संकेत बिंदु – (1) नीतियुक्त आचरण या व्यवहार (2) नैतिक आचरण सबसे श्रेष्ठ (3) नैतिक शिक्षा के आधार (4) नैतिक शिक्षा के अभाव का परिणाम (5) उपसंहार।
नीतियुक्त आचरण या व्यवहार जीवन को सरलता से सफलतापूर्वक तय करने का मार्ग है। जगत के तमसाच्छन्न कष्टपूर्ण मार्ग से हटकर गुणाकर दिग्ज्योति से साक्षात्कार करने का साधन है। जीवन की वेदनाओं, पीड़ाओं, कष्टों को धैर्य के साथ हँसते-हँसते सह लेने का दिव्य संदेश है।
‘नीयते जीवः आनंद स्वरूपं प्रति यया सा नीतिः।
सात्विकी बुद्धि तथा नीत्या आचारिता संस्कृतम् वा इति नीतिकम्।’
अर्थात् जिसके द्वारा जीव अपने तिरोहित आनंद स्वरूप को प्राप्त कर लेता है वह सात्विक बुद्धि ही नीति है और उसकी प्रेरणा से आचरित कर्म ही नैतिक सिद्ध होता है।
आत्मा के सान्निध्य की अनुभूति से द्रवीभूत हृदय से निस्सृत, सात्त्विक बुद्धि से प्रेरित, देश, काल और निमित्त की परिस्थितियों के पुट से परिष्कृत; सत्य, अहिंसा, दान, दया आदि कर्मों में वर्तमान औचित्य के संचार का ज्ञान प्रदान करने वाली विद्या नैतिक शिक्षा है। मानव को उचित – अनुचित का ज्ञान कराकर आदर्श नीति सम्मत आचरण की प्रेरणा देने वाली शिक्षा नैतिक शिक्षा है।
नैतिक आचरण सुंदर शरीर से श्रेष्ठ है। यह मूर्ति तथा चित्रकला की अपेक्षा उच्चकोटि का आनंद देता है। यह कलाओं में सुंदर कला है। सच्चाई यह है कि जिसने नैतिक शिक्षा को जीवन में उतार लिया, उसने ईश्वर को ही हृदय में मूर्तिमान् कर लिया। जिसने नैतिकता का दीपक बुझ जाने दिया, वह आचार और व्यवहार से अंधा हो गया। जीवन के संघर्ष में गिरने पड़ने टूटने को वह विवश हो गया।
मानव मूल्यों की सफलता आचरण के लिए शाश्वत शिक्षा है- ब्राह्म मुहूर्त में उठो, शौचादि से निवृत्त होकर स्नान करो, देवोपासना करो, यज्ञ का अनुष्ठान, जप ध्यान करो, सत्य और मधुर वचन बोलो, संयमित जीवन बिताओ, पूज्य व्यक्तियों का अभिवादन करो, सौम्यता, मित्रता तथा कृतज्ञता प्रकट करो।
राग-द्वेष ईर्ष्या को सँजोना, पर-नारी एवं पर धन का अपहरण, अशांत चित्त रहना, कृतघ्नता प्रकट करना अनैतिकता के द्योतक हैं। जीवन में संकट उत्पन्न करने के द्वार हैं। सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और नीतियुक्त आचरण नैतिक शिक्षा के शाश्वत आधार हैं।
वाणी का संयम सत्य है। जिस वाणी में सत्य का निवास है, वही तेजस्विनी है। मधुमयी वाणी वशीकरण मंत्र है, सुखद संबंधों की निर्मात्री है। सत्य का प्राण अहिंसा है। मनसा, वाचा, कर्मणा कभी किसी को किसी प्रकार का दुख न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा का पालक क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतता है, वश में करता है।
अचौर्य मानसिक शांति का साधन है। पर-धन, पर-नारी, पर-द्रव्य, पर-सुख, पर- आनंद की चोरी सत्याचरण के विपरीत है। चौर्य-जीवन के दुखद पक्ष को उद्घाटित करता है, जिससे पद-पद पर जीवनयापन में कठिनाइयाँ आने लगती हैं।
अन्न के अंतिम एवं सर्वोत्तम अंश वीर्य का संरक्षण ब्रह्मचर्य है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो तेज फूटता है और जो शक्ति आती है, उसका एकमात्र कारण ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य तप है। तप का अर्थ है द्वन्द्वों को सह लेना। तप के द्वारा शरीर स्ववशी बनकर सुरक्षित रहता है, तपस्वी बनता है।
शरीर या कुटुंब के लिए जितना आवश्यक हो, उससे अधिक अन्न, धन आदि स्वीकार न करना अपरिग्रह है। अपरिग्रह संतोष को जन्म देता है, त्याग का महत्त्व दर्शाता है। सुख के लिए अपरिग्रह अनिवार्य है।
नैतिकता के ये शाश्वत आधार देश, काल, परिस्थिति सापेक्ष हैं। व्यक्ति, समाज, देश तथा विश्व के परिप्रेक्ष्य में इनकी मान्यताएँ बदल जाती हैं। कूटनीतिक राज्याधिकारियों के लिए झूठ बोलना तथा मिथ्याप्रचार करना कर्तव्य समझा जाता है। दूसरों को धोखा देकर अधिक धन उपार्जन करना व्यापार का नियम है। धार्मिक संस्थाओं को अधिक धन देने वाला धर्मावतार कहलाता है, चाहे वह जीवन में व्यभिचारी, शोषक तथा पीड़क हो। राजनीति में झूठ, हिंसा, चौर्य, परिग्रह तथा काम सभी नैतिक आचरण में आते हैं।
आज का भारतीय जीवन पतन की सीमा को छूने को आकुल है। काम और अर्थ की पूर्ति के लिए अनैतिक कार्य करने में उन्मत्त व्यक्ति के लिए शोषण, व्यभिचार, अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, प्रवंचना, हत्या सब उचित हैं। भारतीय जीवन को इस स्थिति तक पहुँचाने के लिए नैतिक शिक्षा का अभाव उत्तरदायी है। यदि पाठशालाओं में नैतिक-शिक्षा का ज्ञान कराया जाता, जीवन में नैतिक मूल्यों का सबक सिखाया जाता, तो भारतवासियों की यह दुर्दशा न होती।
आज का युवक पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को स्वर्ग का द्वार समझता है। पश्चिम के रात्रि क्लबों की धुँधली रोशनी में उसे परम ज्योति के दर्शन होते हैं। मधु के प्याले, एवं पर-स्त्री के सहवास सुख में परमानंद की प्राप्ति प्रतीत होती है। काँटे-छुरी के भोजन में रस मिलने लगता है। यह स्थिति क्यों आई? कारण स्पष्ट है- हमने विद्यालयों में भारतीय जीवन के मानदंडों को नहीं समझाया, नैतिकता से जीवनयापन के गुणों को नहीं पढ़ाया।
धर्म और नैतिकता, दोनों अभिन्न हैं। प्रत्येक धर्म का आधार नैतिकता ही है, लेकिन थोड़ा-सा स्वार्थ आते ही धर्म का स्वरूप संप्रदाय में परिवर्तित हो जाता है। यही कारण है कि संप्रदाय या धर्म में तो कोई कमी हो सकती है, परंतु उनके नैतिक आधारभूत सिद्धांत एक ही हैं। कोई भी धर्म चोरी, ठगी, बुराई की आज्ञा नहीं देता। इसलिए धर्म-निरपेक्षता को रखते हुए भी पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा रखी जा सकती हैं।
नैतिक शिक्षा अर्थात् दुर्गणों का परित्याग कर सद्गुणों को ग्रहण कर विकास के शिखर की ओर सुप्रतिष्ठापित करने वाली विद्या। ‘दूसरे शब्दों में सम्यक् उत्थान का मूल है शिष्टाचरण। शिष्टाचरण का आधार है शिक्षा। शिक्षा भी मूलतः शिष्ट आचरण का ही दिशा-निर्देश करती है। इस प्रकार शिक्षा और नीति का उद्देश्य एक ही है। जैसे शाखाओं, पत्रों, पुष्पों और फलों के विकास के लिए वृक्ष के मूल का स्वच्छ-स्वस्थ रहना अनिवार्य है, वैसे ही मानव जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र को नैतिक शिक्षा द्वारा स्वच्छ रखना अत्यावश्यक है। कारण यह है कि नीति-विहीन शिक्षा से भ्रष्ट आचरण को अधिकाधिक प्रश्रय मिलता है और ऐसा होने से मानव जीवन का स्तर पशु समाज से भी निम्न हो जाएगा।’ -डॉ. सीताराम झा ‘श्याम
यदि हम चाहते हैं कि भारतवासी जीवन-मूल्यों का आदर करना सीखें, धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति नीति – शास्त्र के मार्गदर्शन में करें, लोकतंत्र स्वस्थ रूप में चले, धर्म- निरपेक्षता भारत का धर्म बने, देश के विकास कार्य ईमानदारी से प्रगति पथ पर बढ़ें, भारत चहुँमुखी उन्नति कर यशस्वी हो तो शिक्षाविदों को नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का एक अनिवार्य विषय बनाना होगा। प्रसिद्ध है, वाटरलू के युद्ध की विजय का श्रेय ऐटन के खेल के मैदान की शिक्षा है, उसी प्रकार भारत में नैतिकता का निर्माण विद्यालयों में नैतिक- शिक्षा की अनिवार्यता द्वारा ही संभव है।