नारी और नौकरी

naari aur naukari par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) अर्थ की कामना (2) पुरुषों को चुनौती (3) नौकरी जीविकार्जन की अनिवार्यता (4) नारी की नौकरी के दोष (5) उपसंहार।

नारी द्वारा नौकरी करने की इच्छा के मूल में अर्थ की कामना है, पुरुष के पौरुष के प्रति चुनौती है, जगत के संघर्षमय कार्यों में सहयोग की आकांक्षा है, ‘अहं’ के पोषण की अभिलाषा है, ‘स्व’ के विकास की चाह है।

नारी द्वारा नौकरी नारी-शिक्षा, चेतना तथा स्वातंत्र्य का प्रकटीकरण है, अर्थ की दृष्टि से पुरुष-दासत्व की लौह-शृंखलाओं को तोड़ने का साहसिक प्रयास है।

नारी ने घर की लक्ष्मण-रेखा को लाँघकर, पारिवारिक जनों की सेवा को त्यागकर, अपने आत्मजों के पालन-पोषण के गुरुतापूर्ण दायित्व से विमुख होकर नौकरी करना क्यों पसंद किया? स्पष्ट है कि नारी शिक्षा, नारी चेतना और अर्थ स्वातंत्र्य की भावना ने नारी को नौकरी के लिए विवश किया है। कभी जीवन निर्वाह की कठिन समस्या के कारण भी नारी को नौकरी करनी पड़ती है।

आज भारतीय महिलाएँ हर उस क्षेत्र में नौकरी कर रही हैं जो कल तक केवल पुरुषों के ही क्षेत्र माने जाते थे। बात चाहे खेल, शिक्षा, प्रशासन, कला, विज्ञान, अनुसंधान की हो या सामाजिक और राजनैतिक चेतना जगाने की। कुछ एक विशिष्ट समझे जाने वाले क्षेत्रों में तो महिलाएँ बखूबी नौकरी को अंजाम देने में पुरुषों से आगे निकल गई हैं। चाहे वह बस की कंडेक्टरी हो या रेलगाड़ी की ड्राइवरी या हैलीकॉप्टर और यान चालन की, न्यायमूर्ति (जज) बन कर निर्णय लेने का दायित्व हो या प्रशासनिक सुधार का प्रश्न। थल-सेना, वायुसेना और नौ सेना में सैनिक दायित्व हो या वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी संस्थाओं में टेक्नोलोजी का विकास। नर्सिंग, चिकित्सा, ऑफिस कार्य हो या अध्यापन, जीवन के हर क्षेत्र में आज भारतीय नारी के लिए नौकरी के द्वार खुले हैं।

दूसरी ओर आर्थिक परावलंबिता और परतंत्रता ने नारी को गृह स्वामिनी होकर भी व्यावहारिक जीवन में सर्वाधिक क्षुद्र और रंक बना दिया था। उसे प्रत्येक पग पर प्रत्येक साँस के साथ पुरुष से अर्थ की भिक्षा माँगते चलना पड़ता था। उसका संपूर्ण त्याग, स्नेह आत्म-समर्पण बंदी के विवश कर्तव्य बन गए थे। प्रेरणा, स्वाभिमान, अहं शून्य हो गए थे। जीवन अभिशाप बन गया था। इस वेदना ने नारी को नौकरी के लिए प्रेरणा दी, प्रोत्साहित किया। अर्थ-स्वातंत्र्य के लिए नौकरी ही एकमात्र मंत्र था। नारी ने उस मंत्र को अंगीकार कर लिया और पति की जूती चाटने अथवा जूती बनने के विवशता के जीवन को त्याग दिया।

वर्तमान युग में नारी के लिए नौकरी न फैशन है, न अर्थ-स्वातंत्र्य की ललक, अपितु यह जीवन जीने की अर्थात् जीविकार्जन की अनिवार्यता है। प्रतिदिन बढ़ती महँगाई ने गृह के बजट को फेल कर दिया है और एकाकी पुरुष की आय से घर चलाने में असमर्थता उत्पन्न कर दी है, जिससे संतान के विकास साधन उसकी पहुँच से दूर होने लगे। विवश होकर नारी को नौकरी करनी पड़ती है। अर्थोपार्जन में अपना सहयोग प्रदान करना पड़ रहा है।

नारी को नौकरी से अनेक अन्य लाभ भी हैं। नौकरी करने वाली युवतियों का विवाह के क्षेत्र में अधिक मूल्यांकन होता है। पद की पहुँच (एप्रोच) से उसके लिए जीवन के कार्य सुगम हुए। उसे संबंधियों, मित्रों को कृतार्थ करने का अवसर मिला। समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी।

नौकरी नारी की आर्थिक स्वतंत्रता का आधार है, उसके वैयक्तिक अहं की तुष्टि की पृष्ठभूमि है, प्रगति की प्रेरणा है तो पारिवारिक संबंधों में तनाव, अधिक सुंदर दिखने की इच्छा, उन्मुक्त हास-विलास, स्वच्छंदता-उच्छृंखलता उसकी विवशता है।

नौकरी में नारी का शोषण भी होता है। बस में, कार्यालय में, सड़क पर, बाजार में हर जगह शोषण के साये में जीती है। कहीं कम वेतन देकर तो कहीं अधिक काम करवाकर या दफ्तर में बॉस की जायज नाजायज माँगों द्वारा नारी का शोषण होता है।

पद-यात्रा, बस के धक्के, कार्यालय की मानसिकता से क्लांत नारी विश्राम चाहती है, स्वस्थ मनोरंजन चाहती है। घर का काम, सास-ससुर की सेवा, बच्चों का भाव-विकास तथा स्नेह की चाहना, पति द्वारा प्रेम की आकांक्षा उसे घृणित लगते हैं। इससे घर की सुख-शांति, समृद्धि तिरोहित हो जाती है। माता के उचित मार्ग-दर्शन, संस्कार और संरक्षण के अभाव में संतान पथ-भ्रष्ट हो जाती है, उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। पति-पत्नी में कलह रहने लगता है। घर अशांत हो जाता है। नौकर-नौकरानी रखकर घर के काम में हाथ बटाया जा सकता है, पर संतान को संस्कार तथा घर को गृहिणी नहीं दी जा सकती। ये नारी की नौकरी के कुछ दोष भी हैं।

अपने को सुंदरतम रूप में प्रस्तुत करना नौकरी-सभ्यता की अनिवार्यता है। इसलिए नौकरी वाली स्त्री शृंगार करती हैं। साथियों, अधिकारियों से मधुर वचन बोलना, उन्मुक्त हास-परिहास से कार्यालय वातावरण की माँग को पूरा करती है।

प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ गुण-अवगुण से युक्त हैं। चावलों में कंकर देखकर चावल फेंके नहीं जाते। नारी की नौकरी को पारिवारिक शांति और संतान के सुसंस्कारों में बाधक मानकर अर्थ-समृद्धि, समाज-राष्ट्र तथा विश्व के हित-चिंतन को रोकना नारी के विकास, चेतना और प्रकृति को अवरुद्ध करना, विवेक शक्ति को कुंठित करना, उसके मनोबल को क्षीण करना न्याय संगत न होगा।

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Avinash Ranjan Gupta

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