संकेत बिंदु – (1) शास्त्रों में अहिंसा की व्याख्या (2) अहिंसा के लक्षण (3) अहिंसा के विविध सोपान (4) अहिंसा का बीजारोपण (5) गाँधी जी की अहिंसा सिद्धांत।
शास्त्रों में अहिंसा को पंच यमों में से एक माना गया है। किसी प्राणी का अकारण घात न करना या किसी को किसी भी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा सत्य का प्राण है, स्वर्ग का द्वार है, जगत की माता है, आनंद का अजस्त्र स्रोत है, उत्तम गति है, शाश्वत श्री है और है मानव मात्र के लिए परम धर्म।
इसलिए महर्षि दयानंद कहते हैं, ‘मनसा, वाचा, कर्मणा, किसी को किसी प्रकार का दुख न पहुँचाओ। क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की प्रतिपक्ष भावना से जीतो।’
मलूकदास कहते हैं—
पीर सबन की एक सी मूरख जानत नाहिं।
काँटा चुभें पीर है, गला काटि को खाई॥
गुरुनानक इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं-
क्या बकरी क्या गाय है, क्या अपनो जाया।
सबको लोहू एक है, साहिब फरमाया।पीर पैगम्बर औलिया, सब मरने आया।
नाहक जीव न मारिये, पोषण को काया॥
प्रभु राम का असुर संहारार्थ युद्ध, योगेश्वर कृष्ण का ‘विनाशाय च दुष्कृताम् ‘ महाभारत युद्ध, शिवाजी का हिंदू रक्षार्थ मुगलों पर आक्रमण, क्रांतिकारियों का स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए सशस्त्र विद्रोह, पवित्र ‘स्वर्ण मंदिर’ में सैनिक कार्यवाही, सब अहिंसा की सीमान्तर्गत हैं। जैन महामुनि उमा स्वाति जी के ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ का प्रस्तुत सूत्र इसका समर्थन करता है। ‘प्रमत्त योगात् प्राण व्यरोपणं हिंसा’ – ‘प्रमत्तयोग’ हिंसा है। शांत, सुविचारित, कल्याणार्थ हिंसा भी अहिंसा ही है।
कायरता, भीरुता, दुर्बलता, नपुंसकता, परिस्थितियों से साक्षात्कार का अभाव, मनोबल की हीनता के नाम पर समर्पण अहिंसा नहीं। यह अहिंसा का ढोंग है, प्रदर्शन है, प्रवंचना है। आततायी लोगों के अत्याचार सहन करना, प्रतिकार या प्रतिरोध न करना अहिंसा नहीं। धर्म विरोधी आचरण अहिंसा नहीं। असामाजिक तत्त्वों के अनाचार को सहना अहिंसा नहीं। भारत विभाजन इसी प्रवंचनामयी अहिंसा का दुष्परिणाम है। उग्रवाद के आगे अहिंसात्मक समर्पण अहिसा का ढोंग ही तो हैं। दिनकर जी का यह कथन, ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है,’ सच्ची अहिंसा के लक्षण प्रस्तुत करता है। अतः अहिंसा वीरता का भूषण है तो कायर के भाल का कलंक।
ईर्ष्या-द्वेष से रहित, लोभ-लालच, स्वार्थ से ऊपर उठकर, सौम्य व्यवहार, मधुर तथा हितकर वचन पर पीड़ा हरण अहिंसा के विविध सोपान हैं। राज्य के स्थान पर वनवास मिलने पर विमाता कैकेयी के प्रति श्रीराम का लेशमात्र भी मन में विपरीत न सोचना, द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का दीन-दरिद्र मित्र सुदामा का सेवा-सत्कार, युधिष्ठिर के यज्ञ में श्रीकृष्ण का जूठी पत्तल उठाने का कर्म, शत्रु वर्ग की नारी को माँ कहकर, सुरक्षित लौटा देने वाले छत्रपति शिवाजी का कार्य ‘अहिंसा’ के जीवंत रूप हैं।
इसके विपरीत ‘पत्नी से कठोर व्यवहार करना. उसके प्रति अप्रामाणिक हो जाना, बच्चों से उपेक्षापूर्ण व्यवहार करना; उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, शील आदि की चिंता न करना, भृत्यों (नौकरों) से तुच्छता का व्यवहार, पड़ोसी से लड़ाई, मित्रों से प्रवंचना, निर्धनों का उत्पीड़न, वृद्ध और रोगियों की सेवा न करना, अधिकार या पद का दुरुपयोग करना, किसी को झूठी आशा दिलाकर धोखा करना, ये सब हिंसा के विविध प्रकार हैं। विश्व-युद्ध की अपेक्षा ये अधिक भयानक हैं।’
वैदिक युग की कामना ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:’ अहिंसा की सुदृढ़ नींव है। राम और कृष्ण युग में ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ अहिंसा का बीजारोपण हैं। बौद्ध और जैन युग अहिंसा का यौवन-काल था, जिसमें न केवल भारत, अपितु विदेशी भी अहिंसा की दीक्षा में दीक्षित हुए। मुगलों की परतंत्रता में संत युग का आविर्भाव हुआ। सूर, तुलसी, नानक, मीरा आदि संतों ने अहिंसा की ज्योति को प्रदीप्त रखा। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी को अहिंसा का देवता माना गया। इस प्रकार भारत अहिंसा की जन्म- भूमि, कर्मभूमि तथा प्रेरणा भूमि है।
गाँधी जी की अहिंसा विभिन्न रूपा थी, विरोधाभासमूलक थी। इसमें सत्य का आग्रह था, आत्मा की आवाज थी, किंतु देश को इस प्रयोग की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। एक ओर चौरा चौरी सत्याग्रह के मामूली से अहिंसात्मक रूप से गाँधी जी ने आंदोलन वापिस लेकर हिंसा के प्रति विरोध प्रकट किया, तो सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में कांग्रेसियों ने इतनी भयंकर हिंसा की कि बिहार का कोई स्टेशन भस्म होने से बचा नहीं, फिर भी वे मौन रहे। तीसरी ओर उन्होंने अली बंधुओं के साथ मिलकर अफगानिस्तान को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। शायद इसीलिए गाँधी जी ने कहा, ‘अहिंसा का मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, जरा-सी गफलत हुई कि नीचे गिरा। देहधारी के लिए उसका सोलह आने पालन असंभव है।’
अहिंसा मन में शांति, हृदय में उत्साह और जीवन में सफलता का पथ प्रशस्त करती है। राष्ट्र को सुखी-समृद्ध एवं विकासवान बनाती है। संसार में शांति, भौतिक उन्नति तथा मानवता की महानता को प्रेरित करती है। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ का चिंतन जागृत कर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का स्वप्न साकार करती है एवं आनंद के अजस्त्र स्रोत को प्रवहमान रखती हैं।