संकेत बिंदु-(1) प्रगति मैदान में मेला (2) भारतीय भाषाओं के स्टाल (3) भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना (4) अंग्रेजी मंडप में पर्याप्त भीड़ (5) उपसंहार।
नई दिल्ली में भारत के उच्चतम न्यायालय की बाईं ओर लालबहादुर शास्त्री मार्ग पर एक विशाल मैदान है, जिसे ‘प्रगति मैदान’ के नाम से जाना जाता है। वस्तुत: यह मैदान प्रदर्शनी स्थल है। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यहाँ प्रदर्शिनियाँ लगती रहती हैं। प्रदर्शनी राष्ट्र की प्रगति की सूचक होती है। अतः इस मैदान का नाम ‘प्रगति मैदान’ रखा गया है।
13 फरवरी, 2000 को रविवार का दिन। पुस्तक मेले का अंतिम दिन। पिताजी ने प्रातः ही घोषणा कर दी कि आज ‘पुस्तक मेला’ देखने जाएँगे। अतः रविवार होते हुए भी भोजन अपेक्षाकृत जल्दी बना। खा-पीकर, विश्राम करने के उपरांत ग्यारह बजे के लगभग हम चल पड़े प्रदर्शनी देखने। पिताजी ने बड़ी बहन, माताजी और मुझे साथ लिया। टैक्सी की और चल दिए प्रगति मैदान के लिए। लगभग आधा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए।
पुस्तक-प्रदर्शनी पाँच हॉलों में लगी थीं। तीनों हॉल एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर थे। सबसे सुंदर स्थान अंग्रेजी वालों का था। वे दो हॉल और तीसरे हॉल का ग्राउंड फ्लोर घेरे हुए थे। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ दासी पुत्री होने के कारण जरा दूर 6 नम्बर हॉल में बिठा रखी थीं।
हिंदी को पृथक् हॉल प्रदान नहीं किया गया था। अंग्रेजी की मानसिकता के व्यवस्थापकों में हिंदी को गौरव प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए भारतीय भाषाओं के अंदर उसे स्थान दिया गया। ‘हिंदी- हॉल’ कहने और नाम देने में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।
भारतीय भाषा के प्रकाशकों ने अपने प्रकाशनों को हैसियत के अनुसार स्टैंड अथवा स्टॉल लेकर प्रदर्शित किया हुआ था। पुस्तकों के रंगीन तथा आकर्षक आवरण तथा नाम देखकर हम लोग पुस्तक उठाते, उसे उलटते-पलटते और अच्छी लगती तो खरीद लेते। एक चीज बिना माँगे मिल रही थी- प्रकाशकों के सूची-पत्र। इस मंडप से हमने 5-6 निबंधों की तथा 4-5 सामयिक विषयों की पुस्तकें खरीदीं।
इस मंडप को देखने में समय लगा। पिताजी के मिलने वाली, माताजी की शिष्याएँ, बहिन के सहपाठी और मेरे मित्र मिले। मिलने पर चेहरे मुस्करा उठते। किसी से हाथ मिलाकर, कभी हाथ जोड़कर, कभी चरण-स्पर्श कर अभिवादन करते। एक-दो मिनट गपशप करते।
यह मंडप भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना था। वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, बोलचाल के सभी रूप और रंग इस मंडप में देखने को मिलते थे। बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तरी भारत की नारियों को धोती बाँधने और ओढ़ने में विविधता देखकर लगा सचमुच हम भारतीय हैं। यहाँ विविधता में भी एकरूपता के दर्शन हुए।
एक बात बताना मैं भूल गया। जिस-जिस स्टैंड या स्टॉल पर बच्चों की पुस्तकें प्रदर्शित थीं, वहाँ भीड़ भी अधिक थी और बिक्री भी। सर्वाधिक भीड़ ‘डाइमंड पब्लिशर्स’ या ‘चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट’ के स्टॉल पर थी। बच्चों के लिए बहुरंगी पुस्तकें, किंतु बहुत सस्ते मूल्यों में, ये दो ही प्रकाशक बेच रहे थे। वैसे भी, यह मेला बाल साहित्य को समर्पित था। एक हॉल में बाल-साहित्य की भव्य प्रदर्शनी देखते ही बनती थी।
दो घंटे की चहल कदमी से हम लोग थक गए थे। इसलिए थोड़ी देर के लिए हॉल से बाहर खाने-पीने के परिसर में पहुँचे। गरम-गरम कॉफी पी। समोसे और गुलाबजामुन खाए। थोड़ा विश्राम किया।
अब हम गए अंग्रेजी-मंडप में अंग्रेजी-मंडप में पर्याप्त भीड़ थी। कलात्मक दृष्टि से भारतीय प्रकाशनों से सहस्रों गुणा अधिक सौंदर्यपूर्ण पुस्तकें। बच्चों के लिए बहुरंगी और बढ़िया पुस्तकें देखकर तो मन ही नहीं भरता था। माताजी बार-बार कहती थीं, ‘बेटा जल्दी करो।’ पर बेटा जल्दी तो शरीर से कर सकता था, मन तो पुस्तकों में अटका था। यहाँ हमने 15-20 पुस्तकें खरीदीं। पिताजी ने अद्यतन विषयों अर्थात् करेंट टॉपिक्स पर तथा माताजी ने शिक्षा मनोविज्ञान पर दो-चार पुस्तकें खरीदीं।
अंग्रेजी-मंडप में अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त अन्य विषयों की बहुत पुस्तकें देखीं। इस मंडप की विशालता, साज-सज्जा, प्रकाशकों के परिधान, बातचीत का ढंग, खरीदी गई पुस्तकें बढ़िया लिफाफों में डालकर देने की पद्धति, सूची-पत्रों की अपेक्षाकृत विशालता देखकर लगा कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। एक ओर भारतीय भाषा-मंडप की दरिद्रता और खरीदारों का अभाव तथा दूसरी ओर, अंग्रेजी मंडप की शान- शौकत, चहल-पहल और खरीदारी।
सायं 7.30 बज चुके थे। चल चलकर पैर जवाब दे चुके थे, परंतु मन देख-देखकर ‘नहीं भर रहा था; उसकी तमन्ना थी, और देखा जाए। ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं।’ मन को झुकना पड़ा। हम बाहर निकल आए। भाई-बहन पुस्तकों के पैकिट उठाए हुए थे, तो माताजी-पिताजी सूचीपत्रों का ढेर।