संकेत बिंदु – (1) विद्वानों की राय में मित्रता (2) मित्रता बिना संसार शून्य (3) विद्वज्जनों और दुष्टों की मित्रता में अंतर (4) आज की स्वार्थी मित्रता (5) सच्ची मित्रता।
मित्र होने का धर्म या भाव मित्रता है। सुख-दुख का समझौता मित्रता है। अरस्तु के शब्दों में, ‘मित्रता का अर्थ है, दो शरीरों में रहती एक आत्मा।’ प्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार, ‘जिसकी उपस्थिति में दुख आधा हो जाए और सुख दुगना हो जाए’ वह मित्रता है।
श्री डिजरायली के विचार में ‘मित्रता दैवी देन है और मनुष्य के लिए अत्यंत बहुमूल्य वरदान।’ ‘दिनकर’ जी के शब्दों में-
मित्रता बड़ा अनमोल रतन। कब इसे तोल सकता है धन।
मैत्री की बड़ी सुखद छाया। शीतल हो जाती काया। – रश्मिरथी
आचार्य शुक्ल मानते हैं, ‘सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है। अच्छी से अच्छी माता का-सा धैर्य और कोमलता होती है।’
मित्रता की आँखों को ज्योतित करने वाला रसायन और हृदय के आह्लाद का जनक कहा गया है। उसमें शिव के समान आत्म त्याग तथा बोधिसत्त्व- सदृश सर्वस्व समर्पण की भावना निहित रहती है।
मित्रता के बिना संसार शून्य है। यह मायावी संसार को प्रेमपूर्वक सहज भोगने का एक माध्यम है। घर में धन-धान्य और समस्त ऐश्वर्य विद्यमान हों, पर पति-पत्नी में मित्रता न हो तो वह ऐश्वर्य भी कष्टदायक बन जाता है। घोर गोपनीय बात, अत्यंत कठिन संकटपूर्ण परिस्थिति और अपार प्रसन्नता में मनुष्य सगे-संबंधियों का साथ छोड़ सकता है, किंतु मित्र का नहीं। राज द्वार से श्मशान तक में भी मित्रता अटूट रहती है। द्रोह, छल, कपट मन में आता नहीं, प्राण देकर मित्रता का निर्वाह करता है। मित्रों में परस्पर विश्वास की भावना अधिक रहती है।
प्रकारांतर से कविवर रहीम मित्र की पहचान इन शब्दों में करते हैं- ‘विपत्ति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत। ‘ तुलसीदास जी इससे भी एक पग आगे बढ़कर कहते हैं, ‘जेन मित्र दुखहोहिं दुखारी, तिनहिं बिलोकत पातक भारी।’
परस्पर विश्वास में बद्ध भाव वालों की मित्रता संभव है। विष्णु शर्मा के अनुसार ‘समान शील व्यसनेषु सख्यम्।’ समान शील और व्यसन वालों में मित्रता होती है। दूसरे शब्दों में सम्मान शील, आयु, विद्या, जाति, व्यसन और वृत्ति वाले लोगों में साथ रहने से मित्रता होती है। एक-दूसरे का उपकार भी मित्रता का कारण होता है। सावरकर जी की धारणा है कि ‘मित्रता उन्हीं में हो सकती हैं, जिनमें शक्ति की भी समानता है।‘ (हिंदू पद पादशाही, भूमिका) सहपाठी, सह खिलाड़ी, सहकर्मी, सहयात्री, सहभ्रमणकर्ता, सहभोजी भी मित्रता के कारण बन जाते हैं। वृंद जी के अनुसार-
प्रकृति मिले मन मिलत है, अनमिलते न मिलाए।
दूध दही ते जमत है, काँजी ते फटि जाए॥
विद्वज्जनों के साथ मित्रता प्रारंभ में मंद-मंद, मध्य में समरस और अंत में अत्यंत स्नेहमयी हो जाती हैं। सज्जनों की मित्रता नदी के समान प्रारंभ में क्षीण, मध्य में गंभीर तथा पद-पद पर विस्तार पाने वाली होती है। वह प्रारंभ होकर कभी समाप्त नहीं होती। जातक के अनुसार- न सन्यवस्मा परिमित्थ संय्यो। यो सन्धवो सप्पुरिसेन होति। (सन्थव जातक) अर्थात् सत्पुरुष में जो मित्रता होती है, उस मित्रता से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ नहीं है तमिल कवि तिरुवल्लुवर के अनुसार, ‘बुद्धिमानों की मित्रता बढ़ते हुए बालचंद्र के समान तथा मूर्खों की मित्रता घटते हुए पूर्ण चंद्र के समान होती है।
वस्तुतः मित्रता वह बेल है जो स्नेह, सहिष्णुता, सहायता और सहानुभूति का जल पाकर बढ़ती है और जिसमें स्वर्णिम उल्लास के फूल लगते हैं। दीन-दुखी, दरिद्र-दुर्बल विप्र सुदामा की मैत्री द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के स्नेह, सहिष्णुता, सहृदयता एवं सहानुभूति के कारण कितनी पल्लवित हुई, वह अनिर्वचनीय ही है।
मंजिले हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर।
रात हो जाए तो दिखलावे, तुझे दुश्मन चिराग॥
‘निज समान सों कीजिए, ब्याह, बैर और प्रीति’ कहकर किसी पंडित ने किसी समय में उपदेश दिया होगा, किंतु वर्तमान काल में यह अव्यवहार्य है, असंगत है। राजनीति में तो यह सर्वथा असंभव है। यहाँ दो परस्पर विरोधी विचारधारा के राष्ट्र रूस और अमेरिका मित्रता का हाथ बढ़ा सकते हैं तो साम्राज्यवाद के कट्टर शत्रु चीन के शासक ‘निक्सन की जय’ के गगनभेदी नारों से अपनी मित्रता प्रकट कर सकते हैं। भाजपा को ‘सांप्रदायिक’ मानकर गाली देने वाले अनेक राजनीतिक दल, आज भाजपा के साथ मिलकर न केवल चुनाव लड़ते हैं, अपितु देश-संचालन में उसके भागीदार भी बने हैं। वस्तुतः ऐसी मैत्री के लिए तुलसीदास ने बहुत सुंदर कहा है- ‘स्वारथ लागि करैं सब प्रीती।’
सच्चाई यह है कि ‘पानी पीजे छानकर, मित्र कीजे जानकर।’ पहले परिचय फिर घनिष्ठता, तत्पश्चात् मित्रता। जीवन में परिचय सहस्रों से हो सकता है, घनिष्ठता सैकड़ों से हो सकती है, किंतु मित्रता दो-चार से ही संभव है। मित्रता का संबंध स्थापित करने से पूर्व उसके गुणावगुण की परख अनिवार्य है। अतः मित्रता गाँठने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। बल्कि धीरे-धीरे चलने में ही कल्याण है। चाणक्य ने मित्रता की सुदृढ़ता के लिए चेतावनी देते हुए कहा है, ‘यदि दृढ़ मित्रता चाहते हो तो मित्र से बहस करना, उधार लेना-देना और उसकी स्त्री से बातचीत करना छोड़ दो।’ यही तीन बातें बिगाड़ पैदा करनी हैं। इसके विपरीत ड्यूमाज का कथन है कि ‘मनुष्य जो स्वयं करें उसे भूल जावे और दूसरे से ले उसे सर्वदा याद रखे, मित्रता का यही मूल है।’