्शक उसे साधन हैं। कहीं भी देखने पहुँच जाएँगे। क्यों ? इसलिए कि वहाँ नई-नई वस्तुएँ देखने को मिलेंगी जिनसे मन बहलेगा। बाजीगर, रोछ, बन्दर, नट आदि के तमाशे जन- साधारण को पर्याप्त आमोद-प्रमोद देते हैं। पशु पक्षियों का संग्रह भी मन को प्रसन्न करता है।
पार्क, उद्यानादि की प्राकृतिक छटा से भी हमारा मनोरंजन होता है। जब हम रंग-बिरंगे पुष्पों को देखते हैं, जब हम मखमल सी मुलायम हरी-भरी दूब पर मोती सी झलकती हुई ओस की बूंद देखते हैं, जब हम कुब्जों में चहचहाती हुई चिड़ियों का मधुर स्वर सुनते हैं, जब हम शीतल- मन्द सुगंधित पवन द्वारा आंदोलित लताओं की वृक्षों के साथ अठखेलियाँ देखते हैं तब हम आनंद- सागर में निमग्न हो जाते हैं।
सारांश यह है कि आधुनिक काल में हमें मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं और विज्ञान इन साधनों में निरन्तर वृद्धि करता जा रहा है। मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उनमें से कुछ चुन लेते हैं, जिनसे उनके जीवन में मिठास आ जाता है। यदि किसी व्यक्ति के पास कोई मनोरंजनकारी वस्तु अथवा सामग्री न हो तो उसका जीवन-भारस्वरूप हो जाय, उसका जीवन कटु हो जाय इसमें सन्देह नहीं। मनोरंजन के साधन जीवन-यात्रा के लिए सम्बलस्वरूप हैं।