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आधुनिक शिक्षा प्रणाली – एक शानदार निबंध

Moderl education adhunik shixa par ek shandar nibandh

संकेत बिंदु – (1) वर्तमान शिक्षा प्रणाली का इतिहास (2) वर्तमान शिक्षा प्रणाली की महत्त्वपूर्ण देन (3) नैतिक शिक्षा की उपेक्षा (4) शिक्षा प्रणाली की कमियाँ (5) उपसंहार।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली का इतिहास डेढ़ शताब्दी पुराना है। जब भारत परतंत्र था, विदेशी शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेजी की शिक्षा-पद्धति को भारत में प्रचलित किया था। इसका संस्थापक विदेशी शिक्षाविद् मैकाले था। यह शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं राष्ट्रीय जीवन के विपरीत थी। फलतः इससे शिक्षित भारतीय नकलची, दास- मनोवृत्ति के पोषक और स्वसंस्कृति के विरोधी थे, वे देशभक्ति की भावना से शून्य थे। परिणामतः भारत का शिक्षित वर्ग विदेशी शासन की जड़ों को और भी सुदृढ़ करने का साधन बना। मैकाले चाहता भी यही था।

पराधीनता के युग में इस शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध बुनियादी तालीम, शांतिनिकेतन, काशी हिंदू विश्वविद्यालय शिक्षा प्रणाली तथा पाण्डिचेरी – आश्रम व्यवस्था ने राष्ट्र में देशभक्त उत्पन्न कर स्वातंत्र्य की ज्योति प्रचंड करने का प्रयास किया, किंतु आज स्वतंत्रता प्राप्ति के 54 वर्ष पश्चात् भी ब्रिटिशकाल से चली आई वही शिक्षा-पद्धति व्यापक रूप से भारत में प्रचलित है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की महत्त्वपूर्ण देन है – (1) बाबू संस्कृति अर्थात कुर्सी पर बैठकर काम करने की प्रवृत्ति और (2) नागरिक – संस्कृति अर्थात नगरों तथा महानगरों में ही कार्य करने की रुचि। जिसका परिणाम यह हुआ एक और शिक्षित युवा-युवतियाँ कार्य से जी चुराने लगे और परिश्रम से कतराने लगे। दूसरी ओर, ग्राम-वासिनी भारतमाता का विकास जिस तेजी से होना चाहिए था, नहीं हो पाया। देश का इंजीनियर, डॉक्टर, कलाविद, वैज्ञानिक बेरोजगारी की संख्या बढ़ा सकता है, पर गाँवों में नहीं जाता।

वर्तमान शिक्षा पद्धति ने भारतवासियों को कहीं का नहीं छोड़ा। ‘आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।’ पिता अपने पुत्र को विद्यालय इसलिए भेजता है कि वह शिक्षित होकर सभ्य बने, किंतु वह बनता है पढ़ा-लिखा बेकार। इतना ही नहीं, वह भ्रष्ट और दूषित चरित्र का बनता है। किसान का पुत्र विद्यालय में किसानी से नाता तोड़ने जाता है। बढ़ई का पुत्र विश्वविद्यालय में बढ़ई गिरी से रिश्ता तोड़ने जाता है। कर्मकांडी पंडित अपने ही आत्मज से ‘पाखंडी’ की उपाधि प्राप्त करने के लिए उसे विश्वविद्यालय में भेजता है। आज का शिक्षित युवक अपने वंश परंपरागत कार्य को करने के लिए तैयार नहीं। शिक्षित बेरोजगारी की संख्या देश में सुरसा के मुख की भाँति फैल रही है। मानो नौकरी ही शिक्षण की एकमात्र परिणति है।

नैतिकता जीवन का मूल है। नैतिकता का संबंध व्यक्ति की आस्था व निष्ठा से है। संप्रति, भारत में नैतिक शिक्षा की उपेक्षा की जा रही है। अतः नैतिक भावना विहीन शिक्षा विद्यार्थियों में आस्था एवं श्रद्धा उत्पन्न नहीं कर पाती। वर्तमान युग में छात्रों की उच्छृंखलता और अराजकता की स्थिति प्रेम, वासना, मदिरा और ड्रग सेवन की ओर बढ़ते कदम नैतिकता के अभाव रूपी बीज से उत्पन्न वृक्ष के कटु और विषाक्त फल हैं।

पता नहीं क्यों? भारत के महान राष्ट्र-भक्त प्रधानमंत्रियों ने शिक्षा को सदा प्राथमिकता और अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थिति से वंचित ही रखा। परिणामस्वरूप शिक्षा के बजट को अनावश्यक और उसकी समस्याओं को बेकार समझा गया। परिणामतः 54 वर्ष में चार शिक्षा आयोगों की नियुक्तियाँ हुई। पहला विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, दूसरा माध्यमिक शिक्षा आयोग और तीसरा और चौथा संपूर्ण शिक्षा आयोग। इन आयोगों की नियुक्ति ही अव्यावहारिक थी। कारण, सुधार का कार्य प्राथमिक शिक्षा से होना चाहिए था, जबकि पहला आयोग विश्वविद्यालय – शिक्षा पर विचार करने के लिए नियुक्त किया गया। भला जब तक जड़ को नहीं सींचा जाएगा, तब तक पत्तों के सींचने से क्या लाभ होगा?

पाठ्यक्रम में जो पुस्तकें निर्धारित की गई हैं, उनको देखने से लगता है कि हमारे शिक्षाविद बच्चों के मस्तिष्क में अनेक विषयों का अधकचरा ज्ञान भरना चाहते हैं, किसी विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं, फलतः उनका बस्ता गधे का बोझ बन गया है।

तीसरे, गणित और विज्ञान की पढ़ाई अनिवार्य तो कर दी गई, किंतु पाठ्यक्रम के अध्ययन के लिए सूक्ष्म प्रयोगशालाओं का निर्माण नहीं हुआ। परिणामतः प्रायोगिक विषय भी ‘तोता – रटंत’ बनकर रह गए।

चौथे, प्रश्न- शैली की नवीनता और प्रश्नों की भरमार से विद्यार्थी को परीक्षा भवन में चक्कर आने लगे। तीन घंटे में पेपर पढ़ना, प्रश्नों के उत्तर देना और लिखे उत्तरों का ‘रिवीजन’ एवरेस्ट पर चढ़ना सिद्ध हुआ। विद्यार्थी थोक के भाव फेल होने लगे।

पाँचवें, शिक्षा का व्यावसायीकरण अर्थाभाव, योग्य तथा प्रतिक्षित अध्यापकों के अभाव में कोढ में खाज सिद्ध हुआ।

सच्चाई तो यह है कि आज का शासक विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या और तदनुकूल उचित व्यवस्था की पूर्ति की अक्षमता से खिन्न है। इसलिए नई शिक्षा पद्धति में प्रश्न-पत्रों की विचित्रता-जटिलता, पुस्तकों का भार, अधिक विपयों में पास होने की अनिवार्यता, एक ही भाषा के कोर और इलेक्टिव, दोनों लेने पर प्रतिबंध, विद्यार्थी को उच्च शिक्षा से रोकने के ‘पथरोधक’ हैं।’

वर्तमान शिक्षा-पद्धति बालकों और युवकों में राष्ट्र-प्रेम की भावना भी उत्पन्न करने में असमर्थ है। सर्व धर्म समभाव की दृष्टि प्रदान करने में असफल है। जीवन के विकास और साफल्य के लिए लंगड़ी है। जीवकोपार्जन की योग्यता उत्पन्न करने में असमर्थ है। देश के वर्तमान वातावरण और जीवन में एकरूपता या सामंजस्य लाने में असफल है और है चरित्र के निर्माण में सर्वथा अशक्त।

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