Lets see Essays

मेरा प्रिय मित्र – एक निबंध

my best freiend mera priy mitra par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) मेरा प्रिय मित्र (2) मैत्रीभाव और सत्यवादिता (3) मित्रता की पहचान (4) आत्मीयता और घनिष्ठता (5) पारिवारिक मित्रता।

मित्र समष्टि जीवन का उत्कृष्ट तत्त्व है। जीवन पथ का सहायक है। अहर्निश सुख और समृद्धि का चिंतक है। उत्सव, व्यसन और राजद्वार का साथी है। सहोदर के समान प्रीतिपात्र है। पिता के समान विश्वास योग्य है। ‘अहितात्प्रतिषेधश्च हिते चानुप्रवर्तनम्’ अर्थात् अहित से रोकने और हित में लगाने वाला है। मेरा ऐसा प्रिय मित्र है संतोष सेठी।

मित्र और प्रिय मित्र में अंतर है। साथ खेलने-कूदने, हँसने-लड़ने वाले सब मित्र ही तो हैं। सीट साथी महेन्द्र गोयल, हॉकी-साथी बिशन नारायण सक्सेना, गली निवासी सहपाठी नत्थूराम जिंदल, स्कूल की राजनीति का साथी महावीर साबू, रघुवीर शर्मा, सभा मंच का साथी लक्ष्मीचंद गुप्त, सब सखा, सुहृद् ही तो हैं, किंतु तुलसीदास के उपदेशामृत के अनुसार ‘जे न मित्र दुख होहिं दुखारि’, ‘गुन प्रगटै अवगुनहिं दुरावा’, ‘देत लेत मन संक न धरई’ तथा ‘विपत्ति काल कर सत गुन नेहा’ के सभी गुण संतोष सेठी में ही हैं। इसलिए वह मेरा प्रिय मित्र है।

वह मेरा सहपाठी और समवयस्क है। मैत्री भाव उसकी विशेषता है। महाभारत के रचयिता वेदव्यास जी के कथनानुसार वह कृतज्ञ, धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, क्षुद्रतारहित, धीर, जितेन्द्रिय, मर्यादा में स्थित और मित्रता को न त्यागने वाला है।

गणित में वह गोल अंडा था, एलजबरा उसके लिए ‘ऑल झगड़ा’ था। ज्योमैट्री की रेखाएँ उसके लिए चक्रव्यूह थीं। चक्रव्यहू में फँसा संतोष सेठी गणित के घंटे में अकल्पित भय से कंपित हो जाता था। एक दिन गणित अध्यापक द्वारा संतोष सेठी को अति कष्टकर दंड देते देख मेरा हृदय पसीज गया, ‘करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा’ विगलित हो गई।

अवकाश के अनंतर घर की ओर जाते हुए शिक्षक की मार उसके हृदय को पीड़ित कर रही थी। मैंने मार्ग में उसको पकड़ा, समझाया और अपने घर आने का निमंत्रण दिया। वह मेरे घर आया। मित्रता का हाथ बढ़ाया। गणित को शून्यता को अंकों में बदलने के गुर समझाने का विश्वास दिलाया।

घर में पढ़ाई के बाद दोनों मित्रों की शाम एक साथ बीतने लगी। हॉकी हमारा प्रिय खेल था। इसलिए हॉकी के मैदान तक जाने और वापिस लौटने में गपशप, अनहोनी, होनी, दुख-सुख की चर्चा होने लगी। गपशप हृदय की गाँठों को खोलती है, मुक्त प्रेम को उदित करता है। हमारा संग शनैः-शनैः दृढ़ मित्र भाव में परिणत होने लगा।

संतोष सेठी से मित्र भाव बढ़ाते समय अचानक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पंक्ति स्मरण हो आई, ‘मित्र बनाने से पूर्व उसके आचरण और प्रकृति का अनुसंधान करना चाहिए।’ इसका एक ही उपाय था-

दो शरीर एक प्राण बन एक दूसरे की अंतरात्मा को पहचानना। गपशप में, हास- परिहास में, मंत्रवत् मुग्ध भाव में आदमी के मुख से अनायास ऐसे शब्द निकल पड़ते हैं, जो उसकी सही पहचान के परिचायक होते हैं। इसी माध्यम से एक दूसरे के स्वभाव को पढ़ा और आचरण को समझा।

एक रविवार को अपराह्न उसके घर गया। देखा, संतोष सेठी चारपाई पर बैठा दवाई की ‘डोज’ ले रहा है। मुँह सूजा हुआ है। पूछने पर उसने बताया कि बस स्टॉप पर मेरी बड़ी बहन के सामने किसी मनचले युवक ने सिनेमा गीत की पंक्ति गाकर उसे छेड़ने का प्रयास किया। संतोष सेठी उधर से गुजर रहा था। बहिन जी ने आवाज देकर संतोष को बुलाया और युवक की शरारत बताई। युवक और संतोष में कहा-सुनी हुई, मारपीट हुई। उसी का यह परिणाम है। इस घटना का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। मित्रता आत्मीयता में बदल गई।

एक दिन हॉकी खेलकर जब वापिस आ रहे थे तो उसने बताया कि उसकी बहिन का रिश्ता टूट गया है। इस कारण सारा परिवार दुखी है, माताजी ने रो-रोकर आँखें सुजा ली हैं। रिश्ता टूटने का कारण क्या है? यह बात वह स्पष्ट नहीं बता पाया था या उसने बताना नहीं चाहा।

रात को मैंने अपने माता-पिता से इस दुखद घटना की चर्चा की। उन्हें शायद यह बात पहले से ही पता थी। उन्होंने बताया कि इसमें तुम्हारे मित्र-परिवार का दोष है। फिर भी हम बिगड़ी बात बनाने की कोशिश करेंगे। पिताजी के अनथक प्रयास से टूटा हुआ रिश्ता जुड़ गया और विवाह धूमधाम से हो गया। संतोष के पिता घमंडी प्रकृति के हैं। घमंड में कहीं लड़के के रिश्तेदार को कह बैठे थे, ‘लड़के का बाबा मिंटगुमरी में छल्ली (मक्कई) बेचता था। आज लड़का आई. सी. एस. ऑफिसर हो गया, तो क्या बात हुई। खानदान तो छल्ली बेचने वालों का कहलाएगा।’

उस घटना ने संतोष की मित्रता को पारिवारिक मित्रता में बदल दिया। पारिवारिक- मित्रता ने दुख-सुख में भागीदारी का क्षेत्र व्यापक किया और हम संसार के जगड्वाल में, बीहड़ मायावी गोरख-धंधों में, स्वार्थमय जगत् में एक-दूसरे की मंगल कामना में अग्रसर हुए। महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है-

मिल जाता है जिस प्राणी को सत्य प्रेममय मित्र कहीं,

निराधार भवसिंधु बीज वह कर्णधार को पाता है।

प्रेम नाव खेकर जो उसको सचमुच पार लगाता है॥

Leave a Comment

You cannot copy content of this page