संकेत बिंदु – (1) जीवन का सबसे बड़ा सच (2) विभिन्न धर्म ग्रंथों के अनुसार मृत्यु का अर्थ (3) आत्मज्ञानी के लिए मृत्यु प्रभु का निमंत्रण (4) पुनर्जन्म का साधन और मृत्यु के प्रकार (5) उपसंहार।
मृत्यु सबसे बड़ा सच है। वह कोई बहाना स्वीकार नहीं करती। अपनी छाया की भाँति मृत्यु प्राणी का साथ छोड़ती नहीं। इसलिए कालिदास कहते हैं, ‘मरणं प्रकृतिः शरीरिणां’ शरीरधारियों के लिए मरना स्वाभाविक है। अश्वघोष लिखते हैं, ‘सत्यां प्रवृतौ नियतश्च मृत्युः तत्रैव मग्ना यत एव भीताः प्रवृत्ति होने पर मृत्यु निश्चित है। वे जिससे डरते हैं, उसी में डूबते हैं। शेख फरीद के शब्दों में ‘जिदु बहूटी मरणु वर, लै जासी परणाई।’ जीवन-वधू को मरण-वर ब्याह कर ले जाएगा।
कीट्स के शब्दों में ‘Death is life’s high meed.‘ मृत्यु जीवन का पारितोषिक है।’ जहूरद्दीन हातिम कहते हैं, ‘फकीरों से सुना है हमने हातिम / मजा जीने का मर जाने में देखा। ‘महादेवी वर्मा लिखती हैं- ‘अमरता है जीवन का हास / मृत्यु जीवन का चरम विकास। ‘काजी नजरूल इस्लाम की मान्यता है, ‘हमारी मृत्यु हमारे जीवन का इतिहास लिखती है।’ प्रसाद जी लिखते हैं-
मृत्यु, अरी चिर निद्रे! तेरा / अंक हिमानी-सा शीतल।
भागवत के अनुसार ‘मृत्यु जन्मवतां वीर देहेन सह जायते’ तो गीता के अनुसार ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः।’ जो पैदा हुआ है, वह मरेगा अवश्य। जो उत्पन्न नहीं हुआ, उसका विनाश कैसा? अतः जन्म लेने वाले की मृत्यु शाश्वत सत्य है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, ‘मृत्यु साथ ही चलती, वह साथ ही बैठती है और सुदूरवर्ती पथ पर भी साथ- साथ जाकर साथ ही लौट आती है।’ कविवर रवींद्र की धारणा है कि, ‘मृत्यु का फव्वारा जीवन में स्थिर जल पर नर्तन करता है।’ वृद्ध मनुष्य मृत्यु के पास जाते हैं, लेकिन युवकों के पास मृत्यु स्वयं आती है। दूसरी ओर, देवगण जिसे प्यार करते हैं, वह मृत्यु की गोद में जल्दी सोता है। वस्तुतः जीवन की चलती हुई तस्वीर के लिए मृत्यु ही एक समुचित चौखट है।
मृत्यु परिहास भी करती हैं। किसी दुर्घटना या भयंकर व्याधि में फँसे हुए किसी मनुष्य को देखकर लगता है कि वह इस अपार कष्ट, मर्मांतक पीड़ा, असह्य वेदना में काल का ग्रास हो जाएगा, किंतु वह बच जाता है और स्वस्थ होकर हँसते-हँसते उठ बैठता है। लोकनायक जयप्रकाश की मृत्यु का समाचार (झूठा) सुनकर संसद भी रो पड़ी, किंतु वे शय्या पर लेटे काल की असमर्थता पर हँस रहे थे। दूसरी ओर अनेक बार ऐसा भी होता है कि आज ही किसी मुग्धा, रूपगर्विता की माँग में सिंदूर भरा गया और कल काल के क्रूर हाथों से पोंछ दिया गया। इधर जननी ने चिर साध पूरी कर शिशु को जन्म दिया| उधर वह चिरनिद्रा में सो गई। अपने शिशु को छाती से भी न लगा सकी, उसका कोमल व भोला मुखड़ा भी न देख सकी।
मृत्यु सदा दुखदायिनी हो, ऐसा नहीं। परतंत्र, बंधक, यंत्रणा-ग्रस्त, भूख-प्यास से पीड़ित, अभाव ग्रस्त जीवन, दुष्ट नारी के पति, कपटी मित्र के साथी और सर्प युक्त घर में रहने के कारण प्रतिदिन मरने वालों के लिए मृत्यु स्वतंत्रता का द्वार है। असाध्य रोग से ग्रस्त, पीड़ा से क्षण-क्षण कराने वाले व्यक्ति के लिए मृत्यु वरदान है। उस कष्ट से सदा के लिए मुक्ति देने वाली है।
मानव आत्म-ज्ञान के अभाव में मृत्यु में डरता है। मृत्यु के कुछ समय पूर्व स्मृति स्पष्ट हो जाती हैं। जन्म-भर की घटनाएँ, कर्म-अकर्म चलचित्रवत् अंत:चक्षुओं के सामने एक-एक कर आते हैं। ‘अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेप और अभिनिवेश रूपी क्लेशों पर व्यक्ति सिर धुनता है। महाकाल की छाया जीवन फल का विश्लेषण मृत्यु को भयावह बना देते हैं| मृत्यु-दृश्य महान् कारुणिक बन जाता है।’
आत्मज्ञानी के लिए मृत्यु प्रभु का निमंत्रण है। वह इस निमंत्रण से डरता नहीं उलटा अधरों पर मुस्कान लिए उसका स्वागत करता है। उनकी मृत्यु मुक्ति का द्वार बनती है। भगवान राम ने सरयू में समाधि ली। आधुनिक युग के महान समाज सुधारक महर्षि दयानंद ने समाधि में जीवन पुष्प प्रभु के चरणों में अर्पित कर दिया। भूदान के प्रणेता संत विनोबा भावे ने मृत्यु का किस धैर्य से आह्वान किया।
देश प्रेमी, ध्येय के प्रति समर्पित जीवन वीर-आत्माएँ हँसकर मृत्यु को ललकारते हैं। उनके लिए मृत्यु पुनर्जन्म का साधन है, अधूरे कार्यों की पूर्ति के लिए प्रभु इच्छा का प्रसाद है। वीर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में वीरगति प्राप्त की। बालक हकीकतराय और गुरु पुत्रों ने मुस्लिम धर्म स्वीकार न कर प्राण त्याग किए। क्रांतिकारी वीर आत्मा को अमर मानकर हँसते हुए फाँसी के फंदे को चूमने के लिए मचल उठे।
मृत्यु का विश्लेषण पाँच प्रकार से किया जाता है – साधारण मृत्यु, अकाल-मृत्यु, आत्म हत्या, उत्सर्ग तथा समाधिस्थ अवस्था।
साधारण मृत्यु प्रकृति के नियम का पालन मात्र है। रोग आदि मृत्यु के बहाने पका फल वृक्ष पर स्थिर नहीं रहता।
आकस्मिक और युवा मृत्यु अकाल मृत्यु है। आकस्मिक दुर्घटना तथा अचानक हिंसक पशु आक्रमण से युवा-मृत्यु अकाल मृत्यु है। शास्त्रों ने इसे माता-पिता के पापों का दंड माना है।
कृत्रिम बहानों से प्राणों को शरीर से पृथक कर देना ही क्लेशकारी है। ऐसी मृत्यु आत्म-हत्या कहलाती हैं। आत्म हत्या जीवन में घोर निराशा की प्रतिक्रिया है, कायरता की द्योतक है। प्रभु ऐसे आत्म-निवेदन को स्वीकार नहीं करते। आत्म-हत्या करने वाले शरीर की छटपटाहट से तो मुक्ति पा लेते हैं, किंतु आत्मा की भटकन उन्हें और तड़पाती है।
देश, समाज, धर्म तथा मानव हित जीवन अर्पण उत्सर्ग है। ऐसे वीर संघर्ष और युद्ध में जीवन की बलि चढ़ाकर वीरगति को प्राप्त करते हैं। ऐसी गौरवपूर्ण मृत्यु पर देवगण पुष्प वर्षा करते हैं। उनकी चिता पर प्रति वर्ष मेले लगते हैं।
स्वेच्छा से इहलोक का विसर्जन मोक्ष का सोपान है। मन और प्राण को वश में कर समाधिस्थ अवस्था में योगी मृत्यु से साक्षात्कार करते हैं। प्रभु चिंतन में लीन होते हैं। दीन-दुनिया से बेखबर होते हैं। उनकी अंतिम साँस अपने अमरत्व पर गर्व करती है।
मृत्यु प्राणों का शरीर से विसर्जन है। अतः निष्प्राण शरीर शव है, अपवित्र, अस्पृश्य और भयजनक है। घर से निकाल बाहर करने की वस्तु है। उसकी जल में समाधि या अग्नि-समर्पण ही श्रेष्ठतम अन्त्येष्टि हैं।
नश्वर यह सारा अग-जग / नश्वर यह मेरा तन है।
है अर्थ जन्म का मरना / संसृति का लक्ष्य निधन है।