संकेत बिंदु-(1) जाति के आधार पर आरक्षण (2) आरक्षण का वर्ग विशेष को लाभ नहीं (3) मंडल आयोग का विरोध (4) आरक्षण के कारण प्रतिभा-पलायन (5) आर्थिक आधार पर आरक्षण।
हमारे देश भारत में आरक्षण को केवल जाति के आधार पर स्वीकार करने की बात कही जाती है, क्योंकि हमारे देश में प्रायः यह माना जाता है कि अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जन जातियाँ तथा अन्य पिछड़ा वर्ग ही आरक्षण का अधिकारी है। जाति का प्रश्न सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास की योजना थी। इस योजना के अंतर्गत दलित वर्ग और पिछड़ी जाति के बच्चों को शिक्षित बनाकर, उनके अंत:करण की चेतना को जागृत कर, उनके मन और मस्तिष्क के द्वार खोलने के स्थान पर आर्थिक सहयोग पर बल दिया गया है। इन जातियों के बच्चों को प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहायता देना और परोक्ष रूप से उनके लिए सरकारी नौकरी तथा चुनावों में स्थान आरक्षित कर उनकी आर्थिक दशा को सुधारने का प्रयत्न किया गया है।
यदि देखा जाए तो आजादी के साठ वर्षों में दलित और पिछड़ा वर्ग के 8-10 प्रतिशत ही अपनी दशा सुधार पाये होंगे। क्योंकि आजादी प्राप्ति के बाद उन्नत और धनाढ्य पिछड़ा वर्ग और दलित समुदाय अपनी जाति के सामूहिक उद्धार से लगभग विमुख हुआ-सा लगता है, क्योंकि इस वर्ग को अपने परिवार और अपने संबंधी वर्ग के हितों में ही संपूर्ण जाति का उत्थान दिखायी देने लगा।
यदि आरक्षण को हम गहरायी से देखें तो पायेंगे कि सरकारी तंत्र में आरक्षण का ढोल अधिक पीटा गया है, इस ओर रचनात्मक कार्य शून्य ही रहा है। राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं के आरक्षण की माँग उठी साथ ही कुछ क्षेत्रों में जाति विशेष के आरक्षण को भी प्रमुखता से लिया गया है।
शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की बात की जाए तो आरक्षण तो है मगर जाति विशेष के उन्हीं लोगों ने इसका लाभ उठाया है जिन्हें इस संदर्भ की जानकारी रही है। अधिकांश: परिवारों के मन में यह भ्रम है कि उनके बच्चों को जाति के आधार पर सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, इसके लिए उनके बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में भले ही कम पढ़ पायें। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक सुविधा रहित और पिछड़े वर्ग को संपन्न और सुख-सुविधा दिलाने के नाम पर अनगिनत योजनाओं के नाम पर पैसा बहाया गया है लेकिन आज भी इन विशेष परिभाषा से परिभाषित की जाने वाली पिछड़ी जातियों का कोई उद्धार नहीं हो सका। आज भी इन्हें मुख्यधारा से अलग बताया जा रहा है, आखिर क्यों? आजादी के साठ वर्षों में पिछड़ी कही जाने वली जातियों को मुख्य धारा में शामिल नहीं कर सके तो भविष्य में कौन से वर्ष में आप इन्हें “विशेष सुख-सुविधा संपन्न बनाकर शामिल कर पायेंगे। ऐसी कोई ‘शताब्दी योजना’ हमारे इन ‘सर्वगुण संपन्न’ राजनेताओं ने बनाई है क्या? केवल हमारे राजनेता अपनी वोटों के लिए ही देश में आरक्षण को मुद्दा बनाकर समाज में अशांति अवश्य फैलाने का कार्य कर देते हैं।
आज देश में सभी वर्ग अपने को आरक्षित जाति कहकर ‘रिजर्व’ होते चले जा रहे हैं, फिर बचा ही कौन है जिसे सरकार की ओर से विशेष सुविधाएँ नहीं मिल रही हैं? आज केवल वही जातियाँ बची हैं जिन्हें सामान्य वर्ग बताकर सुविधाओं से वंचित रखा गया है। जिसके लिए हर प्रकार के कड़े अनुशासन, नियम-कानून और कठिन से कठिन परीक्षाओं में अधिकतम निर्धारित अंकों की अनिवार्य शर्तों का ‘विशेष आरक्षण’ लागू किया गया है, जिसके बिना उसके इस आरक्षण का लाभ किसी भी प्रकार से नहीं मिल पाता है। इसे पाने के लिए सामान्य वर्ग को विशेष सुविधाएँ नहीं चाहिए, इस वर्ग को सामान्य रूप से खुली प्रतिस्पर्धा और कठिन मेहनत के बल पर सफलता चाहिए। इस सामान्य कहे जाने वाले वर्ग ने कभी भी किसी भी दौर में कोई विशेष माँग नहीं की। यह सच है कि राजनेताओं द्वारा सामान्य वर्ग से उसकी उपलब्धियाँ समय-समय पर छीनने का प्रयास किया गया है। कुछ वर्ष पूर्व मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने के विरोध में सारा विद्यार्थी वर्ग सड़कों पर आ गया कि, परिणामस्वरूप तत्कालीन सरकार का पलायन हो गया।
अब मूलभूत प्रश्न उठता है कि देश को आरक्षण से क्या लाभ है? और देश को आरक्षण से क्या हानि है? अगर सच्चाई और ईमानदारी से आरक्षण की बात की जाए तो आरक्षण को लाभकारी तभी कह पाना संभव होगा जब पिछड़े वर्ग या दलित वर्ग के योग्य उम्मीदवार अपनी योग्यता के बल पर उच्च वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा के साथ आगे जाने का साहस करें। आरक्षण मात्र एक माध्यम हो सकता लेकिन सफलता का सोपान नहीं। इसी संदर्भ में यदि यह कहा जाए कि भीमराव अम्बेडकर जो भारत में शिखर पर पहुँचे और आज देश में संविधान का निर्माता कहा जाता है, शायद उन्होंने आरक्षण का सहारा लिया हो? इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।
आरक्षण को जनता ने कम राजनेताओं ने अधिक हवा देकर उछालने का प्रयास किया है। यदि आरक्षण के नाम पर अयोग्य व्यक्तियों को बलात् आगे लाने का प्रयास किया जाएगा तो संभवतः योग्य व्यक्ति के स्वाभिमान को ठेस अवश्य लगेगी, जिसके परिणामस्वरूप योग्य प्रतिमाएँ देश से पलायन कर विदेशों में चली जाएँगी। एक सर्वेक्षण के आधार पर अमेरिका में उच्च पदों पर 40 प्रतिशत भारतीय वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक हैं। अब यदि देखा जाए तो यदि इन प्रतिभाओं को अपने देश में अवसर मिल पाता तो भारत की स्थिति आज क्या होती?
लगता है कि आरक्षण के बजते बिगुल के आगे हमारे देश के योग्य प्रतिभाशाली युवक पलायन करने को विवश हो जाते हैं। हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जब स्वामी विवेकानंद ने विदेश में जाकर अपनी बात कही तो समूचा विश्व भारत को निहारने को विवश हुआ। यह भी सत्य है कि दशमलव की गणना भी भारत की ही खोज है; लेकिन आज भी गंदली राजनीति अपने निजी स्वार्थ में लिप्त होकर देश के भविष्य को भी दाव पर लगा देने में कोई हिचक नहीं करती।
अंत में यही कहा जा सकता है कि आरक्षण की यदि देश में आवश्यकता है तो केवल आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के योग्य उम्मीदवार को ही आरक्षण दिया जाए। इसके लिए किसी जाति विशेष का प्रतिबंध अनिवार्य न हो। आज भी हमारे देश में योग्य विद्यार्थी विद्यमान हैं। जिस प्रकार लाल बहादुर शास्त्री निर्धन परिवार का सदस्य होने के बाद भी अपनी योग्यता के आधार पर विद्यालय या अपने गाँव-घर में ही नहीं भारत में सर्वोपरि माने गए। आज भी लाल बहादुर शास्त्री सरीखे अनेक लोग आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों में लिए जाएँगे केवल जिनको खोजने भर का प्रयास हमें करना होगा।
आर्थिक रूप से पिछड़ा परिवार चाहे उच्च वर्ग का या निम्न वर्ग का, पिछड़ा वर्ग हो या दलित वर्ग, किसी भी वर्ग के परिवार में यदि योग्य प्रतिभावान् छात्र हैं तो इस प्रतिभा को अवसर मिलना ही इस देश के आरक्षण की सफलता कहा जाएगा।