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विद्यालय में मेरा पहला दिन

mera skul me pahala din par ek shandaar nibandh hindi me

संकेत बिंदु – (1) नए विद्यालय में प्रवेश (2) मध्यावकाश से पूर्व का समय (3) हिंदी – अध्यापिका से परिचय (4) अंतिम कालांश की अध्यापिका से बात (5) विभिन्न भाषाओं को पत्र-पत्रिकाएँ।

पिताजी का स्थानांतरण भोपाल से दिल्ली हुआ था तो समस्त परिवार पिताजी के साथ ही दिल्ली स्थानांतरित हो गया। पिता जी को सरकारी बंगला प्राप्त था, इसलिए आवास की कोई समस्या उत्पन्न न हुई। ग्रीष्मावकाश समाप्त होने के बाद केंद्रीय विद्यालय में मुझे प्रवेश भी सहज ही मिल गया।

मैं आत्म-विश्वासपूर्वक कक्षा में प्रविष्ट हुआ और एक खाली डैस्क पर पुस्तकें रखकर प्रार्थना स्थल की ओर चल पड़ा। मुझे यह तो पता था कि प्रार्थना में पंक्तियाँ कक्षानुसार बनती हैं, पर मेरी कक्षा की कौन-सी पंक्ति है, यह जानकारी मुझे न थी, इसलिए मैं अपनी ही कक्षा के एक छात्र के पीछे-पीछे जाकर पंक्ति में खड़ा हो गया।

प्रार्थना के पश्चात् विद्यार्थी अपनी-अपनी श्रेणियों में गए। मैं भी कक्षा में जाकर अपने स्थान पर बैठ गया। प्रथम पीरियड शुरू हुआ। अंग्रेजी के अध्यापक आए। ’क्लास स्टैंड’ हुई, बैठी। अंग्रेजी अध्यापक ने ग्रीष्मावकाश के काम के बारे में जानकारी ली। एक विद्यार्थी को कापियाँ इकट्ठी करने के लिए कहा। जब वह विद्यार्थी मेरे पास आया तो मैंने हाथ हिला दिया। उसने वहीं से कहा, ‘सर, यह कापी नहीं दे रहा है।’ शिक्षक ने डाँटते हुए पूछा तो मैंने बताया कि ‘मैं आज ही विद्यालय में प्रविष्ट हुआ हूँ, इसलिए मुझे काम का पता नहीं था।’

इंग्लिश – सर का गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। तब प्यार से पूछा, ‘पहले कहाँ पढ़ते थे?’ मैंने बताया कि मैं केंद्रीय विद्यालय, भोपाल का छात्र हूँ। पिताजी की बदली होने के कारण दिल्ली आया हूँ।

इसी प्रकार चार पीरियड समाप्त हुए। अर्धावकाश हुआ। मैंने जान-बूझकर अपनी साथ वाले स्थान पर बैठे छात्र को चाय का निमंत्रण दे डाला। वह तैयार हो गया। दोनों ‘स्कूल कैंटीन’ की ओर चले। रास्ते में परिचय हुआ। पता लगा, वह हमारे ही आवास- परिसर में रहता है। उसी से पता चला कि तीन अन्य सहपाठी भी उसी परिसर से आते हैं।

भाग्य की बात, चाय के स्टाल पर वे तीनों भी मिल गए। हम पाँच जनों ने चाय पी। गपशप की। एक-दूसरे के बारे में जानकारी ली। निश्चय किया कि कल से पाँचों स्कूल इकट्ठे आया करेंगे। चाय के दस रुपये मैंने दिए। दस रुपयों में पाँच साथी मिल गए तो मुझे लगा सौदा सस्ता है। बड़ा सुखद रहा मध्यान्तर।

घंटी बजी। कक्षाएँ पुनः आरंभ हुईं। पहला पीरियड था हिंदी अध्यापिका का। वे बड़ी काइयाँ थीं। प्रथम दृष्टि में ही उन्होंने मुझे ताड़ लिया। व्यंग्य से पूछा- कौन हो तुम वसंत के दूत?’ मैं दो क्षण चुप रहा। अध्यापिका को लगा कि यह मूढ भट्टाचार्य कहाँ से टपक पड़ा? उन्होंने फिर प्रश्न दोहराया तो मैंने उत्तर दिया- मैं हूँ – ‘घन में तिमिर चपला की रेख, तपन में शीतल मंद बयार।’ अध्यापिका की आँखें फटी की फटी रह गईं। वे उठीं और मेरे पास आईं। उन्होंने मेरा सिर वक्ष से लगाया। चुंबन लिया। आशीष दी। अपनी कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अन्य छात्रों को बताया कि आज तुम्हारी कक्षा में एक अत्यंत गुणी, चतुर, प्रत्युत्पन्नमति और अध्ययनशील विद्यार्थी ने प्रवेश किया है।

कक्षा में प्राय: प्रथम आने वाले एक अन्य चतुर छात्र से न रहा गया। उसे लगा कि कोई उसको चुनौती देने वाला पैदा हो गया है। उसने खड़े होकर अध्यापिका से पूछ लिया ‘इसके उत्तर में क्या विशेषता थी?’ अध्यापिका ने कहा, ‘चावल पकाए जा रहे हों तो पतीली में से दो-चार चावलों को उठाकर देखा जाता है कि पके हैं या नहीं? मैंने वैसे ही मस्ती की मन:स्थिति में ‘प्रसाद’ की ‘कामायनी’ की पंक्ति से पूछ लिया था कि तुम कौन हो? इसने कामायनी के इसी पद की शेष पंक्तियों में उत्तर दे दिया। लगता है, इसे कामायनी कंठस्थ है। फिर उत्तर भी लाजवाब – ‘अंधकार में बिजली और गर्मी की तपन में ठंडी हवा के समान मैं हूँ।’ बस, क्या था, कक्षा पर मेरी विद्वत्ता की छाप पड़ गई। मुझे लगा, विद्यालय में पहले ही दिन का मेरा प्रवेश सफल हो गया।

यथासमय घंटी बजती रही। पीरियड बदलते रहे। शिक्षक आते-जाते रहे। अंतिम पीरियड आ गया। अध्यापिका आईं। स्थूल शरीर था उनका टुनटुन की चर्बी भी शायद इन्होंने चुरा ली थी। आँखें ऐसी मोटी और डरावनी कि डाँट मारे तो छात्र – छात्राएँ काँप उठें। सुंदर इतनी कि रेखा और माधुरी भी लज्जित हो जाएँ। वे आईं। क्लास का ‘स्टैंड’, ‘सिट डाउन’ हुआ। उन्होंने पहला प्रश्न किया, ‘कौन है वह लड़का जो आज ही कक्षा में आया है?’ आते ही पहला वार मुझ पर। मैं मौन भाव से खड़ा हो गया। क्या नाम है? कहाँ रहते हो? माता कहाँ की रहने वाली हैं? पिता किस पद पर हैं? आदि-आदि। मैं प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अर्ध-मुस्कान से देता रहा। जब पिता का पद सुना तो लगा जैसे भयंकर भूचाल आ गया हो। वे काँप सी गईं। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई। पसीना छूटने लगा; पर वे जल्दी ही सहज हो गईं और अध्यापन में प्रवृत्त हो गईं। घंटी बजी। वह इस बात का संकेत थी कि अब अपने-अपने घर जाओ।

मैं अपने चारों साथियों से उन स्थूलांगी अध्यापिका की बातें करते विद्यालय के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहा था कि उन्हें ही सामने खड़ी पाया। उनका पुनः दर्शन करके मैं कुछ घबरा – सा गया। उन्होंने इशारे से जब मुझे बुलाया तो लगा शेर ने बकरी को पास बुलाया हो। उन्होंने केवल इतना ही कहा, ‘अपने पिताजी को मेरा नमस्कार कहना।’

विद्यालय से घर लौटा। मन प्रसन्न था। अपनी प्रतिभा का प्रथम प्रभाव अध्यापकों और सहपाठियों पर डाल चुका था। पर ‘टुनटुन’ की ‘पिताजी को नमस्ते’ मेरे हृदय को कचोट रही थी। सायंकाल पिताजी कार्यालय से लौटे। बातचीत में मेरे प्रथम दिन की कहानी पूछी तो मैंने सोल्लास सुना दी और डरते-डरते अध्यापिका का ‘नमस्कार’ भी दे दिया। पिताजी हँस पड़े, हँसते ही रहे ! बाद में शांत हुए तो बताया कि वे मेरे साथ पढ़ती थीं और हम दोनों एक ही मौहल्ले में रहते थे।

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