संकेत बिंदु – (1) नव वर्ष का आरंभ (2) विक्रम संवत् के आरंभकर्ता (3) ऐतिहासिक दृष्टि से विक्रम संवत् (4) विक्रम संवत् मनाने के अनेक ढंग (5) उपसंहार।
भारत का सर्वमान्य संवत् विक्रम संवत् है। विक्रम संवत् के अनुसार नव-वर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का आरंभ हुआ था और इसी दिन से भारतवर्ष में कालगणना आरंभ हुई थी।
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति॥
यही कारण है कि ज्योतिष में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही होती है।
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत में प्राणियों को ही नहीं, वृक्ष, लता आदि को भी आह्लादित करने वाला मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है। इतना ही नहीं वसंत समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके, समूची धरती को पुष्पाभरण से अलंकृत करके मानव-चित्त की कोमल वृत्तियों को जागरित करता है। इस ‘सर्वंप्रिये चारुतरं वसंते’ में संवत्सर का आरंभ ‘सोने में सुहागा’ को चरितार्थ करता है। हिंदू मन में नव-वर्ष के उमंग, उल्लास, मादकता को दुगना कर देता है।
विक्रम संवत् सूर्य-सिद्धांत पर चलता है। ज्योतिषियों के अनुसार सूर्य सिद्धांत का मान ही भ्रमहीन एवं सर्वश्रेष्ठ है। सृष्टि संवत् के प्रारंभ से यदि आज तक का गणित किया जाए तो सूर्य-सिद्धांत के अनुसार एक दिन का भी अंतर नहीं पड़ता।
पराक्रमी महावीर विक्रमादिव्य का जन्म अवन्ति देश की प्राचीन नगरी उज्जयिनी में हुआ था। पिता महेन्द्रादित्य गणनायक थे और माता मलयवती थीं। इस दंपति को पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक व्रत और तप करने पड़े। शिव की नियमित उपासना और आराधना से उन्हें पुत्ररत्न मिला था। इसका नाम विक्रमादित्य रखा गया। विक्रम के युवावस्था में प्रवेश करते ही पिता ने राज्य का कार्य भार उसे सौंप दिया।
राज्यकार्य संभालते ही विक्रमादित्य को शकों के विरुद्ध अनेक तथा बहुविध युद्धों में उलझ जाना पड़ा। उसने सबसे पहले उज्जयिनी और आस-पास के क्षेत्रों में फैले शकों के आतंक को समाप्त किया। सारे देश में से शकों के उन्मूलन से पूर्व विक्रम ने मानव गणतंत्र का फिर संगठन किया और उसे अत्यधिक बलशाली बनाया और वहाँ से शकों का समूलोच्छेद किया। जिस शक्ति का विक्रम ने संगठन किया था, उसका प्रयोग उसने देश के शेष भागों में से शक सत्ता को समाप्त करने में लगाया और उसकी सेनाएँ दिग्विजय के लिए निकल पड़ीं। ऐसे वर्णन उपलब्ध होते हैं कि शकों का नाम-निशान मिटा देने वाले इस महापराक्रमी वीर के घोड़े तीनों समुद्रों में पानी पीते थे। इस दिग्विजयी मालवगण नायक विक्रमादित्य की भयंकर लड़ाई सिंध नदी के आस-पास करूर नामक स्थान पर हुई। शकों के लिए यह इतनी बड़ी पराजय थी कि कश्मीर सहित सारा उत्तरापथ विक्रम के अधीन हो गया।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह सत्य है कि शकों का उन्मूलन करने और उन पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रम संवत् आरंभ किया गया था जो कि इस समय की गणना के अनुसार ईस्वी सन् से 57 वर्ष पहले शुरू होता है। इस महान् विजय के उपलक्ष्य में मुद्राएँ भी जारी की गई थीं, जिनके एक और सूर्य था, दूसरी ओर ‘मालवगणस्य जयः’ लिखा हुआ था।
विदेशी आक्रमणकारियों को समाप्त करने के कारण केवल कृतज्ञतावश उसके नाम से संवत् चलाकर ही जनसाधारण ने वीर विक्रम को याद नहीं रखा, बल्कि दिन-रात प्रजापालन में तत्परता, परदुख- परायणता, न्यायप्रियता, त्याग, दान, उदारता आदि गुणों के कारण तथा साहित्य और कला के आश्रयदाता के रूप में भी उन्हें स्मरण किया जाता है। यह तो हुई विक्रमादित्य की चर्चा। वर्ष प्रतिपदा के महत्त्व के कुछ अन्य कारण भी हैं।
‘स्मृति कौस्तुभ’ के रचनाकार का कहना है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रेवती नक्षत्र के विष्कुम्भ के योग में दिन के समय भगवान् ने मत्स्य रूप अवतार लिया था। ईरानियों में इसी तिथि पर ‘नौरोज’ मनाया जाता है। (ईरानी वस्तुतः पुराने आर्य ही हैं।)
संवत् 1946 में हिंदू राष्ट्र के महान् उन्नायक, हिंदू संगठन के मंत्र – द्रष्टा तथा धर्म के संरक्षक परम पूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म वर्ष प्रतिपदा के ही दिन हुआ था। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे। वर्ष प्रतिपदा का पावन दिन संघ शाखाओं में उनका जन्मदिन के रूप में सोल्लास मनाया जाता है। प्रतिपदा 2045 से प्रतिपदा 2046 तक उनकी जन्म शताब्दी मनाकर कृतज्ञ राष्ट्र ने उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी।
आंध्र में यह पर्व ‘उगादि’ नाम से मनाया जाता है। उगादि का अर्थ है युग का आरंभ अथवा ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का प्रथम दिन। आंध्रवासियों के लिए यह दीपावली की भाँति हर्षातिरेक का दिन होता है।
सिंधु प्रांत में नवसंवत् को चेटी चंडो (चैत्र का चंद्र) नाम से पुकारा जाता है। सिंधी समाज इस दिन को बड़े हर्ष और समारोहपूर्वक मनाता है।
काश्मीर में यह पर्व ‘नौरोज’ के नाम से मनाया जाता है। जवाहरलाल जी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में लिखा है, ‘काश्मीरियों के कुछ खास त्योहार भी होते हैं। इनमें सबसे बड़ा नौरोज याने वर्ष प्रतिपदा का त्योहार है। इस दिन हम लोग नए कपड़े पहनकर बन-ठनकर निकलते। घर के बड़े लड़के-लड़कियों को हाथ खर्च के तौर पर कुछ पैसे मिला करते थे।’ (मेरी कहानी, पृष्ठ 26)
नव वर्ष मंगलमय हो, सुख समृद्धि का साम्राज्य हो, शांति और शक्ति का संचरण रहे, इसके लिए नव-संवत् पर हिंदुओं में पूजा का विधान है। इस दिन पंचांग का श्रवण और दान का विशेष महत्त्व है। व्रत, कलश स्थापन, जलपात्र का दान, वर्षफल श्रवण, गतवर्ष की घटनाओं का चिंतन तथा आगामी वर्ष के संकल्प, इस पावन दिन के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम माने जाते हैं। प्रभु से प्रार्थना की जाती है-
भगवंस्तव प्रसादेन वर्षं क्षेममिहास्तु मे।
संवत्सरोपसर्गा: मे विलयं यान्त्वशेषतः॥
(हे प्रभो! आपकी कृपा से नववर्ष मेरे लिए कल्याणकारी हो तथा वर्ष के सभी विघ्न पूर्णतः शांत हो जाएँ)
हम हिंदू हैं। हिंदू धर्म में हमारी आस्था है, श्रद्धा है तो हमें चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उमंग और उत्साह से नववर्ष मानना और मनाना चाहिए। संबंधियों तथा मित्रों को ‘ग्रीटिंग कार्ड’ भेजना तथा शुभकामना प्रकट करना हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। इसी से हमारे समाज में पहले से ही विद्यमान परंपरा का निर्वाह करते हुए शुभसंस्कारों का विकास होगा और हमारी भारतीय अस्मिता की रक्षा भी होगी।