संकेत बिंदु – (1) प्रातः काल का नियम (2) व्यायाम और सैर (3) विद्यालय के लिए प्रस्थान (4) दोपहर के क्रियाकलाप (5) नियमितता और दक्षता।
प्रातः काल उठने से लेकर रात्रि में निद्रा की गोद में खो जाने तक के दैनिक कार्यव्यवहार को दिनचर्या कहते हैं। दूसरे शब्दों में, नित्य प्रति किए जाने वाले संपूर्ण कार्य-व्यवहार दिनचर्या कहलाते हैं। मेरे दैनन्दिन कार्यों का विवरण इस प्रकार है-
मैं एक विद्यार्थी हूँ। मेरी दिनचर्या मेरे विद्यालय पर निर्भर है, यह मेरी विवशता है, पर इस विवशता में खिन्नता नहीं है। उसी में आनंद और उत्साह लेने की मेरी प्रवृत्ति है। प्रातः 7.30 बजे मेरी पाठशाला प्रारंभ होती है। इसलिए मैं प्रात: 5 बजे उठता हूँ। शैया पर बैठकर दो मिनट के लिए परमपिता परमात्मा का ध्यान करता हूँ। पृथ्वी की तीन बार वंदना करते हुए पृथ्वी माता से उस पर अपने चरण रखने के लिए क्षमा माँगता हूँ-
दोनों हथेलियों का दर्शन करते हुए श्लोक बोलता हूँ-
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
कर मूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्॥
समुद्र वसने देवी पर्वतस्तन मंडले।
विष्णु पत्नि, नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥
तदंतर उठकर मुँह-हाथ धोया। एक गिलास स्वच्छ जल पीया और 5-7 मिनट घर के प्रांगण में टहल लिया। तत्पश्चात् शौच गया। दाँतों को ब्रुश करके स्नान किया। प्रभुप्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणत हुआ। निकल पड़ा प्रातः कालीन व्यायाम को।
घर के समीप ही उपवन है। घास का हरा-भरा मैदान और विभिन्न प्रकार के खिले फूल प्रातः कालीन सैलानियों का अपनी मुस्कराहट से स्वागत करते हैं। थोड़ी दौड़, थोड़ी पी. टी. और दो-तीन आसन करना मेरा दैनिक व्यायाम है। व्यायाम करने के उपरांत पंद्रह मिनिट बाग की हरी हरी घास पर बैठकर विश्राम करता हूँ।
घर लौटा, कलेवा किया। विद्यालय के कालांश (पीरियड) के अनुसार बस्ता तैयार किया। जूतों को बुरुश किया। साइकिल पर बस्ता रखा और चल पड़ा विद्यालय के लिए। निर्धारित समय से पाँच मिनट पूर्व विद्यालय पहुँचना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इस कर्तव्य – पूर्ति के प्रति गर्व का भी अनुभव करता हूँ।
1 बजकर 40 मिनट पर विद्यालय का अवकाश होता है। छुट्टी की घंटी बजने पर हम सब विद्यार्थी ऐसे प्रसन्न होते हैं, मानों जेल से छूट रहे हों।
घर लौटकर अपने बस्ते को यथास्थान रखता हूँ। विद्यालय के वेश को उतार कर हैंगर पर टाँगता हूँ। घरेलू वस्त्र पहनता हूँ। हाथ-मुँह धोकर भोजन के लिए तैयार हो जाता हूँ। भोजनोपरांत विश्राम करता हूँ।
लगभग साढ़े तीन बजे उठता हूँ। मुँह-हाथ धोता हूँ और पढ़ने की मेज पर बैठ जाता हूँ। इस समय, विद्यालय से मिले ‘गृह-कार्य’ को करता हूँ। साथ ही विद्यालय में पढ़ाए गए पाठों की आवृत्ति भी करता हूँ। पढ़ने की मेज पर ही साढ़े चार बजे माताजी दूध और बिस्कुट दे जाती हैं।
लगभग सायं 5.30 बजे पढ़ाई बंद कर देता हूँ। सायंकाल का समय खेलने के लिए निश्चित है। अतः विद्यालय के ‘प्ले ग्राउंड’ में जाता हूँ। हॉकी मेरा प्रिय खेल है। अतः एक घंटा साथियों के साथ ‘खेल भावना’ से हॉकी खेलता हूँ। खेल समाप्ति पर सब साथी मिलकर 15-20 मिनट कुछ मतलब की बात करते हैं, कुछ गप्पें हाँकते हैं।
रात्रि आठ बजे के लगभग घर लौटता हूँ। हाथ-मुँह धोकर टी. वी. के आगे बैठ जाता हूँ। इधर टी. वी. देखता हूँ, उधर गरम भोजन आ जाता है 08.30 के समाचार सुनकर प्रतिदिन के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटना चक्र से अपने को भिज्ञ रखता हूँ। 9 बजे से 9-30 बजे तक के प्रायोजित कार्यक्रम का आनंद लूटता हूँ।
साढ़े नौ बजे के बाद मुझे जागना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि मेरी प्रिय शैया मेरी प्रतीक्षा कर रही होती है। अतः चारपाई पर बैठकर दो मिनट अपनी दिनचर्या का सिंहावलोकन किया, दिन के भले या बुरे कार्यों का चिंतन किया और लेट गया। लेटने के पश्चात् आँखों में ‘लकोला – 10’ दवाई डालना नहीं भूलता।
यह है मेरी नित्य की दिनचर्या। इसमें नियमितता है। नियमितता में स्फूर्ति है, दक्षता है और है तेजस्विता। नियमित व्यायाम और विश्राम से मेरा स्वास्थ्य ठीक रहता है और नियमित अध्ययन में पढ़ाई की निपुणता बनी रहती है।
रविवार और विद्यालय अवकाश दिवस को मेरी उक्त दिनचर्या में परिवर्तन एक शाश्वत नियम है। उक्त दिनचर्या में बदलाव आता है। उन दिनों कुछ नए उत्साह, उल्लास और उमंग के कार्यक्रम प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार मैं कोल्हू का बैल भी नहीं बनता और जीवन में समरस भी रहता हूँ।