संकेत बिंदु – (1) प्रकृति-सौंदर्य ईश्वरीय सृष्टि की अलौकिक शक्ति (2) रात का मनमोहक दृश्य (3) ऋतु परिवर्तन प्रकृति की विभिन्न दृश्यावलियाँ (4) मेघों के बरसने से प्रकृति सौंदर्य (5) उपसंहार।
प्रकृति-सौंदर्य ईश्वरीय सृष्टि की अलौकिक, अद्भुत, असीम एवं विलक्षण कला का समूह है। प्रकृति का पल-पल परवर्तित रूप सौंदर्यपूर्ण, हृदयाकर्षक और उल्लासमय होता है। सर्वस्व लुटाकर भी वह हँसती हैं, हँसाती है। श्रीधर पाठक कश्मीर के प्राकृतिक- सौंदर्य से मुग्ध होकर गा उठे-
“प्रकृति यहाँ एकांत बैठि निज रूप सँवारति,
पल-पल पलटति, भेष, छनिक छबि छिनछिन धारति।
बिहरति विविध विलासमयी, जीवन में मद सनी,
ललकती, किलकति, पुलकति, निरखति थिरकति बनि ठनि॥
प्रभात बेला में बाल-अरुणोदय के समय उड़ते हुए पक्षियों का कलरव, सस्यश्यामल क्षेत्र में मुक्ता के समान चमकती ओस की बूँदें, शीतल सुरभित मलयानिल, भगवान भास्कर की दीप्त रश्मियाँ, प्राणिमात्र का जागरण और कार्यों में लगने का उपक्रम तथा यत्र-तत्र शांत वातावरण क्या ही अनुपम आनंद का अनुभव कराते हैं। कविवर प्रसाद का मन इस सौंदर्य को देखकर कहता है-
“उषा सुनहले तीर बरसती, जय लक्ष्मी-सी उदित हुई।”
दोपहर हुई। भगवान अंशुमाली के दीप्त तेज से गर्मी की प्रचंडता का आभास प्रकट हुआ। जैसे प्रेयसी कुपित होती है, तो भी सुंदर लगती है, इसी प्रकार प्रकृति के इस कोप में भी सौंदर्य है, जन-जन का कल्याण निहित है।
दिनभर की यात्रा से श्रांत भास्कर जब अपनी थकान मिटाने सायं समय पश्चिम समुद्र में स्नान करने उतरता है, तो उसका प्रतिपल, प्रतिक्षण रंग बदलता हुआ मनोहर रूप आश्चर्यचकित कर देता है। सूर्य के स्पर्श से समुद्र जल का रंग अरुणाभ हो जाता है, मानो जल-राशि पर तरल स्वर्ण गिरकर बिखर गया हो। सूर्य के समाधि लेने पर जल रक्तवर्ण हो जाता है, तो लगता है, गेरू पिघल कर बह रहा हो। कुछ क्षण बीतने पर बैंगनी रंग में बदल जाता है और अंत में जल काला हो जाता है। क्षण-क्षण बदलती प्रकृति-नटी के रूप को आँखें तो देख पाती हैं, किंतु मस्तिष्क उतना तेजी से उन रंगों को पकड़ नहीं पाता।
मधु-रात्रि में तारागणों की जगमगाहट, मध्य में पूर्ण चंद्रमंडल का अपनी रजत किरणों से जगत को धवलित करना, मधुर मकरंदपूरित वायु के संचरण में प्रकृति की अद्भुत छटा है। इस दृश्य को देख राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का हृदय आत्म-विभोर होकर कह उठे-
“चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर तल में॥”
ऋतु परिवर्तन प्रकृति को विभिन्न दृश्यावलियाँ हैं। एक-एक ऋतु का एक-एक दृश्य सौंदर्य-सुषमा से ओत-प्रोत है। प्रथम पुष्प, फिर किसलय, फिर भौरों की गुंजार और कोयलों की कूक, इस प्रकार क्रमशः वसंत का अवतार होता है। वासंती परिधान में पृथ्वी इठलाती है। सुरम्य वन, कुँज, लता, उपवन, पर्वत, तटिनी, जहाँ दृष्टिपात करो, उधर ही कुसुमपूरित डालियाँ दिखाई देती हैं। पंत का प्रकृति प्रेमी हृदय वासंतिक दृश्य को देखकर गा उठता है-
“अब रजत स्वर्ण मंजरियों से, लद गई आम्र रस की डाली।
झर रहे ढाक, पीपल के दल, हो उठी कोकिला मतवाली॥”
प्रकृति ने करवट बदली, ग्रीष्म का आगमन हुआ। सूर्य भगवान की तेजो-दृप्त किरणें, लू के थपेड़े, तेजपूरित उष्ण निदाघ, खिले फूलों का मुरझाना, नदियों की शुष्कता तथा मंद प्रवाह, भू पर छाया सन्नाटा, विचित्र प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
प्रकृति ने तेवर बदले। ग्रीष्म की तेज लू, प्राणिमात्र की उदासीनता श्याम सघन घन के स्पर्श से शीतल हुई। मेघावली के जल सिंचन से सर्वत्र हरियाली छाई। विद्युत् का बार- बार चमकना, वृक्षाच्छादित हरित पर्वत श्रेणियाँ, नील गगन में इंद्रधनुष की सतरंगी आभा, सौदामिनी के चमकने के साथ घोर वज्रपात का स्वर, क्षितिज पर्यंत हरियाली, जलपूरित नद-नदियाँ, सरि-सरोवरों का प्रवाह, मयूरों का नर्तन, कोकिलगण का कलरव, मतवाले भ्रमरों की गुंजार, मेंढकों की टर्र-टर्र ध्वनि, वेग से गुंजित – कंपित वृक्षावली का सिर हिलाकर चित्त को आकर्षित करना, रुकते हुए जल की श्वेत आभा नेत्रों के सम्मुख अद्भुत, विलक्षण दृश्य उपस्थित करती है।
प्रकृति-नटी ने ऋतु-चक्र-नर्तन का अंतिम दृश्य उपस्थित किया शारदीय नृत्य में। फिर हेमंत में शीत का हृदय कँपाने वाला वेग, हिमपूरित वायु का सन्नाटा, कोहरा-धुंध का गाढ़ा अंधकार जिसमें कुछ दिखाई नहीं देता, जो दृश्यमान है भी, उसमें चित्त भय से काँप जाता है। नील गगन का मेघ युक्त सूर्य शीत के प्रभाव से अधिक प्रज्वलित तेज की सृष्टि करके अपनी सुखद किरणों से वसुधा में रस-संचार करता है।
अब आइए, जरा पहाड़ों की ऊँचाई पर अद्भुत, हृदयाकर्षक प्रकृति-सौंदर्य के दर्शन कर लें। हिमपूरित तराइयों में तथा हिमावृत्त चोटियों पर अद्भुत रंग के नील, पीत, ललित कुसुम सहित लताओं तथा ऊँचे-ऊँचे अपार अनगिनत वृक्ष-समूहों के शीतल वायु के झोंकों से दोलायमान होना, पुनः सूर्य की किरणों की चमक पड़ने से हिमावृत चोटियों का इंद्रधनुष-सा रंग जाना कैसा सुंदर दिखाई पड़ता है। पावस ऋतु में पर्वत पर बदलते प्रकृति- दृश्य से विस्मित होकर पंत जी कहते हैं-
‘पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश। पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।’
दूसरी ओर, निर्मल जल में सूर्य चंद्रमा की परछाईं का हिलोरे लेना, तट पर खड़े वृक्षों का चंद्रमा की चाँदनी को छटा बिखेरना किसे नहीं ठग लेता? वस्तुतः प्रकृति-सौंदर्य के सम्मुख मानवी सौंदर्य भी फीका लगने लगता है। तभी तो प्रकृति के चतुर चितेरे कविवर सुमित्रानंदन कह उठते हैं-
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले, तेरे बाल- जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन॥”