संकेत बिंदु – (1) प्रौढ़ शिक्षा का अर्थ (2) अंग्रेजी शासन में साक्षरता की कमी (3) प्रौढ़ शिक्षा का प्रारंभ (4) प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों की असफलताओं के कारण (5) लोगों में राजनीतिक चेतना।
तीस वर्ष से पचास वर्ष की अवस्था (वय) वाले स्त्री-पुरुष प्रौढ़ कहे जाते हैं। ऐसे निरक्षर या अशिक्षित लोगों को शिक्षा देना, उन्हें साक्षर (बनाना) प्रौढ़ शिक्षा है। निरक्षर, अर्द्धसाक्षर या विस्मृताक्षर प्रौढ़ों को पुनः शिक्षण देना भी प्रौढ़ शिक्षा है।
आज देश का लगभग 40 प्रतिशत, प्रौढ़ वर्ग निरक्षर है। इसलिए वह मानसिक दृष्टि से मंद है, सामाजिक रूप से पिछड़ा है, धार्मिक रूप से अंध-विश्वासी है और राजनीतिक रूप से ‘वोट’ के महत्त्व से अनभिज्ञ है। परिणामतः वह उपहास और निरादर का पात्र और शोषण का शिकार है। अत्यंत भोला होने से वह धूर्तों के माया जाल में जल्दी फँस जाता है।
भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना से पूर्व भारत का प्रायः प्रत्येक नागरिक शिक्षित होता था। राष्ट्र में इसके लिए कुछ संस्थाएँ प्रचलित थीं। गाँव-नगरों में मंदिरों में स्थापित पाठशालाएँ, मदरसे आदि बच्चों की उचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करती थीं। इनके अतिरिक्त उच्च शिक्षा के लिए गुरुकुल और विश्वविद्यालय भी थे। एक अंग्रेज विद्वान् के मतानुसार भारत में साक्षरता का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक था।
अंग्रेजी – राज्य में पाठशालाओं का प्रारंभिक स्वरूप नष्ट हुआ। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति प्रारंभ हुई। फलतः भारत का निम्न मध्यवर्ग तथा ग्रामीण जनता इससे वंचित रह गई या जान-बूझकर वंचित कर दी गई। इस कारण निरक्षरता बढ़ी। यह इस सीमा तक बढ़ी कि आज विश्व के निरक्षर वयस्कों की संपूर्ण संख्या का आधे से अधिक भाग भारत में है। भारत की जनता अशिक्षित रहे, इसमें अंग्रेजों का अपना हित था। कारण, भारतवासी यदि शिक्षित हो जाएगा तो कायदे-कानूनों को समझने लगेगा। अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का प्रयास करेगा जो उन्हें वांछित न था।
अशिक्षित जनता में भी अनपढ़ स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक थी। पता नहीं क्यों कन्याओं को पढ़ाना महत्त्वहीन माना जाने लगा। अपवाद स्वरूप कुछ स्त्रियाँ पढ़-लिखकर विदुषी बन गईं। महर्षि दयानंद, राजा राममोहनराय, पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी, भारतेंदु हरिचंद्र पंडित मदनमोहन मालवीय आदि समाज-सुधारकों ने स्त्री- शिक्षा पर बल दिया। आगे चलकर महात्मा गाँधी ने स्त्री शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। देश के स्वतंत्र होने के बाद सन् 1951 में प्रथम जनगणना में भारत में शिक्षितों की संख्या 16.6 प्रतिशत थी।
देश में जब प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों का जाल-सा बिछ गया तो राष्ट्रीय सरकार का ध्यान उन अनपढ़ लोगों की ओर गया जिनकी आयु प्राथमिक स्कूलों में भरती होने के योग्य न थी या वे दिन में कमाई करने के कारण उन विद्यालयों में जा नहीं सकते थे। राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में इस वर्ग का विशेष हाथ रहता है। अशिक्षित होने के कारण प्रौढ़ वर्ग का जीवन जीने के मूल्यों से अपरिचित, सामाजिक गिरावट, आर्थिक दुर्दशा तथा राजनीतिक जागरूकता के अभाव में राष्ट्र की उन्नति में बाधक था। फलतः 2 अक्तूबर, 1978 को राष्ट्रपिता गाँधी के जन्मदिन से ‘प्रौढ़ शिक्षा’ का विधिवत् श्रीगणेश हुआ। इसके लिए छह सौ करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया।
राजकीय स्तर पर रात्रि पाठशालाएँ खुलीं, प्रौढ़ स्त्रियों के लिए दोपहर के खाली समय में पढ़ाने की योजना बनी। रात्रि हाईस्कूल तथा सीनियर सेकेंडरी स्कूल खोले गए। कॉलेजों में भी रात्रि – कक्षाओं की व्यवस्था की गई। धीरे-धीरे यह प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम गति पकड़ने लगा।
सरकार ने कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का भी सहयोग इस योजना की कार्यान्विति में लिया। सभी राज्यों में प्रौढ़ शिक्षा केंद्र प्रारंभ हुए।
परिणाम सुखद निकले। शहरी क्षेत्र के अनपढ़ निवासियों ने इसमें ज्यादा रुचि दिखाई। परिणामतः शिक्षितों की संख्या शहरों में 70 प्रतिशत तक पहुँच गई। केरल प्रांत में यह संख्या 10 प्रतिशत के लगभग है।
प्रश्न है अशिक्षित प्रौढ़ों में शिक्षा के प्रति उत्साह कैसे जागृत हो? सूर्योदय से सूर्यास्त तक जी-तोड़ काम करने वाला किसान या मजदूर जब शाम को थका-हारा घर लौटता है, तो उसमें इतनी शक्ति और मानसिक शांति कहाँ रह जाती है, जो वह शिक्षा के लिए लालायित हो सके। इसलिए रात्रि पाठशालाओं में पढ़ाई का वातावरण ही नहीं बन पाता। दिल्ली प्रांत के ‘नाइट स्कूल’ इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। जहाँ 2-3 पीरियडों के बाद ही कक्षाएँ खाली नजर आती हैं।
दूसरे, साक्षरता अभियान को रोजगारोन्मुख नहीं बनाया गया। अधिक प्रचार तो ‘काम के बदले अनाज’ का रहा। परिणामतः पढ़ने के इच्छुक प्रौढ़ों ने पढ़ने-लिखने की अपेक्षा दूसरी ओर ध्यान लगाया।
तीसरी ओर, इस वर्ग को पढ़ाने वाले की मनःस्थिति स्वस्थ, उत्साहप्रद एवं स्वयंस्फूर्त होनी चाहिए। उनके वातावरण में घुल-मिलकर एकात्मक होने की चेष्टा होनी चाहिए। यह तभी संभव है, जब वेतन अच्छा हो। यह केवल मात्र 1000 रुपये मासिक रखा गया, जो अत्यल्प है। दूसरी ओर, 50 प्रतिशत स्थान स्त्रियों के लिए सुरक्षित रखे गए। यह भी एक रुकावट बनी। कारण, शिक्षित महिलाएँ इतने थोड़े वेतन पर नहीं आतीं।
चौथी ओर, राजीव गाँधी के अनुसार निर्धारित राशि का 85 प्रतिशत तो नौकरशाही और लालफीताशाही ही खा जाती थी। परिणामतः उस राशि का 15% रुपया ही इस योजना की कार्यान्विति में खर्च होता था, जिसने ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ मुहावरे को चरितार्थ किया है।
आज भारत का नागरिक जिन राजनीतिक स्थितियों से गुजर रहा है, उससे उसमें राजनीतिक चेतना जागृत हो रही है। आज का झुग्गी-झोंपड़ी वाला गरीब और सुदूर गाँव में रहने वाला व्यक्ति भी राजनीति के छल-छंदों को, हथकाण्डों को, उसके उतार-चढ़ाव को समझने लगा है। राजनीतिक चेतना ने उसे अपने बच्चों को पढ़ाने को विवश किया हैं। जब वह यह देखता है कि गाँव का कल का छोकरा आज का जज है, प्रोफेसर है, इंजीनियर है, मुख्यमंत्री है, केंद्रीय सरकार को भी चलाता है तो उसका हृदय अपने लाडलों को भी इस पद पर देखने के स्वप्न लेने लगता है। यह स्वप्न उसे बच्चों को शिक्षित करने के लिए विवश करता है।
प्रौढ़ शिक्षा का भविष्य अब उज्ज्वल है। राजनीतिक चेतना और नई सरकार की नीयत प्रौढ़ों की नियति को बदलेगी।