पर्वतराज हिमालय

parwatraj himalaya par ek shandaar hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) हिमालय का वर्गीकरण (2) भारत का महरेदार (3) दुर्लभ औषधियाँ, जीव-जंतु और संन्यासियों का स्थल (4) पर्यटन और धार्मिक स्थल (5) उपसंहार।

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।

पूर्वापरी तोयनिधीऽवगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

-कालिदास (‘कुमार संभव’ का मंगलाचरण)

पूर्व और पश्चिम समुद्र का अवगाहन करके पृथ्वी के मानदंड के समान स्थित नगाधिराज देवतात्मा हिमालय उत्तर दिशा में स्थित है। संसार के भूगोलशास्त्री कालिदास के इस कथन से सहमत नहीं, पर यह तो सच है कि महाहिमवंत की शाखा प्रशाखाएँ ब्रह्म देश से आरंभ होकर चीन, तिब्बत सीमांत एवं वहाँ से असम-बंगाल-नेपाल होती हुई कुमायूँ, गढ़वाल, पंजाब, हिमालय, कश्मीर, हिंदुकुश और अफगानिस्तान होकर मध्य-एशिया के प्रदेशों में चली गई हैं। संपूर्ण हिमालय की लंबाई लगभग पाँच हजार मील और चौड़ाई पाँच सौ मील है।

भारतीय-हिमालय क्षेत्र को चार भागों में बाँट सकते हैं-

(1) हिमाचल तथा पंजाब प्रांत हिमालय। इसका विस्तार गिलगित से सतलुज तक है। यह 560 कि.मी. लंबा है। इसकी चोटियाँ 6 हजार मीटर से कम चौड़ी हैं, किंतु इसके नंगापर्वत की ऊँचाई 8126 मीटर है।

(2) कुमायूँ-हिमालय। यह शृंखला सतलुज से काली नदी तक गई है। यह 320 कि.मी. लंबी है। नन्दा देवी, कामेट, त्रिशूल, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री तथा यमुनोत्री इसी विभाग के अंतर्गत आते हैं।

(3) नेपाल हिमालय। काली नदी से सिक्कम तक यह शृंखला 800 कि.मी. लंबी है। तिब्बत और नेपाल संधि पर स्थित एवरेस्ट (8848 मीटर), कंचन जंघा (8598 मीटर), मकालू (8481 मीटर) तथा धवलगीर (8172 मीटर) ऊँची पर्वत श्रेणियाँ इस भाग का अंग हैं।

(4) असम हिमालय। यह पर्वत शृंखला 720 कि.मी. लंबी है। इसका विस्तार तिप्ता नदी से ब्रह्मपुत्र और बीच की सीमा तक है। चाखोबा, धोकनिया, जोगसोंगला, कुल्हाकांगरी, चीमोल्हारी, काबारू आदि इसकी प्रसिद्ध चोटियाँ हैं, जिनकी ऊँचाई 7320 से 7450 मीटर तक है।

हिमालय की सर्वोच्च शृंखला गौरीशंकर है, जिसे एवरेस्ट नाम से भी जाना जाता है। कर्नल हंट और शेरपा तेनसिंह इस शृंखला पर विजय पताका फहराने वाले पहले वीर मानव हैं।

हिमालय की हिमाच्छादित हरित-पल्लवित पुष्पित अमित देव-दुर्लभ वनस्पति परिपूरित उपत्यकाएँ, असंख्य गिरि-गुफाएँ, घोर वन, पर्वत शृंखलाएँ, बर्फीली चोटियाँ, नदियाँ, झरने, झीलें, हिमालय के पुत्र-पुत्रियाँ हैं। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियाँ हिमालय से निकलकर भारत-भू को हरा-भरा तथा शस्य श्यामलता बनाए रखती हैं। इन्हीं के कारण यह भूमि सोना उगलती है। घने वनों के फल-फूल, देवदार, बाँस आदि वृक्ष, जड़ी-बूटियाँ, महौषधियाँ, वनस्पति, खनिज पदार्थों के अक्षय भंडार लुटाकर भारत-भू को रत्न-गर्भा बना रहे हैं। लगता है यहाँ आकर अथर्ववेद की कामना पूरी हो रही है-‘हिम शैल से निकलने वाली और समुद्र में मिलने वाली नदियाँ हमारे लिए उत्तम औषधि प्रदान

करें।’ (6-24 -1) इनके जंगलों में अबाध विचरण करते हिंसक बाघ, भालू, हाथी, हायना, हिरण, गेंडे, साँभर, चमरी आदि पशु शिकारियों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।

हिमालय के कैलास पर भगवान शंकर का वास है।’ इसी कारण कैलास अपनी चंद्र धवल ऊँची चोटियाँ पसारे ऐसा लगता है जैसे शिव का अव्हास पुंजी-भूत हो गया हो। ‘भगवती पार्वती की साधना स्थली है कन्याकुमारी-सुदूर दक्षिण में। शंकर-पार्वती मिलन उत्तर-दक्षिण का कैसा अद्भुत सामंजस्य है। ‘यहीं कैलास की गोद में (ऊर्ध्वभाग, कटि देश में) गंगारूपिणी साड़ी खोले कालिदास की कल्पित-अलका नगरी नंगी पड़ी है।’

युगों-युगों से लाखों त्यागी-वैरागी साधु, संन्यासी, योगी, तपस्वी पद्मासन में आँखें मूँदकर प्रभु से साक्षात्कार करते यहीं पंचत्व को प्राप्त हो गए। लाखों ज्ञान पिपासु, तीर्थवासी, सत्यान्वेषी तथा पर्यटक यहाँ आकर सत्, चित् और आनंद के साक्षात्कार में मुग्ध हो रहे। सहस्रों ऋषि-मुनियों के चरण-चिह्नों से आज भी इसकी शृंखलाएँ पावन बनी हुई हैं। पाँचों पांडवों और द्रौपदी की तो यह मोक्ष भूमि है। यक्ष, गंधर्व, किन्नर, किन्नरियाँ, अप्सराएँ तो अपने नृत्य-संगीत से देवात्मा का हृदय हर लेते हैं। इसीलिए प्रकृति के चितेरे कवि पंत ने कहा-‘स्वर्ग खंड तुम इस वसुधा पर / पुण्यतीर्थ हे देव प्रतिष्ठित।’

(स्वर्ण किरण : हिमाद्री)

अब भी भारतीय तथा विदेशी सैलानियों, पर्यटकों, ज्ञानपिपासुओं तथा तीर्थयात्रियों का अहर्निश उमड़ता सैलाब इसकी ‘देवतात्मा’ की पहचान करवाता है। गाँधी जी ने त्रिशूल शृंग के सम्मुखवर्ती कौसानी पहाड़ की चोटी पर बैठकर ‘अनासक्ति योग’ की रचना की थी। मुक्तेश्वर तीर्थपथ में मिलने वाले रामगढ़ पर्वत शृंखला पर बैठकर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अनेक कविताओं को जन्म दिया था।

हिमालय हिंदू तीर्थों का कुंज है। कैलास, अमरनाथ, मानसरोवर, बद्रीनाथ, केदारनाथ, ऋषिकेश, उत्तरकाशी, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि पूज्य तीर्थ हिंदू धर्म-ध्वजा को फहरा रहे हैं। जैन और बौद्ध मंदिर भी यहाँ असंख्य हैं।

वेदों में, उपनिषदों में, पुराणों में, महाकाव्यों में और इतिहास के परिच्छेदों में हिमालय का विस्तृत वर्णन है। संस्कृत कवियों ने इसे देवतात्मा मानकर इसके चरणों में पर अपने काव्य-पुष्प अर्पित किए हैं। कालिदास के ‘कुमार-संभव’ की संपूर्ण कथा हिमालय में ही घटित होती है। उनका ‘उत्तरमेघ’ भी हिमालय का वर्णन करता है। ‘विक्रमोर्वशीय’ का चौथा और ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ का सातवाँ अंक हिमालय से संबद्ध है। रघुवंश के प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ सर्गों में हिमालय का वर्णन है।

डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-‘हिमालय हमारा प्रहरी है, देवभूमि है, रत्नखानि है, इतिहास विधाता है, संस्कृति मेरुदंड है।’ प्रबोधकुमार सान्याल के शब्दों में, ‘वीरों के असाध्य अध्यवसाय में, संन्यासियों की एकाग्र तपस्या में, तीर्थ यात्रियों के पूजा पाठ में, कवि-चित्रकार-दार्शनिक की सौंदर्य कल्पना में देवतात्मा हिमालय मानव के लिए चिर-विस्मय है।’

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