संस्कारों का भारतवर्ष में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। चिरकाल से उनकी व्यावहारिक उपयोगिता और उद्देश्य रहा है, यद्यपि आज उनकी सत्ता एवं महत्ता पर प्रश्नवाची चिह्न और निरुद्देश्यता का कलंक लग गया है क्योकि आज के इस वैज्ञानिक एवं परिवर्तित जीवन के साथ उनका सामंजस्य नहीं हो सका। किंतु इतना होते हुए भी उनकी अपनी महत्ता है। समाज – विज्ञान की दृष्टि से भी संस्कार अपना महत्त्व रखते हैं, सामाजिक मानवीय गुणों के विकास में सदियों और सहस्राब्दियों के संस्कार ही काम करते हैं।
संस्कारों का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रयोजन तो मानवीय विकास की पूर्ति ही है। श्रेष्ठ संस्कारों से, सद् आचरण से, मानव शुभ एवं पुण्य आचरण करता हुआ जीवन में सफलता प्राप्त करता है तथा अमंगल प्रभावों को दूर करता है। समस्त हिंदू-संस्कारों में इन अमंगलजनक तथा भूत-प्रेत-पिशाचों के निराकरण के लिए नाना प्रकार की स्तुतियाँ एवं अनुष्ठान यहाँ सदा से होते रहे हैं। जल-प्रोक्षण से जहाँ शरीर शुद्धि होती थी, वहीं अभिसिंचित जल से भूत, पिशाच एवं राक्षसों से रक्षा की जाती थी। इन अनुष्ठानों से अभीष्ट प्रभावों को आकृष्ट किया जाता था। भारतीय जन-जीवन में यह विश्वास घर किए हुए था कि ईश्वर सर्वव्यापक है। देवता मानव जीवन में सर्वतः अभिव्याप्त हैं; उन्हें सन्तुष्ट रखना आवश्यक है, उनके सन्तुष्ट होने पर अभीष्ट सुख की प्राप्ति होगी, अतः संस्कारों से व्यक्ति सर्वथा देवों की स्तुति करता एवं बड़ों से आशीर्वाद इन अवसरों पर ग्रहण करता था। संस्कारों का भौतिक प्रयोजन भी यह था कि यज्ञ-योग अनुष्ठानों के समय देव-स्तुति होती है। इन स्तुतियों के माध्यम से हमारी आवश्यकताओं को जान लेते हैं और फिर वे धनधान्य आदि हमें प्रदान करते हैं। इसी प्रकार आत्माभिव्यक्ति के साधन भी ए संस्कार होते हैं क्योंकि इन विशेष अवसरों पर मनुष्य हर्ष, शोक और दुःख आदि को भी व्यक्त करने के लिए इन संस्कारों का आयोजन कभी-कभी करता है। जहाँ संस्कारों के उपर्युक्त प्रयोजन हैं, वहाँ इन संस्कारों के गम्भीर सांस्कृतिक प्रयोजनों का भी विद्वानों ने निर्देश किया है। मनुस्मृतिकार का तो यहाँ तक कहना है कि गर्भ, होम, जातकर्म, चूड़ाकर्म और मौञ्जी बंधन संस्कार के अनुष्ठान से द्विजों के गर्भ तथा बीज सम्बन्धी दोष दूर हो जाते हैं।”
तो दूसरी ओर इन संस्कारों से पवित्रता आदि का भी शरीर पर आधान किया जा सकता है। मनुस्मृति में लिखा है कि प्रत्येक द्विज को, स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर की शुद्धि के लिए षोडश संस्कार करने चाहिए; जिनसे इस लोक एवं परलोक में पवित्रता की प्राप्ति होती है। इन संस्कारों में यज्ञयाग की पूर्ण प्रक्रियाओं को त्रिया जाता है, अतः यह ब्रह्म शरीर भी कहा जाता है।
मनु का कहना है कि स्वाध्याय, जप, यज्ञ, महायज्ञ आदि के वैदिक विधि- विधान पूर्वक करने से मानव शरीर ब्रह्मीय शरीर हो जाता है। वस्तुतः उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि संस्कार प्रथा मात्र नहीं है, अपितु स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर की मानसिक व शारीरिक शुद्धि के लिए जो विधिवत् क्रियाएँ की जाती हैं उनको ऋषियों और महर्षियों ने ‘संस्कार’ नाम दिया है।
उपर्युक्त समस्त प्रयोजनों का समष्टिगत प्रभाव नैतिकता के विकास एवं व्यक्तित्व के निर्माण पर पड़ता है। इन संस्कारों का विधान, विकास व योजना, `इस सभी को पूर्ण रूप से यदि हृदयंगम किया जाय तो उनसे मानव का जीवन पूर्ण रूप से सुसंस्कृत बन सकता है। मानव मात्र के स्वास्थ्य, आयु तथा अनुशासित जीवन के निर्माता भी संस्कार स्वीकार किए जा सकते हैं। संस्कार हिंदू संस्कृति का, चरित्र का, नैतिकता का पूर्णतः विकास व पोषण करते हैं।
संस्कारों का एक और महान् प्रयोजन आध्यात्मिक था। हिंदू-धर्म का अंग- प्रत्यंग आध्यात्मिक भावनाओं से निर्मित है। उन आध्यात्मिक भावनाओं के विकास वं पोषण में संस्कार महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। डा0 राजवली पाण्डेय का मत है कि “संस्कार हिंदू के लिए सजीव धार्मिक अनुभव थे, केवल बाहरी उपचार मात्र नहीं। संस्कार जीवन की आत्मवादी और भौतिक धारणाओं के बीच मध्य मार्ग का काम देते थे। संस्कार एक प्रकार से आध्यात्मिक शिक्षा की क्रमिक सीढ़ियों का कार्यं करते थे। यही वह मार्ग था, जिससे क्रियाशील सांसारिक जीवन का समन्वय आध्यात्मिक तत्त्वों के साथ स्थापित किया जाता था। हिन्दुओं का विश्वास था कि सविधि संस्कारों के अनुष्ठान से वे दैहिक बंधन से मुक्त होकर मृत्यु सागर को पार कर लेते हैं।”