संकेत बिंदु – (1) स्वार्थ निरपेक्ष और दूसरों के हितार्थ (2) प्रकृति, देवताओं और महापुरुषों द्वारा परोपकार (3) परहित सरिस धर्म नहिं भाई (4) सज्जनता और सहानुभूति का द्योतक। .
स्वार्थ निरपेक्ष, किंतु दूसरों के हितार्थ किया गया कार्य परोपकार है। परपीड़ा – हरण परोपकार है। पारस्परिक विरोध की भावना घटाना, प्रेमभाव बढ़ाना परोपकार है। दीन, दुःखी, दुर्बल की सहायता परोपकार है। आवश्यकता पड़ने पर निःस्वार्थ भाव से दूसरों को सहयोग देना परोपकार है। मन, वचन, कर्म से परहित साधन परोपकार है।
परोपकार में प्रवृत्त रहना जीवन की सफलता का लक्षण है। (जीवितं सफलं तस्य यः परार्थोद्यतः सदा।) व्यास जी के कथनानुसार ‘परोपकारः पुण्याय’ अर्थात् परोपकार से पुण्य होता है। परोपकार करने का पुण्य सौ यज्ञों से बढ़कर है। आचार्य चाणक्य मानते हैं, कि ‘जिनके हृदय में सदा परोपकार करने की भावना रहती है, उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और पग-पग पर संपत्ति प्राप्त होती है।’
सूर्य की किरणें जगत को प्रकाश और जीवन प्रदान करती हैं। चंद्रमा अमृत की वर्षा करता है। वृक्ष मानव मात्र के लिए फल प्रदान करते हैं। खेती अनाज देती है। सरिताएँ जल अर्पित करती हैं। वायु निरंतर बहकर जीवन देती है। समुद्र अपनी संपूर्ण संपत्ति वर्षा रूप में जन-कल्याण के लिए समर्पित करता है। इस प्रकार प्रकृति के सभी तत्त्व पर-हित के लिए समर्पित हैं, इनका निजी स्वार्थ कुछ नहीं।
भगवान शंकर ने देव-दानव कल्याणार्थ विष पान किया। महर्षि दधीचि ने देवगण की रक्षार्थ अपनी हड्डियाँ दान कर दीं। दानवीर कर्ण ने अपने कवच-कुंडल विप्र रूपधारी इंद्र को दान दे दिए। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण-रक्षा के लिए अपना अंग-अंग काट कर दे दिया। राजा रंतिदेव ने स्वयं भूखे होते हुए भी अपने भाग का भोजन एक भूखे ब्राह्मण को दे दिया। ईसामसीह सूली पर चढ़े। सुकरात ने जहर पी लिया। भारत की एकता और अखंडता के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी कश्मीर में जाकर बलि हुए। महात्मा गाँधी जनहित के लिए संघर्ष करते रहे। आचार्य विनोबा भावे दरिद्र नारायण के लिए भूदान माँगते रहे। मदर टेरेसा ने दीन-दु:खियों की सेवा में अपने यौवन की बलि चढ़ा दी। तुलसीदास का कथन है-’परहित सरिस धर्म नहिं भाई।’ उन्होंने हिंदू जाति, धर्म और संस्कृति के लिए सर्वस्व न्योछावर कर अपना धर्म निभाया। उनका ‘मानस’ हिंदू जाति का रक्षक कवच बन गया, धर्म-प्रेरक बन गया, मोक्ष मार्ग का पथ-प्रदर्शक बन गया।
परोपकार करते हुए कष्ट तो सहना ही पड़ता है, परंतु इसमें भी परोपकारी को आत्म संतोष और विशेष सुख मिलता है। किरांतार्जुनीय में कहा गया है, ‘परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है।’ माँ कष्ट न उठाए, तो शिशु का कल्याण नहीं होगा। वृक्ष पुराने पत्तों का मोह त्यागें नहीं, तो नव पल्लवों के दर्शन असंभव हैं।
परोपकार करने से आत्मा प्रसन्न होती है। परोपकारी दूसरों की सहानुभूति का पात्र बनता है। समाज के दीन-हीन पीड़ित वर्ग को जीवन का अवसर देकर समाज में सम्मान प्राप्त करता है। समाज के विभिन्न वर्गों में शत्रुता, कटुता और वैमनस्य दूर कर शांति दूत बनता है। धर्म के पथ पर समाज को प्रवृत्त कर ‘मुक्तिदाता’ कहलाता है। राष्ट्र-हित जनता में देश-भक्ति की चिंगारी फूँकने वाला ‘देश रत्न’ की उपाधि से अलंकृत होता है।
उपकार से कृतज्ञ होकर किया गया प्रत्युपकार परोपकार नहीं। वह सज्जनता का द्योतक हो सकता है। उपकार के बदले अपकार करने वाला न सज्जनता से परिचित है, न परोपकार से। इनसे तो पशु ही श्रेष्ठ हैं, जिनका चमड़ा मानव की सेवा करता है। भगवान सूर्य की आत्मा कितनी निर्मल है। धरती के जल को कर रूप में जितना ग्रहण करते हैं उसको हजार गुना बनाकर वर्षा के रूप में धरती के कल्यार्थ लौटा देते हैं। उपकार करके प्रत्युपकार की आशा न रखना, ‘नेकी कर दरिया में डाल देना’ परोपकार की सच्ची भावना है।
आज परोपकार के मानदंड बदल गए हैं, परिभाषा में परिवर्तन आ गया है। धार्मिक नेता धर्म के नाम पर मठाधीश बन स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। सामाजिक नेता समाज को खंड-खंड कर रहे है। राजनीतिक नेता ‘गरीबी हटाओ’ के नाम पर अपना घर भर रहे हैं। बाढ़ पीड़ितों के दान से अपना उद्धार कर रहे हैं। ‘अन्त्योदय’ के कार्यक्रम से गरीबों का अंत कर रहे हैं।
रेल के डिब्बे में लेटा हुआ यात्री जब बाहर खड़े यात्री को कहता है आगे डिब्बे खाली पड़े हैं, तो वह कितना उपकार करता है? जब सड़क पर खड़े दुर्घटनाग्रस्त असहाय व्यक्ति से जनता मुख मोड़कर आगे बढ़ जाती है, तो उपकार की वास्तविकता का पता लगता है आग की लपटों से बचे घर या दुकान के सामान को दर्शक उठाकर ले जाते हैं, तो परोपकार की परिभाषा समझ में आती है। इसीलिए शास्त्रों का कथन है-’जिस शरीर से धर्म न हुआ, यज्ञ न हुआ और परोपकार न हो सका, उस शरीर को धिक्कार है, ऐसे शरीर को पशु- पक्षी भी नहीं छूते। ‘कबीर ऐसे व्यक्तियों को धिक्कारते हुए कहते हैं-
‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागत अति दूर॥’
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने परोपकार और परोपकारी भावना की कैसी सुंदर व्याख्या की हैं-
मरा वही नहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही मनुष्य है कि जो, मरे मनुष्य के लिए॥