किसी समय पंचवर्षीय योजना का शब्द सर्वथा अपरिचित व नया रहा होगा, किंतु आज तो इस शब्द को सभी जानते हैं। आज कोई शिक्षित भारतीय ऐसा न होगा, जो इस शब्द से अपरिचित हो। सबसे पहले आर्थिक क्षेत्र में रूस ने इस शब्द का आविष्कार किया। बोल्शेविक क्रांति के बाद वहाँ अन्न-वस्त्र आदि का भयंकर संकट हो गया। विदेशों से उसे सहायता मिलनी बंद हो गई और उन्होंने उससे व्यापार भी बंद कर दिया। रूस के नेताओं ने इस आकस्मिक भीषण विपत्ति से न घबराकर अपने देश को स्वावलंबी बनाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। परिणामस्वरूप एक पंचवर्षीय योजना बनाई गई। इसके कुछ विशेष उद्देश्य रखे गए कि इन पाँच वर्षों में अन्न, वस्त्र, मकान, स्कूल, अस्पताल, रेलगाड़ियाँ, नियत संख्या में पैदा करने या तैयार करने हैं। समस्त देश योजना में जी-जान से कूद पड़ा और संसार ने आश्चर्य से देखा कि पाँच वर्षों के लक्ष्य चार वर्षों में पूरे हो गए। रूस ने इससे प्रोत्साहित होकर नई पंचवर्षीय योजना बनाई, पहली से बड़ी और अधिक महत्त्वाकांक्षापूर्ण। रूस की इस सफलता का प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ा। अमरीका में प्रेजिडेंट रूजवेल्ट ने आर्थिक संकट को दूर करने के लिए विशाल योजना बनाकर टेनेसी घाटी का विकास किया, तीन वर्षों में 1,60,000 मकान बनवाए और 65 लाख बेकार आदमियों को वन स्थापना के काम पर लगाया गया। इटली में मुसोलिनी ने भी विकास की निश्चित योजना बनाई और कुछ लक्ष्य निर्धारित कर इटली को आर्थिक दृष्टि से संपन्न बनाने पर वह तुल गया। हिटलर ने जर्मनी और ब्रिटिश सरकार ने इंगलैंड में विशेष लक्ष्य लेकर योजनाएँ बनाई। सामान्यतः पूँजीवादी देशों में उद्योगपति अपने-अपने लाभ को देखकर उद्योगों की स्थापना करते हैं, किंतु उक्त योजनाओं में सरकार देश की आवश्यकता को देखकर निश्चय करती है कि अमुक वस्तु का इस मात्रा में नियत अवधि में निर्माण कर लेना है— अन्न प्रति व्यक्ति को अमुक मात्रा में मिलना चाहिए, अमुक मात्रा में वस्त्र तैयार होने चाहिए, एक नियत संख्या में मकान बनने चाहिए। कितने मील सड़कें बननी हैं, कितने कारखाने लोहे या मशीनरी के खोलने हैं, कितनी नहरें खोदनी हैं, कितने बिजलीघर बनाने हैं आदि लक्ष्य निर्धारित कर लिए जाते हैं और फिर उनकी पूर्ति के लिए साधन जुटाए जाते हैं।
भारत में
जब अन्य देशों में योजनाएँ बनाकर आर्थिक विकास किया जा रहा था, तब भारत की विदेशी सरकार कुछ नहीं कर रही थी। कांग्रेस ने पुनर्निर्माण की निश्चित योजना के महत्त्व को समझा और पंडित नेहरू की अध्यक्षता में एक प्लानिंग कमीशन बनाया। इसने एक योजना के लिए निम्नलिखित आधार नियत किए — प्रत्येक व्यक्ति को स्वास्थ्ययुक्त भोजन, कम से कम 30 गज वार्षिक कपड़ा और 100 वर्ग फुट निवास गृह मिलना चाहिए। फिर तो कई योजनाएँ प्रस्तुत हुई। सरकार को भी इस दिशा में विचार करना पड़ा। विश्वव्यापी युद्ध ने स्वावलंबन का महत्त्व समझने के लिए विवश भी कर दिया था। युद्ध काल में समस्त शक्तियाँ युद्ध व सैनिकों की सामग्री तैयार करने में केंद्रित हो गई। युद्ध समाप्त होने के कुछ समय बाद ही भारत स्वतंत्र हो गया।
जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ, हमारे कुछ उद्योग जरूर पनप रहे थे, पर देश की साधारण आर्थिक स्थिति अत्यंत चिंतनीय थी। अन्न संकट का भयंकर राक्षस 1943 में 35 लाख व्यक्तियों की बलि ले चुका था। फिर भी वह मुँह बाये खड़ा था। वस्त्र, चीनी, कागज, घी, दूध, तेल सभी जीवनोपयोगी पदार्थ बहुत दुर्लभ और महँगे थे। स्वतंत्र भारत की सरकार ने इस संकट को दूर करने के कुछ तात्कालिक उपाय किए। पर कहीं विदेशों से अन्न मॅगाकर या राशन कंट्रोल जारी करके समस्याएँ सुलझती हैं? निश्चय किया गया कि देश को स्वावलंबी बनाया जाए। देश और विदेशों की पंचवर्षीय योजनाओं का अध्ययन हुआ। समस्त देश में निश्चित योजनापूर्वक उन्नति का विचार किया गया। इसी काम के लिए एक योजना आयोग मार्च 1950 में बनाया गया इस योजना आयोग ने 15 मास तक विचार-विनिमय के बाद एक योजना उपस्थित की। बाद में इसमें कुछ संशोधन भी किए गए। अंतिम रूप के अनुसार यह योजना 23 अरब रुपए की बनाई गई। इस योजना के मुख्य अंग निम्नलिखित थे-
(1) कृषि और ग्राम विकास ;
(2) सिंचाई और बिजली ;
(3) यातायात और संचार
(4) प्रधान उद्योग;
(5) समाज सेवा कार्य; और
(6) पुनस्संस्थापन।
सबसे प्रधान समस्या अन्न व कृषिजन्य अन्य पदार्थो की थी। इसके लिए सिंचाई की व्यवस्था आवश्यक थी। भारत में प्रकृति अत्यंत उदार रही है। सुजला भूमि में पानी की कमी नहीं है, कमी है केवल इसे खेत में पहुँचाने की। आयोग ने बड़ी-बड़ी नदियों पर बड़े-बड़े बाँध बनाकर देश भर में नहरें खोदने का निश्चय कर लिया। इन बाँधों के साथ-साथ बिजलीघर भी बनाने और गाँव-गाँव में बिजली के तारों का जाल बिछाने की योजना भी बनाई गई।
इसके लिए 661 करोड़ रुपए व्यय करने की योजना बनाई गई। कृषि के विकास के लिए और भी व्यवस्थाएँ की गई, जिनमें राष्ट्रीय विस्तार तथा सामुदायिक योजनाएँ मुख्य हैं। ट्रैक्टरों द्वारा अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ बनाने, बढ़िया बीज, वैज्ञानिक खाद आदि आजकल के अनेक साधनों के द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ाने का विचार किया गया। वस्त्र, चीनी, सीमेंट, लोहा आदि उद्योगों के भी उत्पादन लक्ष्य नियत किए गए।
देश के आर्थिक विकास के लिए सड़कों, रेलों तथा जल मार्ग के विकास की भी सख्त जरूरत है। इस कार्य के लिए 550 करोड़ रुपए का व्यय नियत किया गया। किंतु हमारे देश की बहुत बड़ी संख्या, लगभग 85 फीसदी जनता अशिक्षित है। गाँवों में बीसियों मील तक न किसी प्राइमरी स्कूल का पता है, न किसी छोटी-सी डिस्पेंसरी का। लोगों में कुरीतियाँ हैं, जहालत है, पिछड़ी हुई जातियों में वर्तमान संस्कृति व शिक्षा का नाम-निशान नहीं। इसलिए शिक्षा, चिकित्सा और जागृति की दिशाओं में भारी काम करने की जरूरत है। इन भारी कामों की दिशाओं में कोई प्रगति न हो तो राष्ट्र उन्नति कतई नहीं कर सकता। इसलिए यह निश्चय किया गया कि इन पर 556 करोड़ रुपए व्यय किया जाए। इस तरह एक विशाल पंचवर्षीय योजना तैयार की गई।
योजना तैयार करना आसान है, पर उसे पूरा करना बहुत कठिन है। लोगों को इस योजना के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, उनमें उत्साह न था, सरकारी अधिकारियों को अनुभव नहीं था, प्रशिक्षित कार्यकर्ता भी नहीं थे, फिर यह भी मालूम नहीं था कि देश में कौन-सा साधन कहाँ किस मात्रा में मिल सकता है, लेकिन राष्ट्र नेताओं के आदेश से देश भर में कार्य शुरू कर दिया गया। पहले दो साल कार्य बहुत हलका हुआ, पर अनुभव व साधनों की प्राप्ति के साथ-साथ उत्साह भी बढ़ा। कृषकों को खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से जमींदारी भी समाप्त कर दी गई या की जा रही है। नहरों की खुदाई के साथ उनका उत्साह और बढ़ा। प्रौद्योगिक क्षेत्र भी पीछे न रहा। पाँच सालों में नियत अनेक लक्ष्य पूरे कर लिए गए। खेती व उद्योग में उत्पादन की वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि हमारे देश की राष्ट्रीय आय 18 प्रतिशत तक बढ़ गई। 1951-52 में राष्ट्र की कुल आय 6,100 करोड़ रुपए अर्थात् 250 रुपए प्रति व्यक्ति थी, 1954-55 में यह प्रय 10,170 करोड़ रुपए अर्थात् 266 रुपए हो गई। अनाजों का उत्पादन नियत लक्ष्य से भी अधिक बढ़ गया। रुई और तिलहन आदि की उपज में वृद्धि हुई। इन पाँच वर्षों में सिचाई की नई योजनाओं से एक करोड़ एकड़ और बड़ी योजनाओं से 60 लाख एकड़ में अधिक सिंचाई होने लगी। इससे खेती की आमदनी निश्चित रूप से बढ़ गई। छोटे और बड़े उद्योगों में भी 1946 की अपेक्षा 61 प्रतिशत वृद्धि हुई। लोहा, सीमेंट, पटसन, साइकिल, जहाज और खाद आदि सभी उद्योग करीब-करीब अपना लक्ष्य पूर्ण करने में सफल रहे। बहुत-सी ऐसी चीजें बनने लगीं, जो पहले नहीं बनती थीं। अखबारी कागज, पैनिसिलीन, रेलवे इंजन, मशीन टूल आदि नए उद्योग आरंभ हुए। मिलों का कपड़ा तो नियत लक्ष्य से भी बढ़ गया। गाँव-गाँव में सामुदायिक योजनाएँ विकसित हुई। हजारों गाँवों में लोगों ने सामूहिक उन्नति की, शिक्षा प्राप्त की और हजारों अस्पताल खुले, गाँव-गाँव में स्कूल खुले और लोगों में स्वावलंबन की शिक्षा से नया उत्साह उत्पन्न हुआ।
प्रथम योजना की सफलता ने देश में सचमुच एक नई उमंग पैदा कर दी है। राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के शब्दों में पहली लोगों में विश्वास की भावना का उदय हुआ है हमारे राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था की उन्नति की योजना की सफलता से और उसके परिणामस्वरूप नीव रखी जा चुकी है। वस्तुतः प्रथम योजना की सफलता पर देश गर्व कर सकता है।