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मेरी पहली रेलयात्रा

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संकेत बिंदु – (1) रेलयात्रा की जिज्ञासा (2) रेलवे स्टेशन का दृश्य (3) यात्रा प्रारंभ (4) रेल के अंदर के रोचक प्रसंग (5) रोचक और ज्ञानवर्धक यात्रा का अंत।

मेरी चौदह वर्ष की अवस्था हो गई थी, किंतु अब तक मुझे कभी दिल्ली से बाहर किसी और शहर में जाने का अवसर नहीं मिला था। इसलिए मैं अब तक रेलयात्रा नहीं कर सका था। कुछ दिन पहले मैं अपने साथियों के साथ बालभवन देखने गया था। वहाँ छोटी-सी रेलगाड़ी को देखकर और उसमें बैठकर सैर करके मुझे बहुत आनंद आया।

मैं सोचने लगा कि असली रेलगाड़ी में यात्रा करते हुए अधिक आनंद आएगा। मेरे मन में रेलयात्रा की इच्छा बढ़ती ही रही।

कुछ ही दिनों बाद एक ऐसा अवसर आ गया, जिससे मुझे रेलयात्रा का सु-अवसर मिल गया। मेरे पिताजी के घनिष्ठ मित्र श्री यशपाल ने अंबाला छावनी से सूचना दी कि उनकी पुत्री का विवाह है। इस अवसर पर मेरे पिताजी का वहाँ जाना अनिवार्य था। जब वे अंबाला जाने का कार्यक्रम बनाने लगे, तो मेरी रेलयात्रा की इच्छा जागृत हो उठी। मैंने पिता जी से कहा, ‘मैं भी जाऊँगा, बहिनजी की शादी में।’ पहले तो उन्होंने मुझे डाँटा, किंतु मैं जाने की रट लगाता रहा। बाल हठ के आगे भगवान भी झुक जाते हैं। आखिर पिताजी भी मुझे साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बारह बजकर दस मिनट पर ‘फ्लाइंग मेल’ चलती है। हम पौने बारह बजे ही स्टेशन पहुँच गए थे। पिताजी ने टिकट घर से टिकट लिए और गाड़ी की ओर चल दिए। गाड़ी के विशाल विस्तृत चबूतरे को देखकर जिज्ञासा प्रकट की तो पिताजी ने समझाया – यह विशालकाय लौहपथगामिनी के ठहरने, विश्राम करने, दाना पानी लेने तथा अपने भार को हलका करने और नया भार लेने के लिए निश्चित स्थान है। गाड़ी पर यात्रियों के चढ़ने और उतरने के लिए यह चबूतरा या मंच है। इसे रेलवे की भाषा में ‘प्लेटफार्म’ कहते हैं।

यात्रियों की सुविधा के लिए प्लेटफार्म पर सार्वजनिक नल होता है, क्षुधाशांति के लिए जलपान की रेहड़ियाँ होती हैं। ज्ञानवर्धन और मानसिक भूख मिटाने के लिए बुकस्टाल होता है। इसके अतिरिक्त एक-दो रेहड़ियाँ बच्चों के खेल-खिलौनों या स्थान विशेष की प्रसिद्ध वस्तुओं की भी होती हैं।

गाड़ी में भीड़ बहुत थी। जब हम किसी डिब्बे में चढ़ने की कोशिश करते तो अंदर बैठे यात्री हमारे साथ सहानुभूति दिखाते हुए कहते, ‘आगे डिब्बे खाली पड़े हैं।’ आगे गए वही हाल। तब मुझे पता लगा कि यह सहानुभूति नहीं, प्रवंचना थी।

आखिर हम एक डिब्बे में घुस गए। अंदर विचित्र दृश्य था। पाँच-सात लोग खड़े थे और इधर-उधर झाँककर बैठने की जगह ढूँढ़ रहे थे। उधर दो-तीन लोग पैर पसारे पड़े थे। एक सज्जन ने सीट पर अपना बिस्तर रखा हुआ था। जो भी उनसे पूछता कहते, ‘सवारी आने वाली है।’ इधर इंजन ने सीटी बजाई और उधर गार्ड ने भी सीटी बजाकर तथा हरी झंडी दिखाकर गाड़ी को चलने की स्वीकृति दे दी।

गाड़ी मंद गति से चली जा रही थी। पाँच-सात मिनट पश्चात् सब्जीमंडी का स्टेशन आया। गाड़ी थोड़ी देर रुकी और बीस-तीस यात्री चढ़े उतरे। पुनः सीटी बजी और गाड़ी चल दी।

सब्जीमंडी स्टेशन छोड़ने के पश्चात् गाड़ी ने जो गति पकड़ी, उसका अनुमान लगाना मेरे लिए मुश्किल है। हाँ, इतना जरूर पता है कि वह छोटे-बड़े स्टेशन छोड़ती फकाफक चली जा रही थी। छोटे स्टेशन पर ठहरती नहीं, नरेला, समालखा जैसी मंडियों की सुनती नहीं। अपनी धुन में मस्त चली जा रही थी।

यात्रियों की चर्चा में बाधा डालने वाले भी डिब्बे में आते रहते हैं। कोई आँखें अंधी होने की दुहाई देता है तो कोई अपने अंगहीन होने की दर्दनाक कहानी सुनाकर पैसे माँगता है। बैठे हुए यात्री भूख न महसूस करें, अतः विभिन्न प्रकार की खाने की चीजें बेचने वाले आते हैं। कोई दाल-सेवियाँ बेच रहा है, तो कोई मूँगफली। कई लोग अपने सूरमे तथा दंत मंजन को ‘विश्वविख्यात’ की उपाधि से विभूषित कर यात्रियों की आँखों में धूल झोंकने की चेष्टा करते हैं।

पानीपत और करनाल के रास्ते में इन सब माँगने और बेचने वालों से अलग सफेद कपड़े पहने और टोप ओढ़े एक आदमी को हमने अपने डिब्बे में आते देखा। यह भी अजीब आदमी है। वह हर व्यक्ति से टिकट माँगता है। टिकट देखकर उसे अपनी मशीन से ‘पंच’ कर देता है। पिताजी ने समझाया यह ‘टिकट चैकर’ है। बिना टिकट सफर करने वालों को पकड़ना और उनसे जुर्माना वसूल करना, इसका काम है।

फ्लाइंग मेल पानीपत, करनाल और कुरुक्षेत्र पर रुकी। शेष स्टेशन छोड़ चली। करनाल जाकर पिताजी और मैं प्लेटफार्म पर उतरे। बड़ा शोरगुल था। कोई ‘गर्म चाय’ की आवाज लगा रहा था, तो कोई रोटी-छोले की। गाड़ी को पाँच मिनट रुकना है, अतः यात्री भी चाय पीने, पूरी खाने और सिगरेट पीने में लगे हुए हैं। हमने भी जल्दी-जल्दी चाय पी और बिस्कुट खाए। उधर गाड़ी ने सीटी दी और हम भागकर गाड़ी में चढ़ गए।

भगवान कृष्ण की उपदेश-भूमि कुरुक्षेत्र के बाहर से दर्शन कर अपने को कृतार्थ समझा। घंटे भर की यात्रा के बाद अंबाला छावनी का स्टेशन आ गया। गाड़ी की गति मंद हुई। लोगों ने अपने बिस्तर संभाले। हमने भी अपनी अटैची संभाली। झटके के साथ गाड़ी रुकी।

कुली गाड़ी की ओर झपट रहे थे। चाय, दूध, रोटी-छोले की वही आवाजें कानों में गूँज रही थीं और हम गाड़ी से उतरकर धीरे-धीरे प्लेटफार्म पर चल रहे थे। मार्ग में ही एक व्यक्ति पिताजी से गले मिला। दोनों बड़े प्रसन्न हो रहे थे। पिताजी उसे बधाइयाँ दे रहे थे। मैं समझ गया कि यही मेरे पिताजी के मित्र श्री यशपाल हैं। मैंने उनका चरण- स्पर्श किया। उन्होंने मुझे प्यार से थपथपाया।

यही है मेरी पहली रेलयात्रा, रोचक भी और ज्ञानवर्धक भी।

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